top of page

शहर खर्चीले होते हैं।

लक्ष्मी कुमावत

“ये क्या छोटी बहू? ये मैं क्या सुन रही हूं? तुमने दिनेश की पढ़ाई शहर में अपने घर पर रखकर करवाने से इनकार कर दिया। भला ये भी कोई बात हुई। तुम चाची हो उसकी और उसके इतने से खर्चे नहीं उठा सकती तो फिर तुम्हारे शहर में इतना कमाने का क्या फायदा। इतने पैसों पर क्या सांप बन कर बैठोगी, जो बच्चे की पढ़ाई की दुश्मन बन गई।” अम्मा मीनाक्षी को डांटते हुए बोली।
“अम्मा जी मैंने कब उसकी पढ़ाई के लिए इंकार किया है? मैंने तो सिर्फ उसे हॉस्टल भेजने के लिए कहा है।” मीनाक्षी अपना पल्ला सही करते हुए बोली।
वहीं पास खड़ी उसकी जेठानी आरती भी अपना हाथ नचाते हुए बोली, "अरे! हम तो इन्हें अपना समझते थे। पर हमें क्या पता था कि ये तो हमें पराया समझती है। अरे मेरे बेटे के वहां जाकर इसके पास रहने से कौन सा इसकी आजादी में खलल पड़ जाता, जो उसे अपने पास रखकर पढ़ाने से इंकार कर दिया। ऊपर से ये तक कह रही है कि उसे हॉस्टल में रख दो। बताओ, घर वालों के वहां होने का क्या फायदा? दिनेश के बापू को पता चला तो वो बहुत नाराज हो रहे थे। उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि छोटी बहू ने किस मुंह से ये बात कह दी। क्या हम उसके कुछ भी नहीं लगते।"
आरती की बात सुन अम्मा गुस्से में तमतमाती हुई मीनाक्षी से बोली, "देख छोटी बहू, तु छोटी है छोटी ही बनकर रह। ज्यादा सिर उठाने की जरूरत नहीं है। तेरी हरकत से दोनों भाइयों के रिश्ते में खटास आ जाएगी। ‌और तेरा कौन सा खर्चा करवा रहे हैं हम लोग। हम तो हमारे बेटे से बोल रहे हैं। और वैसे भी बड़े बेटे बहु दिनेश की कॉलेज की फीस देने को तैयार तो हैं। तुम्हें तो बस उसके खाने-पीने का खर्चा करना है। एक इंसान के खाने पीने के खर्चे में क्या जाता है?"
"अम्मा जी सिर्फ खाने पीने की बात होती तो बात अलग थी। पिछली बार सुरेश को भी हमने रखा था। पर उसके बाद क्या हुआ? भाई साहब ने तो सिर्फ कॉलेज की फीस दी थी। पर कोचिंग का खर्चा, कॉलेज तक आने जाने का खर्चा, कभी किसी किताब की जरूरत पड़ रही है तो कभी किसी चीज की, कभी कॉलेज के सेमिनार में बाहर जाना है तो कभी कुछ और। सब खर्च हमने उठाएं थे।"
और उस पर भी आए दिन कोई ना कोई गांव से उससे मिलने चला आता था। और आता भी तो अकेला नहीं आता, साथ में तीन-चार लोगों को लेकर ही आता। अब उनको सिर्फ खिला-पिला कर तो भेजेंगे नहीं। शहर भी घूमाना पड़ता था। यहां तक कि जब वापस गांव आते थे तो कुछ ना कुछ विदा देना भी जरूरी होता था। नहीं तो वो लोग यहां आकर आप लोगों से शिकायत लगा देते थे कि मेहमान नवाजी अच्छे से नहीं की। और आप फट से फोन खड़का देती कि हमारी नाक कटा रहे हो। कितना बजट बिगड़ गया था हमारा। ऊपर से ये भी ताने सुने थे कि हमने सुरेश से घर के काम करवाए हैं। उसे मुफ्त में अपने घर में नहीं रखा। तो बताइए अम्मा जी, अपना खुद का काम तो खुद ही करना पड़ेगा। मेरे बच्चे भी तो अपना काम खुद करते हैं। वो तो उससे छोटे हैं"
मीनाक्षी ने ये बात आरती की तरफ देखकर कहीं तो आरती ने अपना मुंह दूसरी तरफ कर लिया। यह देखकर मीनाक्षी अम्मा जी से बोली, "देखिए अम्मा जी, मैं साफ-साफ कह रही हूं। इतने खर्चे हम तो नहीं उठा पाएंगे। मेरे बच्चे भी अब कॉलेज में आ चुके हैं। हमारी भी अपने खर्चे हैं। आखिर नौकरी के अलावा दूसरा कोई कमाई का जरिया नहीं है हमारे पास।"
