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मेरी पसंदीदा अभिनेत्री मीना कुमारी महजबीं

आर सी त्रिपाठी

फिरते हैं हम अकेले बाहों में कोई ले ले
आखिर कोई कहां तक तन्हाइयों से खेले..
दोस्तों प्रस्तुत है, दुखांत फिल्मों की मशहूर अदाकारा / शायरा / कवियित्री / पार्श्व गायिका / कास्ट्यूम डिजाइनर / शोकांत फिल्मों की महारानी / ट्रेजेडी क्वीन / भारतीय सिनेमा की सिंड्रेला / नाज / मीना कुमारी (महजबीं) से जुड़े खास यादों का कारवां....
सबसे पहले मैं आपको बताता चलूं कि मीना कुमारी का संबंध टैगोर परिवार से है। मीना कुमारी की नानी हेमसुन्दरी मुखर्जी पारसी रंगमंच से जुड़ी हुईं थी। बंगाल के प्रतिष्ठित टैगोर परिवार के पुत्र जदुनंदन टैगोर (1840-62) ने परिवार की इच्छा के खिलाफ हेमसुन्दरी से विवाह कर लिया। 1862 में दुर्भाग्य से जदुनंदन का देहांत होने के बाद हेमसुन्दरी को बंगाल छोड़कर मेरठ आना पड़ा। यहां अस्पताल में नर्स की नौकरी करते हुए उन्होंने एक उर्दू के पत्रकार प्यारेलाल शंकर मेरठी (जो कि ईसाई थे) से शादी करके ईसाई धर्म अपना लिया। हेमसुन्दरी की दो पुत्री हुईं जिनमें से एक प्रभावती, मीना कुमारी की माँ थीं। प्रभावती जो एक मशहूर नृत्यांगना और अदाकारा थी, करिअर को बनाने / रोजी रोटी की तलाश में मेरठ से मुंबई आ गईं। यहां उनकी मुलाकात पारसी रंगमंच के मंजे कलाकार अली बक्श से हुई। दोनों में प्रेम पनपा और दोनों ने शादी कर ली। मुस्लिम परिवार में शादी होने की वजह से हिंदू टैगोर परिवार की बेटी प्रभावती इकबाल बानो कहलाने लगीं। इकबाल बानों / अलीबक्श से तीन बेटियां हुई। खुर्शीद, महजबीं (मीना कुमारी) व मधु। बड़ी बहन खुर्शीद जूनियर और छोटी बहन मधु बेबी माधुरी के नाम से फिल्मों में काम करती थीं। उनके पिता अलीबक्श ने फिल्म "शाही लुटेरे" फिल्म में संगीत भी दिया। फिल्मी पृष्ठभूमि से जुड़े होने की वजह से महजबीं / मीना कुमारी भी फिल्मों की ओर रुख कीं।
महजबीं पहली बार 1939 में फिल्म निर्देशक विजय भट्ट की फिल्म "लैदरफेस" में बेबी महज़बीं के रूप में नज़र आईं। 1940 की फिल्म "एक ही भूल" में विजय भट्ट ने इनका नाम बेबी महजबीं से बदल कर बेबी मीना कर दिया। 1946 में आई फिल्म बच्चों का खेल से बेबी मीना 13 वर्ष की आयु में मीना कुमारी बनीं। मार्च 1947 में लम्बे समय तक बीमार रहने के कारण उनकी माँ की मृत्यु हो गई। मीना कुमारी की प्रारंभिक फिल्में ज्यादातर पौराणिक कथाओं पर आधारित थीं जिनमें हनुमान पाताल विजय, वीर घटोत्कच व श्री गणेश महिमा प्रमुख हैं। 01 अगस्त 1933 को दादर मुंबई मीठावाला चाल / ब्रिटिश भारत / में जन्मी मीना कुमारी ने 1939 से 1972, 33 वर्षों तक 93 फिल्मों में यादगार भूमिकाएं निभाई। उन्हें 1954: बैजू बावरा, 1955: परिणीता, 1963: साहिब बीबी और ग़ुलाम, 1966: काजल फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री फिल्म फेयर अवार्ड व बंगाल फ़िल्म पत्रकार संगठन की ओर से 1958 में शारदा, 1963: आरती, 1965: दिल एक मंदिर, 1973: पाक़ीज़ा के लिए (मरणोपरांत) पुरस्कार के लिए नामित किया गया। 