भगवती सक्सेना गौड़
आज संजीव अपनी उम्र के सातवें दशक में पहुँच गए थे। सोसाइटी में टहलना उनकी दिनचर्या में शामिल था। स्वास्थ्य का हमेशा से बहुत ध्यान रखते थे, अंकुरित मूंग, जूस वगैरह से ही दिन की शुरुआत होती थी। आज सुबह जब टहलने निकले तो कुछ दूर ही चले गए, पास वाली दूसरी सोसाइटी के लोग भी घूम रहे थे। अचानक एक बुजुर्ग महिला ने आकर उनका हाथ पकड़ा और बोला, "हेलो, मैं वृन्दावती, अकेले चलने में परेशानी हो रही, थोड़ा सहारा दीजिये।"
और अवाक होकर संजीव उनका हाथ पकड़े पूरे बाग में घूमते रहे, थोड़ा आसपास भी ध्यान रख रहे थे, कोई पहचान का तो नहीं।
चेहरे की झुर्रियों को नजदीक से घूरने लगे, फिर जोर से चिल्लाये, ओह तुम वृंदा हो क्या, पुणे वाली।"
वृन्दावती बोली, "नहीं, मैं कोई वृंदा को नही जानती, पर तुम कुछ पहचाने से लग रहे हो।"
और तभी संजीव के स्वर गूंजे, याद करो, वह गाना, अजनबी तुम जाने पहचाने से लगते हो।
"हाँ, कुछ कुछ याद आ रहा, तुम वो मेरे क्लासमेट संजीव ही हो न। तुम अकेले मुझे वृंदा बुलाते थे, हम दोनों को सब दोस्त चिड़ाते थे, मेड फ़ॉर इच अदर।"
दोनों हाथ पकड़कर आत्मीयता से पुरानी गुफ्तगू में खो गए, इसी तरह कॉलेज में हाथ पकड़े, आंखों में आंखे डाले, हम पेड़ के नीचे बैठते थे। देखो ईश्वर को दया आयी और इस उम्र में फिर हमारे हाथ जुड़ गए। दोनों की आंखों से अश्रुधार बह रही थी।
तभी दूर से एक लड़का आया, अरे मम्मा आप घर से कब निकली, मैं उठा ही था, कि आपको घुमा लाऊं। और ये अंकल कौन हैं?
ये संजीव हैं बेटा, मैं गिरने वाली थी, तो सहारा ढूंढा, ये तो पुराने परिचित निकले।
"अंकल नमस्ते, मुझे नही पता, आपको कैसे इन्होंने पहचाना, ये अल्ज़ाइमर की पेशेंट हैं, चलिए अच्छा हुआ, आप दोनों रोज टहलेंगे तो अच्छा रहेगा।"
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