आज रक्षा बंधन का त्योहार था। संजीव कहीं बाहर जाने वाला था। तभी मोबाईल की घंटी बजी। कोई नया नंबर था। चूँकि आज रक्षा बंधन था। इसलिये संजीव को डर था कि कहीं बहनों ने फोन ना किया हो। इसलिये उसने नज़रअंदाज़ करते हुए फोन काट दिया।
इस बार संजीव की ये हरकत जगदंबा बाबू को नागवार गुजरी। अखबार एक तरफ रखते हुए संजीव से बोले, उठा लो तुम्हारी बहनों का नहीं है। क्योंकि, तुम्हारी बहनें जानतीं हैं कि मेरा भाई पैसों या अन्य जरूरतों को लेकर मेरा फोन नहीं उठाता। इसलिये अक्सर वो मेरे नंबर पर ही फोन करतीं हैं। तुम्हारे नंबर पर नहीं।"
संजीव बढ़ती मँहगाई और घर के खर्चों से पहले ही परेशान था। अपने पिता से गुस्साते हुए बोला, आपको, ही सात बेटियों के बाद बेटा चाहिये था। आखिर, आपने एक बेटी से ही क्यों नहीं संतोष कर लिया था? एक बेटी तो ठीक ही थी। एक बेटे की चाहत में आप लगातार सात बेटियाँ पैदा करते चले गये। अगर, आप एक बेटी पर ही संतोष कर लेते तो मेरी जान सांसत में तो नहीं पड़ती।"
अभी वो और भी बहुत कुछ कहने की सोच रहा था कि दरवाजे पर की कॉलबेल बजी। और संजीव अपनी बात कहते-कहते रूक गया।
दरवाजा खोला तो दरवाजे पर अपनी बड़ी बहन लक्ष्मी को देखा। निशांत ने मामा को उलाहना देते हुए कहा- "मामा, कब से आपको फोन कर रहा था। आप फोन क्यों नहीं उठा रहे थें?"
लक्ष्मी ने तंज किया- "मामा को लगा होगा मैनें फोन किया है। जेब ढीली करनी पड़ेगी। इसलिये फोन नहीं उठा रहा होगा। क्यों ठीक कह रही हूँ ना मैं?" लक्ष्मी ने संजीव को छेड़ा।
संजीव इस सच्चाई को सुनकर जमीन में जैसे गड़ सा गया।
औपचारिकतावश झुककर बड़ी बहन लक्ष्मी के पाँव छुए। साथ में भगना निशांत भी था। निशांत ने झुककर अपने मामा संजीव के पाँव छुए।
लक्ष्मी अपने ही क्वार्टर और उसमें रखे फर्नीचर को देखकर मुग्ध हुए जा रही थी। अतीत जैसे जोंक की तरह उसके आत्मा को जकड़ता जा रहा था।
अम्मा से जिद करके उसने क्रोशिये का काम सीखा था। जड़ी-मोती के निर्जीव तोते आज बीस साल पहले की कहानी कह रहें थें। लक्ष्मी की जब शादी हुई थी। उसके पति एक मामूली क्लर्क थें। बाद में स्थिति कुछ खराब हुई तो भाई और भाभी ने आँखें फेर लीं।
संजीव सातों बहनों में से किसी का फोन कभी नहीं उठाता था। बेकार के खर्चों और आकस्मिक जरूरतों को बेवक्त झेलना उसे गैर-मुनासिब लगता।
घर में रखा अचार का मर्तबान। तुलसी-पिंड़ा। उसकी अलमारी। सारी चीजें अपनी जगह ज्यों-की-त्यों जमा थीं। इन बीस सालों में किसी शरणार्थी की तरह वो ही बिलग हो गई थी घर से।
अंतस में कुछ भींगने लगा तो उसने रूमाल से आँखों के कोर पोंछे।
"और, सब घर में कैसे हैं, पापा? "लक्ष्मी की आवाज काँप रही थी।
"सब, ठीक है, बेटा। बैठो ना। दामाद जी कैसे हैं?" जगदंबा बाबू की आवाज भी भींगने लगी थी।
"पापा, इन बीस वर्षों में राजीव जी ने बहुत संघर्ष किया। और आज उसी क्लर्क की हैसियत से उठकर कंपनी के डायरेक्टर बन गये। आज लाखों रूपये का पैकेज है। निशांत, का एक फ्राँस की कंपनी में सलैक्शन हो गया है। कोठी, और बागान हम लोग छोड़कर कहीं जा नहीं सकते।
