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विदाई

सुनीता मुखर्जी "श्रुति"

रागिनी घर में बड़ी और राहुल छोटा था। दोनों में पांच-छः साल का अंतर था। श्यामा को घर की बहुत चिंता सताती थी। पति के जाने के बाद रागिनी ने ही घर को संभाला था। देखते-देखते वह अट्ठारह साल की हो गई जब लड़कियों की सजने संवरने की उम्र होती है उस समय वह घर के खाना खुराक का जुगाड़ करने में लग गई। उसे पता ही नहीं चल पाया कि अब कब बड़ी हो गई।
एक दिन रागिनी के मामा एक रिश्ता लेकर आए। बहन श्यामा से बोले, लड़का फौज में है। अपनी रागनी बहुत मजे में उस घर में रहेगी। श्यामा को क्या चाहिए, उसने भी देख सुनकर रिश्ते के लिए हाँ कर दी। समस्त जिम्मेदारी रागिनी के ऊपर आ गई। विवाह की व्यवस्था उसे ही करनी थी। टेंट, बर्तन, सामान, मेहमानों की लिस्ट सब कुछ..... क्योंकि घर में कोई भी बड़ा नहीं था।
देखते- देखते श्यामा के घर पर शहनाई बजने का मुहूर्त भी आ पहुँचा। रागिनी रात- रात भर सो नहीं पाती थी। सब व्यवस्था कैसे करेंगे, बस इसी उधेड़बुन में लगी रहती। श्यामा यह जानती थी कि उसकी बेटी बहुत जिम्मेदार एवं समझदार है। वह समस्त जिम्मेदारी बखूबी निभाना जानती है। श्यामा को भी चिंता सता रही थी कि कैसे, क्या होगा, एक बच्ची अकेले क्या-क्या संभालेगी।
रागिनी ने माँ से कहा तुम चिंता मत करना, मैं हूँ तो।
रागिनी फेरे के लिए मंडप पर बैठी थी, चारों तरफ से एक ही आवाज आ रही थी रागिनी यह कहाँ है? रागिनी वह कहाँ है? बेचारी मंडप के बीच से ही सब कुछ बता रही थी। विवाह संपन्न हुआ। सुबह विदाई के समय माँ भावुक हो जोर-जोर से रोने लगी। मेरे पति के जाने के बाद मुझे आज तक कुछ पता नहीं चला। समस्त जिम्मेदारी मेरी बेटी ने उठा ली थी। आज मैं सचमुच बिल्कुल अकेली हो गई हूँ कहकर खूब जोर-जोर से रोने लगी।
"रागिनी ने माँ को समझाते हुए कहा बिना पिता की बेटी की विदाई नहीं होती?"
"जब तक मेरा छोटा भाई अपने पैर नहीं खड़ा हो जाता तब तक इस घर की जिम्मेदारी मेरी है माँ।"
रागिनी ने माँ को समझाया, देखो माँ यह रोने का समय नहीं है। सभी रिश्तेदार अभी यहीं है। कौन चीज कहाँ है यह मैं तुम्हें कैसे बताऊँ तुम तो याद नहीं रख पाती हो। विदाई का मुहूर्त हो गया था नियत समय पर विदाई हुई, रागिनी बिल्कुल रोई नहीं। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह कैसे, क्या करें। उसे गाड़ी में बैठा दिया गया। माँ लगातार रोए जा रही थी। लेकिन उसे रोने के लिए फुर्सत कहाँ? उसने भाई को समझाने के लिए अपने पास बैठा लिया। बगल में उसके पति राघव बैठे हुए थे उसने सकुचाते हुए पति को अगली सीट में बैठने के लिए कहा।
"मुझे भाई से कुछ बातें करनी है।"
राघव पिछली सीट से उठकर आगे वाली सीट पर बैठ गये। रागिनी भाई को सब समझा रही थी। कि टेंट वाले का पैसा आधा मैंने दे दिया है, उसको बोलना, दीदी आएगी तब देगी।
"भाई से सब बोले जा रही थी भाई कुछ समझ रहा था कुछ नहीं।"
कैसे क्या-क्या करना है वह सब उसको समझा रही थी।
जब तुम मेरी चौथी (विवाह के चार दिन के बाद बेटी को मायके बुलाने की रसम) लेने आओगे वह सब सामान मैंने पैक करके रख दिया है, बस मिठाई के डिब्बे तुम सामने वाली दुकान से ले लेना। ससुराल वालों के लिए गिफ्ट वह अलमारी में रखे हैं। वह सब कुछ भाई को बताते-बताते अपने घर से काफी दूर निकल आई।
अचानक राहुल आश्चर्य से बोलने लगा, दीदी तुम्हारी ससुराल आने वाली है। रागिनी ने देखा सचमुच वह ससुराल के बहुत करीब आ गई है। उसने भाई को पैसे दिए और कहा यहाँ से ऑटो पकड़ के घर चले जाना।
राहुल के जाते ही उसने अपने पति राघव को पीछे आने के लिए कहा, राघव मुस्कुराते हुए "जो हुक्म मल्लिका" बोलते हुए पिछली सीट पर बैठ गया।
राघव ने रागिनी की तरफ देखते हुए कहा- एक अच्छी बेटी, बहन ही, अच्छी पत्नी, अच्छी बहू बन सकती है। वह सब कुछ मैं तुम्हारे अंदर देख रहा हूँ। मुझसे किसी प्रकार का भी सहयोग चाहिए होगा तुम नि:संकोच मुझे बताना। मैं हर हाल में उसे पूरा करने की कोशिश करूँगा। एक अच्छा पति बनूँगा। जब तक राहुल बड़ा नहीं हो जाता तब तक तुम्हारे घर की जिम्मेदारी हम दोनों मिलकर उठाएंगे।
पति के मुख से यह बात सुनकर रागनी गदगद हो गई और अपने भाग्य पर इतराने लगी।
सचमुच तुम जैसी पत्नी को पाकर मैं धन्य हो गया, कितनी जिम्मेदार और समझदार हो तुम।

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