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मेरी कलम से…

ममता सिन्हा


मैं उतरन उतराई थी!
पीड़ित मन सकुचाई थी!!
लड़की आने से नाखुश,
कुपित हमारी माई थी!!
पढ़ मत ज्यादा कहती थी!
डाँट डपटती रहती थी!!
लड़के ही बस तारेंगे,
उनके लिये पराई थी!!
कुपित...........
तू पढ़ने जो जायेगी!
पढ़ के क्या तू पायेगी!!
दूजे घर ही जाना है,
हर पल यही सुनाई थी!!
कुपित............
पढ़ने में मैं थी अव्वल!
कठिन सवालों का थी हल!!
था स्नेह बेटों के लिये,
मेरे लिये दुहाई थी,
कुपित...........
माँ की बहुएं थी इक आस!
पोता पाने का विश्वास!!
मैं बस सबकी थी चाकर,
बन बैठी इक दाई थी!!
कुपित...........
सपनों का घातक विध्वंस!
बचा न मुझमें मेरा अंश!!
पहुंच गई दूजे घर को,
गूंज उठी शहनाई थी!!
कुपित............
चाहा था होऊंगी सफल!
खण्डित सपने मिला न फल!!
तन को 'तज' "मीना" चाहे,
वहाँ भी न सुनवाई थी!!
कुपित..........

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