1954 में आई उनकी फिल्म बैजू बावरा ने मीना कुमारी को बेस्‍ट एक्‍ट्रेस का फिल्म फेयर अवॉर्ड दिलवाया। यह अवार्ड पाने वाली वह पहली नायिका थीं। 1962 में आई उनकी फिल्म साहब बीबी गुलाब जिसे विजेता फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री पुरस्कार प्राप्त हुआ। उसे 13वें बर्लिन अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोह में नामांकित किया गया। जहाँ मीना कुमारी को प्रतिनिधि के तौर पर चुना गया। यह फ़िल्म 36वें अकादमी पुरस्कार के सर्वश्रेष्ठ विदेशीय भाषा वर्ग में भारत द्वारा भेजी गई थी। 1964 में भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास पर आधारित चित्रलेखा में उन्होंने काम किया। यह उनकी पहली रंगीन फिल्म थी। इस फिल्म में उनके साथ सहकलाकार के रूप में प्रदीप कुमार व अशोक कुमार ने काम किया। फिल्म का यह गीत
"संसार से भागे फिरते हो, भगवान को तुम क्या पाओगे"
बड़ा ही मशहूर हुआ। 1972 में आई पाकीजा फिल्म ने विशेष बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन पुरस्कार जीता। मीना कुमारी के मरणोपरांत यह फिल्म, फिल्म फेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के पुरस्कार के लिए नामित हुई। यह एक त़वायफ़ की मार्मिक कहानी है। फिल्म में संगीत गु़लाम मोहम्मद ने दिया था और उनकी मृत्यु के पश्चात फिल्म का पार्श्व संगीत नौशाद ने तैयार किया। फिल्म प्रमुख गीत
· "चलो दिलदार चलो चाँद के पार चलो, हम हैं तैयार चलो ...."
· "चलते चलते युंही कोई मिल गया था सरे राह चलते चलते ..."
· "इन्ही लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा ...."
· "ठाढे़ रहियो ओ बाँके यार रे..."
· "आज हम अपनी दुआओं का असर देखेंगे, तीरे नज़र देखेंगे, ज़ख्मे जि़गर देखेंगे...."
· "मौसम है आशका़ना,
सहित सभी गाने लता मंगेशकर द्वारा गाये गये और बड़े मशहूर हुए, जिन्हें आज तक याद किया जाता है। फिल्म का निर्देशन क़माल अमरोही ने किया था जो मुख्य नायिका मीना कुमारी के पति भी थे। फिल्म लगभग 14 वर्षों में बन कर तैयार हुई। इसमें मीना कुमारी ने नरगिस साहिब जान का किरदार निभाया। फिल्म की कहानी यह है कि नरगिस (मीना कुमारी) जो कोठे पर पलती है। वो इस दुश्चक्र को तोड़ पाने में असमर्थ रहती है। नरगिस जवान होती है और एक खूबसूरत और लोकप्रिय नर्तकी / गायिका साहिबजान के रूप मे विख्यात होती है। नवाब सलीम अहमद खान (राज कुमार) साहिबजान की सुंदरता और मासूमियत पर मर मिटता है और उसे अपने साथ, भाग चलने के लिए राजी़ कर लेता है। लेकिन वो जहां भी जाते है लोग साहिबजान को पहचान लेते हैं। तब सलीम उसका नाम पाकीज़ा रख देता है और कानूनी तौर पर निका़ह करने के लिये एक मौलवी के पास जाता है। सलीम की बदनामी ना हो यह सोच कर साहिबजान शादी से मना कर देती है और कोठे पर लौट आती है। सलीम अंततः किसी और से शादी करने का निर्णय लेता है और साहिबजान को अपनी शादी पर नृत्य करने के लिए आमंत्रित करता है। साहिबजान जब मुजरे के लिये आती है तो कई राज़ उसका इंतजा़र कर रहे होते हैं। इस फिल्म ने बॉक्स ऑफ़िस पर धूम मचा दी और उस दौर में 60 मिलियन INR कमाई की। इस फिल्म की कास्ट्यूम डिजाइन खुद मीना कुमारी ने की थी।
