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वो घर.......

सविता सिंह मीरा


वो घर.......
वो मेरा पुराना घर
थे बेपरवाह नहीं था डर
सालों बाद जब पड़े कदम
तैर गए वह सारे मंजर
आने लगी हंसी की आवाजें
ढूंढ रही थी कुछ मेरी निगाहें
सब कुछ तो मिला मगर
फीकी पड़ गई अब मुस्कुराहटें।
देख दिवारें भी रो पड़ी
बंद हो गई वह भी घड़ी
किसी आशा से तकती थी जो
इंतजार में मिली खड़ी।
सजता था चुल्हा उसी ओर
मां जगाती उठ हो गई भोर
चारों तरफ फैला वीराना
नहीं अब कोई भी शोर।
अब तो है सबके अलग कमरे
कौन उठाए किसी के नखरे
पहले रहते थे सब एकत्रित
आज लगता सब बिखरे बिखरे।
अबकी मनाए वहीं त्योहार
सजाएं सारे अंगना घर द्वार
नींव ना बिखरे कभी भी
इनका हम पर बड़ा उपकार।
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