(एक व्यंग)
डॉ. जहान सिंह “जहान”
आजकल कवि क्या कमाल करते हैं।
शब्दों की भीड़
शब्दों का धरना
शब्दों का प्रदर्शन कर
साहित्य का ट्रैफिक जाम करते हैं।
इस जाम को कविता और खुद को कवि कहते हैं।
आजकल कवि क्या कमाल करते हैं।
मंच पर विराजे आर. टी. ओ. (साहित्य अधिकारी)
अपना डी. एल. (पाठन पत्र) लेकर
काव्य के हाईवे पर उतर जाते हैं।
ताली के लिए कटोरा
और माले के लिए झोली फैला देते हैं।
ऊबते श्रोताओं से बारी-बारी आंखें चार करते हैं।
आजकल कवि क्या कमाल करते हैं।
साहित्य के जाम में फंसे बेबस श्रोता
खुली सांस के लिए
बाथरूम जाने का बार-बार अभिनय करते हैं।
कभी-कभी मोबाइल को ढाल बना कर निकल जाते हैं।
श्रोता भी बड़े अनुभवी हो गए हैं।
टाइम पास, चाय पकौड़ी, गपशप और अपनी
ऊंची-ऊंची हांकने को चले आते हैं।
नए प्रोग्राम की डेट लेकर
चलो एक दिन गुजरा
साझे के ऑटो में खुशी से घर लौट जाते हैं।
आजकल कवि क्या कमाल करते हैं।
वरिष्ठ कवि नाराज आते हैं
और नाराज लौट जाते हैं।
कुछ सलाह जरूर दे जाते हैं।
कवि सम्मेलन भी अब कई फ्लेवर में होने लगा है।
पिज़्ज़ा, पास्ता, मोमो, चाऊमीन,
बर्गर जैसे स्टाइलों में सजने लगा है।
हर स्टाइल पर अपनी सुनाकर दिन तमाम करते हैं।
आजकल कवि क्या कमाल करते हैं।
लौटते कवि बस एक पुस्तक, एक अंग वस्त्र,
एक माला, एक लंच बॉक्स में प्रसन्न हो जाते हैं।
अगले दिन अखबार की कटिंग, फोटो भेज कर
मिलने-जुलने वालों को जमकर बोर करते हैं।
कभी जवाब आते कभी नहीं आते
यह सब सहन करते हैं।
कुछ लोग तो अपना मोबाइल नंबर देने से डरते हैं।
आजकल कवि क्या कमाल करते हैं।
हम सब कवि हैं “जहान”
चलो मिलकर सब मुस्कुराते हैं।
फिर वही अपने पुराने कौशल में लग जाते हैं।
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