पाकीजा के रिलीज होने के तीन हफ्ते बाद, मीना कुमारी गंभीर रूप से बीमार हो गईं। 28 मार्च, 1972 को उन्हें सेंट एलिजाबेथ के नर्सिग होम में भर्ती कराया गया। मीना ने 29 मार्च, 1972 को आखिरी बार कमाल अमरोही का नाम लिया, इसके बाद वह कोमा में चली गईं। 31 मार्च 1972, गुड फ्राइडे वाले दिन दोपहर 3 बजकर 25 मिनट पर महज़ 38 वर्ष की आयु में मीना कुमारी ने अंतिम सांस ली। पति कमाल अमरोही की इच्छानुसार उन्हें बम्बई के मडगांव स्थित रहमताबाद कब्रिस्तान में दफनाया गया। मीना कुमारी इस लेख को अपनी कब्र पर लिखवाना चाहती थीं:
"वो अपनी ज़िन्दगी को एक अधूरे साज़, एक अधूरे गीत, एक टूटे दिल,
परंतु बिना किसी अफसोस के साथ समाप्त कर गई"
महज 39 साल की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह गईं। जब मीना कुमारी की मौत हुई, उस वक्त उनके पास अस्पताल का बिल भरने के भी पैसे नहीं थे। मौत को गले लगाने से पहले मीना कुमारी अपनी गजल व नज़्म की ढाई सौ डायरियां गीतकार गुलजार के नाम वसीयत करके गयीं। यह सभी डायरियां गुलजार साहब के पास हैं। 'मेरे अंदर से जो जन्मा है, वह लिखती हूं जो मैं कहना चाहती हूं वह लिखती हूं।' मीना कुमारी ने अपनी वसीयत में अपनी कविताएं छपवाने का जिम्मा गुलजार को दिया था जिसे गुलज़ार ने ‘नाज’ उपनाम से छपवाया। सदा तन्हा रहने वाली मीना कुमारी ने अपनी रचित एक गजल के जरिए अपने दिल के हाल को कुछ इस तरह बयां किया...
.. चांद तन्हा है आसमां तन्हा
दिल मिला है कहां कहां तन्हा
राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जायेगें ये जहां तन्हा..
मीना कुमारी पर जितना लिखा जाए कम है। उन पर मशहूर लेखकों / पत्रकारों द्वारा अनेक बायोपिक लिखे जा चुके हैं। मीना कुमारी पर पहली जीवनी अक्टूबर 1972 में विनोद मेहता द्वारा उनकी मृत्यु के बाद लिखी गई थी। कुमारी की आधिकारिक जीवनी, इसे मीना कुमारी - द क्लासिक बायोग्राफी शीर्षक दिया गया था। यह जीवनी मई 2013 में फिर से प्रकाशित हुई थी। मोहन दीप द्वारा लिखा गया निंदनीय सिम्पली सकेन्डलॉस लेख 1998 में प्रकाशित एक अनौपचारिक जीवनी थी। यह मुंबई के हिंदी दैनिक दोपहर का सामना में एक धारावाहिक के रूप में प्रकाशित किया गया था। मीना कुमारी की एक और जीवनी, आखरी अधाई दिन को मधुप शर्मा ने हिंदी में लिखा था। यह पुस्तक 2006 में प्रकाशित हुई थी।
मीना कुमारी हमेशा बड़े पैमाने पर फिल्म निर्माताओं के बीच रुचि का विषय रही हैं। 2004 में, उनकी फिल्म साहिब बीबी और गुलाम का एक आधुनिक रूपांतर प्रीतीश नंदी कम्युनिकेशंस द्वारा किया जाना था, जिसमें ऐश्वर्या राय और बाद में प्रियंका चोपड़ा को उनकी छोटी बहू की भूमिका को चित्रित करना था। हालांकि, फिल्म को निर्देशक ऋतुपॉर्नो घोष द्वारा बाद में इसे एक धारावाहिक के रूप में बनाया गया, जिसमें अभिनेत्री रवीना टंडन ने इस भूमिका को निभाया।
