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मृगतृष्णा

जे. पी. डिमरी

 

जल विहीन धरती जलमय सी,
मृगतृष्णा कहलाती है,
प्यास पथिक की बढ़ा-बढ़ा,
जीवन का नाच नचाती है।
रश्मि-परिवर्तन से भ्रमिक,
जलमग्न-धरा सी लगती है,
लेकिन पानी-पानी करते,
गति सांसो की थम जाती है।
मानव-जीवन, मोहग्रस्त है,
परा-प्रकृति समझाती है,
फिर भी मन के मारे मरते,
बुद्धि-भ्रष्ट हो जाती है।
यह भौतिकता की चकाचौंध,
मद-काम-क्रोध, बन जाती है,
निज हित सर्वोपरिता बनकर,
मति पथ-विहीन हो जाती है।
नाभि-चक्र को सुरभित कर,
खुशबू.. मृग को भरमाती है,
बने बावरा वन-वन डोले,
जिद, मृगतृष्णा बन जाती है।

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