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वृद्धाश्रम

विभा गुप्ता

"बाबूजी, मैं आपके और आपकी बहू की रोजाना चिकचिक से अब तंग आ गया हूँ। कल ही आपको वृद्धाश्रम छोड़ आता हूँ, आपकी बहू को शांति मिल जाएगी और आप भी सुकून से रह पाएँगे।" नरेश ने खीझते हुए बिस्तर पर लेटे अपने पिता से कहा। सुनकर पिता नम आँखों से बेटे को देखने लगे।
नरेश जब आठ बरस का था, तब उसकी माँ का देहांत हो गया था। महीने भर बाद ही रिश्तेदारों ने उसके पिता पर फिर से विवाह करने के लिए दबाव डालने लगे थें लेकिन उन्होंने सबको एक ही जवाब दिया, "अब नरेश के लिए पिता भी मैं और माँ भी। वे एक सरकारी मुलाज़िम थें। उन्हें समय पर ऑफ़िस जाना पड़ता था। नरेश को भी स्कूल के लिये समय पर तैयार करना आसान नहीं था उनके लिये। फिर भी उन्होंने नरेश का पालन-पोषण अच्छी तरह से किया। उसे अच्छी शिक्षा-दीक्षा दी और उसे इंजीनियर बनाया। अब तो नरेश ही उनका एकमात्र जीने का सहारा था। पोते-पोतियों के साथ हँस-खेल लेते और दिनभर में एक बार नरेश को देख लेते तो उनकी जी तृप्त हो जाता था।
नरेश की पत्नी स्वभाव से अच्छी ही थी, इधर कुछ दिनों से वह न जाने क्यों, वह अपने ससुर से बात-बात पर उलझ जाती थी और फिर नरेश से अपना दुखड़ा सुनाती। नरेश दिनभर के काम से थका-हारा घर लौटता और पत्नी की चिकचिक सुनता तो अपना सिर पकड़कर बैठ जाता। इसीलिए अपने पिता को वृद्धाश्रम भेजने का उचित समाधान मानकर वह अपने मित्र विवेक से सलाह लेने उसके घर गया।
विवेक अपने घर के बाहर बूढ़े बरगद के पेड़ के नीचे बैठा था। नरेश ने उससे यहाँ बैठने का कारण पूछा तो विवेक बोला, "यहाँ बैठकर मैं अपने पिता को अपने नजदीक पाता हूँ। इसकी ठंडी छाँव में अपने पिता के स्पर्श को महसूस करता हूँ। बचपन में इसकी डालियों पर ही तो वे मुझे झूला झुलाते थें, यहीं पर बैठकर वे मेरे बच्चों को अपने जीवन के संघर्ष को कहानी के रूप में सुनाते थें। यहाँ बैठकर तो मैं उनके एहसास को महसूस करता हूँ। जानते हो मित्र..., तुम्हारे पिता से बातें करके तो मैं अपने पिता की कमी को पूरा करने का प्रयास करता हूँ। तुम बहुत भाग्यशाली हो जो चाचाजी का हाथ तुम्हारे सिर पर अभी है। ईश्वर उन्हें दीर्घायु दे।" कहते हुए उसकी आँखें भीग गईं। "अच्छा, तुम बताओ कैसे आना हुआ?" विवेक ने पूछा तो नरेश बोला, "बस यूँ ही चला आया" कहकर वह अपने घर की तरफ़ चल दिया। सोचने लगा, मेरे बाबूजी ने भी तो मेरे सपनों को पूरा करने लिये न जाने अपनी कितनी इच्छाओं का त्याग किया होगा और मैं उन्हें न जाने क्या-क्या कहकर उनके मन को आहत करता रहा। और आज तो उन्हें वृद्धाश्रम.....हे भगवान, मुझे क्षमा करना। उसने मन ही मन विवेक को धन्यवाद दिया जिसने उसे पिता को वृद्धाश्रम भेजने की बड़ी भूल करने से बचा लिया था।

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