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रंगविहीन

संगीता बिजलानी

पति की मृत्यु के महिने भर बाद शकुन ने सासु माँ और अपने दोनों बच्चों के भविष्य को देखते हुए जैसे-तैसे खुद को संभाला और पुनः ऑफिस जाने के लिए खुद को तैयार किया।
बाल गूँथने के लिए ज्यों ही आईने के सामने खड़ी हुई, बिंदी विहीन माथा, सूना गला और सफेद साड़ी में खुद को देख आँसू फिर बह निकले। कितना शौक था शशांक को उसे सजा सँवरा देखने का। चुन-चुन कर कपड़ों के खिले-खिले रँग और प्रिंट लाता था और उन्ही की मैचिंग के कड़े, चूड़ियाँ, बिंदियाँ। पिछले अठारह वर्षों के रँग एकाएक धुल गए। रंगहीन हो गया था जीवन अनायास।
तभी किसी काम से सासु माँ अंदर आयीं तो शकुन को देखकर उनकी भी आँखे भर आयी। उन्होंने तुरंत शकुन की अलमारी खोली और एक सुंदर सी, शशांक की पसन्द की साड़ी निकाली और शकुन को देते हुए बोली--"मेरा बेटा तो चला गया। पर जब-जब मैं तुम्हारा रंगहीन रूप देखती हूँ तो मुझे अपने बेटे के न रहने का अहसास ज्यादा होता है। इसलिये तू जैसे सजकर इस घर में आयी थी, हमेशा वैसे ही सजी रह। तुझे पहले की तरह सजा सँवरा हँसता खेलता देखूंगी तो मुझे लगेगा मेरा बेटा अब भी तेरे साथ ही है। और तुझे भी उसकी नजदीकी का अहसास बना रहेगा।"
ड्रेसिंग टेबल से एक बिंदी लेकर उन्होंने उसके माथे पर लगा दी।
साड़ी को अपने सीने में भींचे आँखों मे आँसू होने के बाद भी दिल मे एक तसल्ली का भाव तैर गया, शशांक के साथ होने का अहसास भर गया। रँगविहीन नहीं है उसका जीवन, शशांक की यादों का रंग हमेशा उसके अस्तित्व में खिला रहेगा।
वह सासु माँ के गले लग गयी। बहुत कम उम्र से ही सफेद रंग में कैद सासु माँ ने लेकिन शकुन के जीवन को रँगहीन नहीं होने दिया।

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