इधर राजीव भी परमानेंट फ्राँस शिफ्ट होने की सोच रहें हैं। निशांत (एक फ्राँसिसी लड़की) जेनी से प्रेम करता है। वो भी सॉफ्टवेयर इंजीनियर है, फ्राँस में।
अगले महीने हमारे घर पर ही एँगेजमेंट होगी। संजीव - सुनंदा भाभी और पापा आप सब आईयेगा। फ्राँस में राजीव ने कुछ प्रापर्टी खरीदी है। उनका भी वहीं बिजनेस हो रहा है। पापा, मैं आपसे एक बात कहना चाह रही थी। हमारे अब्राड़ शिफ्ट होने के बाद हमारा नोएड़ा वाला घर खाली रहेगा। हमलोग तो अब्रोड शिफ्ट हो रहें हैं। राजीव जी ने एक फैसला किया है, कि हम अपना मकान संजीव और भाभी के नाम कर दें। ताकि भईया और भाभी और उनके बच्चों को रिटायरमेंट के बाद इधर-उधर ना भटकना पड़े। संजीव, अब मेरी ये आखिरी ख्वाहिश जरूर पूरी कर देना। आज रक्षाबंधन है। आज मैं अपने भाई को गिफ्ट दूँगी।
जब हमारी परिस्थिति खराब थी। तब हम बहनों ने तुमसे बहुत कुछ लिया। लेकिन, आज ऊपर वाले की दया से हमारी सब बहनें अपने-अपने घरों में खुश हैं। इस बार मैं कुछ लेने नहीं देने आयी हूँ। इस घर ने और आपलोगों ने मुझे बहुत कुछ दिया है। संजीव मेरी बात मान लो। संजीव का भी गला रूँधने लगा था। उसने अपनी सहमति दे दी।
सुनंदा पास में ही आकर ना जाने कब से खड़ी थी। उसने लक्ष्मी के पाँव छुए। फिर पूजा की थाली लेकर आई। थाली में राखी, रोली, कपूर और मिठाई थी। लक्ष्मी ने संजीव के लालाट पर तिलक लगाया और कलाई पर राखी बाँधी। फिर, आरती की। स्निग्धता और प्रेम एकाकार होकर लक्ष्मी की आँखों से बह रहे थें। उन आँखों में अपने भाई और अपने इस घर, की तरक्की के लिये ईश्वर से अनंत प्रार्थनायें थीं।
राखी बाँधने के बाद लक्ष्मी चलने को हुई। तो संजीव ने अपनी बहन को एक पाँच सौ रूपये का एक नोट दिया।
लेकिन, लक्ष्मी ने पाँच सौ का नोट ये कहते हुए लौटा दिया कि लक्ष्मी हमेशा देने के लिये आती है। लेने के लिये नहीं।
संजीव ने मनुहार करते हुए कहा - "दीदी, आज के दिन तो कम-से-कम रूक जाओ।"
लक्ष्मी दरवाजे तक जाती हुई बोली- "आज, केवल भाई से ही नहीं बल्कि अपनी छ: बहनों से मिलने भी निकली हूँ। और, कौन कहता है, कि रक्षाबंधन केवल भाईयों से मिलने का दिन होता है? ये दिन तो अपनी बहनों से मिलने का दिन भी होता है। उन्हें भी तो निशांत के एंगेजमेंट में बुलाना है।
वैसे भी पीहर में हमारे लिये एक शाम से ज्यादा का समय नहीं होता। या मैनें ज्यादा कह दिया। कुछ घंटे ही हमारा पीहर में बसेरा होता है। शादी के बाद हम लड़कियाँ चिंडियाँ हो जातीं हैं। अपने ही घर में कुछ घंटों की मेहमान!"
और, लक्ष्मी चिंड़ियाँ, बनकर अपने बाबुल के घोंसले से उड़ गई।
आज, संजीव अपने ही नजरों में इतना गिर गया था, कि वो, अपने आप से ही आँखें नहीं मिला पा रहा था। आँखों से पश्चाताप के आँसू बह रहे थें।
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