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मेरी चारुलता

भोलानाथ

लेकिन मां बार-बार टोकती कि रवीन्द्र शादी कर ले, लेकिन मैं ना कर देता इसका कारण थी चारुलता। जिसका जिक्र आते ही आंखें नम हो जाती हैं। वह जो मेरी जिंदगी थी। दिन रात जिंदगी के हसीन सपने सजोये थे। बचपन का साथ जवानी की दहलीज पर पहुचते ही प्यार में कब तब्दील हो गया पता ही नहीं चला। जब सबको पता चला तब हंगामा हो गया चारूलता के भाईयों ने हाथापाई भी किया। लेकिन दोस्तों के कारण मुझे कुछ भी नहीं हुआ क्योंकि वह ब्राह्मण थे और उंच नीच की बात करने लगे। चारूलता कहने लगी मैं अपने परिवार के खिलाफ नही जा सकती। लेकिन उसके आँखें नम थी। फिर उसे कहीं भेज दिया गया था। उसके परिवार वाले भी कही अन्य किसी शहर मे चले गए।
मैं भी आगे की पढाई के लिए शहर चला गया। जीवन में बहुत पैसा कमाया लेकिन जो कमी थी, वह जो पूरी नही हो सकती थी। शादी की बात होती तो मन अशांत हो जाता। लगता था उसके बिना सब अधूरा है। नम आंखें कभी-कभी वेग से बहने लगती थी।
गांव कम ही जाता था। इसबार तो पूरे 4 साल बाद आया। उससे बिछडे 16 साल बित चुके हैं। स्टेशन के बाहर निकल कर अपने एक दोस्त के स्टेशनरी की दुकान पर गया। उसने चाय मंगवाई फिर सुरीली आवाज सुनाई दी जो कुछ मांग रही थी।
वह चारुलता थी। अधपके बाल, साधारण साड़ी, चेहरे पर कोई तेज नही, बगल में एक बैग, मांग में सिंदूर भी नही था, यानी .............. बहुत सारे सवालों से मैं बेचैन हो गया।
मैंने उसके पास जाकर पूछा, “कैसी हो? चारू?”
उसने मुडकर देखा, आचानक से मुझे देखकर अवाक हो गई। फिर लडखराते हुईं बोली, “अरे तुम …..?”
उसकी आंखें नम हो गई और आंसुओं की बरसात शुरू हो गई।
जब शांत हुई तो बताया कि उसने शादी नही की।
बहुत पहले ही घर में बटवारा हो गया था। वह मां के साथ ही गांव आई हैं। मां उसके बिना असहाय हो गई थी, इसलिए अबतक शादी नहीं कर पायी।
मुझसे पुछा कि क्या मैंने शादी की या नही और कितने बच्चे हैं?
मैंने कहा, “परिवार तो गांव में है आकर मिल लो।” उसका चेहरा मायुस हो गया। मैंने दोस्त को चुप रहने का इशारा किया।
पहले तो कुछ आनाकानी की फिर मां से मिलने घर चलने को तैयार हो गई।
जब गांव पहुंचे तो शाम हो चुकी थी। घर में घुसते ही चारू ने माता-पिता के चरणस्पर्श किये और मां से बड़ी ही उत्सुकता से पूछा कि रविंद्र का परिवार कहां है? 
मां बोली यही तो हैं सब। रविंद्र ने शादी ही कहा की थी। वह तो सारी जिंदगी तुम्हारी राह ही देखता रहा। अब तुम आ गई हो तो उसके जीवन में खुशी जरूर लौट आएगी। सिर्फ तुम्हारी ही कमी थी।
चारूलता बोली रविंद्र लेकिन तुमने तो कहा था कि तुम्हारी पत्नी और बच्चे। उसे मैं जवाब देता उससे पहले ही मां सिंदूर की डिबिया आगे कर बोली बेटा भरदे इसका मांग।
सिंदूर लगते ही वह मुझसे लिपट गई। उसका चेहरा दमकर खिल उठा। अब वह पहले वाली चारू लग रही थी। वह बस रोये जा रही थी। वहाँ खड़े बाकी लोगों का ख्याल आते ही वह अलग हो गई।
मैंने पुछा क्या अब भी जाति का कीड़ा काट रहा है? वह क्षेप गई। सब हसने लगे। चारूलता के मां के आंखों में आंसू थे, वह भी खुशी के।

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