पुष्पा कुमारी "पुष्प"
"सुनिए! आजकल माँ जी खाना ठीक से नहीं खाती।" रसोई से निपट कर कमरे में आकर पति के बगल में बैठते हुए रजनी ने यह बात अपने पति को बताना जरूरी समझा लेकिन रजनी की बात सुन उसका पति रूपेश तनिक हैरान हुआ।
"मैं कुछ समझा नहीं?"
"माँ जी इधर हफ्ते भर से हर रोज अपनी थाली से में रखी चार रोटियों में से दो रोटी निकालकर अलग कर लेती हैं।"
"तुम कहना क्या चाहती हो?"
"घर के डस्टबिन में घर के लोग रोटियों को फेंका हुआ देख लेंगे सोचकर आंचल में समेट मां जी सोसायटी के गेट की ओर चली जाती हैं।"
"मतलब तुम कहना चाहती हो कि मां को घर के भोजन की कद्र नहीं है।"
"मैंने ऐसा कुछ नहीं कहा! लेकिन आजकल मांजी सिर्फ दो रोटियां ही खाती हैं, उनकी सेहत खराब होने की चिंता लगी रहती है मुझे इसलिए मैंने यह बात आपको बता दी बस।"
यह कहते हुए रजनी कमरे से निकलकर वापस रसोई की ओर चली गई लेकिन पत्नी की बात सुनकर रूपेश सोच में पड़ गया कि आखिर मां ऐसा क्यों कर रही हैं। रुपेश की मां शारदा जी बहुत ही सुलझी हुई शांत प्रवृत्ति की महिला थी।
रुपेश और उसकी पत्नी रजनी शारदा जी का पूरा ख्याल रखते थे इसलिए बहू या बेटे से नाराज होने का कोई सवाल ही नहीं उठता था।
खैर रूपेश ने अपनी मां के मन की बात जानने की ठान ली। उस दिन रविवार होने की वजह से रुपेश के दफ्तर की छुट्टी थी इसलिए वह घर पर ही था।
नियत वक्त पर रूपेश की मां शारदा जी स्नान-ध्यान कर भोजन के लिए बैठी थी लेकिन रुपेश की निगाहें अपनी मां पर ही टिकी रही।
आज भी शारदा जी ने थाली में पड़ी चार रोटीयों में से दो रोटी थोड़ी सब्जी के साथ निकाल कर अलग रख ली और बाकी की दो रोटियों को बड़े प्रेम से खा लिया और भोजन के तुरंत बाद..
"थोड़ी देर बाहर टहल कर आती हूँ!"
कह कर शारदा जी उन दोनों रोटियों को अपने आंचल में समेट घर के मुख्य द्वार से बाहर निकल गई।
शारदा जी के घर से निकलने के थोड़ी देर बाद जिज्ञासावश रूपेश भी अपनी मां के पीछे हो लिया।
शारदा जी बिना कहीं रुके सोसाइटी के मुख्य द्वार की ओर बढ़ रही थी और रुपेश उनके पीछे-पीछे चला आ रहा था।
सोसायटी के मेन गेट पर सोसाइटी का बुजुर्ग दरबान अपनी ड्यूटी पर मौजूद था और शारदा जी को देखते ही उसने हाथ जोड़कर अभिवादन किया।
शारदा जी ने अपने आंचल में रखी दोनों रोटियां उस दरबान की ओर बढ़ा दिया और सोसाइटी के मेनगेट से बाहर टहलने निकल गई।
दरबान ने रोटियों को ऐसे ग्रहण किया मानो वह दो रोटियां सिर्फ रोटीयां नहीं जैसे भगवान का प्रसाद हो लेकिन रूपेश पर नजर पड़ते ही दरबान कृतज्ञ भाव से बोल उठा।
"साहब! माताजी को तो मैं रोज प्रणाम कर लेता हूँ लेकिन मैडम को आप मेरी तरफ से धन्यवाद कह दीजिएगा।"
"किस बात के लिए?"
उस बुजुर्ग दरबान की बात सुनकर रूपेश को हैरानी हुई लेकिन वह बुजुर्ग दरबान रूपेश को बताने लगा।
"एक दिन मैं चक्कर खाकर माताजी के सामने ही यहां गिर गया था।"
"आपको कहीं चोट तो नहीं आई! आपकी तबीयत तो ठीक है ना?"
रूपेश को दरबान के प्रति फिक्र हुई लेकिन दरबान मुस्कुराते हुए आगे बताने लगा।
"नहीं साहब अब मैं ठीक हूँ! असल में मेरा बेटा और बहू दोनों महीने भर के लिए गाँव गए हैं इसलिए मैं रोज सुबह बिना कुछ खाए ही ड्यूटी पर चला आता हूँ! उस दिन यह जानने के बाद माताजी ने शायद मैडम को यह बात बता दी और मैडम हर रोज माता जी के हाथ से मेरे लिए दो रोटी भेज देती हैं! मैडम बहुत दयालु है साहब।"
इतना कहते-कहते दरबान की आंखें नम हो आईं और दरबान की बात सुनकर रूपेश उल्टे पाँव अपने घर की ओर लौट गया।
घर पहुंचकर रूपेश ने रजनी को अपने पास बुला कर सारी बात बताई। तभी दरवाजे पर हल्की दस्तक सी हुई, शारदा जी बाहर से टहल कर घर वापस आ चुकी थी।
"मांजी! आप हफ्ते भर से रोज सिर्फ दो रोटी खा रही हैं लेकिन आपने मुझे कभी नहीं बताया कि आप ऐसा क्यों कर रही हैं! क्या मैं इतनी पराई हूँ।"
रजनी की आंखें भर आई लेकिन शारदा जी ने आगे बढ़कर बहू को बाहों में भर लिया। "नहीं बहू! ऐसी कोई बात नहीं है, तुम मेरी इतनी सेवा करती हो कि तुम पर और अधिक बोझ डालना मुझे अच्छा नहीं लगता इसलिए।"
"नहीं मांजी! यह बोझ नहीं पुण्य का काम है, मैं कल से दो रोटी ज्यादा बनाकर अलग से पैक कर दिया करूंगी ताकि आप भरपेट भोजन कर तन से और दूसरों के प्रति दया भाव रखकर मन से सेहतमंद रहे।"
अपनी मां की संतुष्टि और अपनी पत्नी की समझदारी देख रूपेश का हृदय बिना भोजन किए ही अचानक तृप्त हो उठा।
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