2015 में, यह बताया गया कि तिग्मांशु धूलिया को हिंदी सिनेमा की ट्रेजेडी क्वीन पर एक फिल्म बनानी थी, जो विनोद मेहता की किताब "मीना कुमारी - द क्लासिक बायोग्राफी" का स्क्रीन रूपांतरण होना था। अभिनेत्री कंगना रनौत को कुमारी को चित्रित करने के लिए संपर्क किया गया था, लेकिन प्रामाणिक तथ्यों की कमी और मीना कुमारी के सौतेले बेटे ताजदार अमरोही के कड़े विरोध के बाद फिल्म को फिर से रोक दिया गया था।
2017 में, निर्देशक करण राजदान ने भी उन पर एक आधिकारिक बायोपिक निर्देशित करने का फैसला किया। इसके लिए, उन्होंने माधुरी दीक्षित और विद्या बालन से फ़िल्मी पर्दे पर मीना कुमारी की भूमिका निभाने के लिए संपर्क किया, लेकिन कई कारणों के कारण, दोनों ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। बाद में उन्होंने अभिनेत्री सन्नी लियोन की ओर रुख किया, जिन्होंने इस किरदार में बहुत दिलचस्पी दिखाई। ऋचा चड्ढा, जया प्रदा और जान्हवी कपूर सहित कई अन्य अभिनेत्रियों ने भी शानदार आइकन की भूमिका निभाने की इच्छा व्यक्त की। 2018 में, निर्माता और पूर्व बाल कलाकार कुट्टी पद्मिनी ने गायक मोहम्मद रफ़ी और अभिनेता-निर्देशक जे पी चंद्रबाबू के साथ एक वेब श्रृंखला के रूप में मीना कुमारी पर एक बायोपिक बनाने की घोषणा की। पद्मिनी ने मीना कुमारी के साथ फिल्म दिल एक मंदिर में काम किया है और इस बायोपिक के साथ दिवंगत अभिनेत्री को सम्मानित करना चाहती थी।
कहा जाता है कि दरिद्रता से ग्रस्त उनके पिता अली बक़्श उन्हें पैदा होते ही अनाथाश्रम में छोड़ आए थे चूँकि वे उनके डाक्टर श्रीमान गड्रे को उनकी फ़ीस देने में असमर्थ थे। हालांकि अपने नवजात शिशु से दूर जाते-जाते पिता का दिल भर आया और तुरंत अनाथाश्रम की ओर चल पड़े। पास पहुंचे तो देखा कि नन्ही मीना के पूरे शरीर पर चीटियाँ काट रहीं थीं। अनाथाश्रम का दरवाज़ा बंद था, शायद अंदर सब सो गए थे। यह सब देख उस लाचार पिता की हिम्मत टूट गई, आँखों से आँसु बह निकले। झट से अपनी नन्हीं-सी जान को साफ़ किया और अपने दिल से लगा लिया। अली बक़्श अपनी चंद दिनों की बेटी को घर ले आए। समय के साथ-साथ शरीर के वो घाव तो ठीक हो गए किंतु मन में लगे बदकिस्मती के घावों ने अंतिम सांस तक मीना का साथ नहीं छोड़ा। उन्हीं के शब्दों में.....
पूछते हो तो सुनो, कैसे बसर होती है
रात ख़ैरात की, सदक़े की सहर होती है
साँस भरने को तो जीना नहीं कहते या रब
दिल ही दुखता है, न अब आस्तीं तर होती है
जैसे जागी हुई आँखों में, चुभें काँच के ख़्वाब
रात इस तरह, दीवानों की बसर होती है
ग़म ही दुश्मन है मेरा, ग़म ही को दिल ढूँढता है
एक लम्हे की जुदाई भी अगर होती है
एक मर्कज़ की तलाश, एक भटकती ख़ुशबू
कभी मंज़िल, कभी तम्हीदे-सफ़र होती है
दिल से अनमोल नगीने को छुपायें तो कहाँ
बारिशे-संग यहाँ आठ पहर होती है
काम आते हैं न आ सकते हैं बे-जाँ अल्फ़ाज़
तर्जमा दर्द की ख़ामोश नज़र होती है.
इन्हीं शब्दों के साथ मेरी प्रिय अभिनेत्री महज़बीं को नम आंखों से श्रद्धांजलि....
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