मीनाक्षी के इतने लंबे चौड़े भाषण को सुनकर अम्मा चिढ़ते हुए बोली, "अच्छा! तुम दोनों पति-पत्नी मिलकर कमाते हो। फिर भी हमेशा खर्चे का ही रोना रोते हो। शहर में मौज मस्ती करने के लिए पैसे चाहिए लेकिन परिवार पर खर्च करने के लिए पैसे नहीं हैं।"
"माफ कीजिएगा अम्मा जी। दो-दो लोग मिलकर कमाते हैं तो क्या हुआ? शहर में रहने वालों के खर्चे भी होते हैं। वहां सामान मुफ्त में नहीं आता। अगर एक की कमाई से घर की किश्त और बच्चों की फीस जाती हैं तो दूसरे की कमाई से घर खर्च चलता है। हमें तो हर चीज मोल खरीदनी पड़ती है। यहां तक कि पानी तक भी मुफ्त नहीं है।"
मीनाक्षी ने कहा तो आरती चिढ़ते हुए बोली, "अच्छा! आज घर खर्चे की बात कर रही है। तो हम भी बता दें कि हम भी कोई यहां मुफ्त में नहीं रहते। हम भी खर्चे करते हैं। ऊपर से तुम तो शहर जाकर बैठी हो। सारी रिश्तेदारी के अंदर लेनदेन तो हमको ही करना पड़ता है।"
"हां भाभी जी, लेनदेन में सिर्फ लेना आपको करना पड़ता है। देने के मामले में तो बराबर हिस्सेदारी होती है। तो ये बात तो मत ही बोलिए आप कि लेनदेन हम अकेले करते हैं। कई प्रोग्राम में तो हम आते भी नहीं हैं लेकिन हमारी तरफ से शगुन वगैरह बराबर जाता है। क्योंकि उसका आधा खर्चा आप हमसे बराबर मांगते हो"
मीनाक्षी आज बराबर जवाब दिए जा रही थी। यह देखकर आरती चिढ़ते हुए अंदर चली गई। वही अम्मा जी भी मुंह फुला कर बैठ गई। लेकिन मीनाक्षी ने उन्हें मनाने की कोई कोशिश नहीं की।
पिछली बार भी यही हुआ था। जब दिनेश का बड़ा भाई रमेश पढ़ने के लिए अपने चाचा चाची के पास शहर आया था। हालांकि वो वहां सिर्फ एक साल ही रुका था। उसके बाद अचानक उसने बिजनेस करने की ठान ली, इसलिए पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। और दूसरे शहर चला गया।
भैया जी ने तो कॉलेज के फीस देकर अपने जिम्मेदारी की इतिश्री यह कहकर कर ली कि कोचिंग का खर्चा तो चाचा भी उठा सकता है। आखिर इतना हक तो उस पर ही बनता है।
पर उसकी कोचिंग की फीस, आने जाने का खर्चा, खाने पीने का खर्चा, पॉकेट मनी, सब खर्चा मीनाक्षी और रमन को ही उठाना पड़ा था।‌ इसके अलावा कभी कोई कॉन्फ्रेंस हो रही है तो कभी कोई कॉलेज का टूर जा रहा है। आए दिन कोई ना कोई खर्चे। इस कारण मीनाक्षी के घर का बजट पूरी तरह से हिल गया। साथ ही उसकी नौकरी पर भी बन आई।
ऊपर से हर महीने कोई ना कोई मिलने चला आता। कभी भैया मिलने आते तो कभी भाभी जी, पर अकेले कभी नहीं आते। कभी भाभी जी की बहनें उनसे मिलने साथ में आती तो कभी उसके मामा मामी। और फिर तीन-चार दिन रुक कर ही जाते। उस दौरान मीनाक्षी को अपने स्कूल से छुट्टी लेनी पड़ती। क्योंकि उनकी मेहमान नवाजी के लिए तो उसे ही घर पर रुकना पड़ता।
अब उन्हें शहर ना घूमाए तो भाभी जी का मुंह बन जाता। मुंह पर कहने से भी गुरेज नहीं था।,
"अरे तुम्हारे शहर में आए हैं तो थोड़ा घूमा कर भी ले आओ। जरा हम भी तो देखें तुम्हारे शहर की रौनक।"
इसलिए मीनाक्षी के साथ-साथ रमन को भी छुट्टी लेनी पड़ती थी। ऊपर से अगर विदा ढंग की नहीं दी तो उसकी बातें और बन जाती। फिर अम्मा फोन करके दो-तीन दिन तक जान खाती रहती।
"तुम हमारी नाक कटा रहे हो। शहर में जाकर क्या बैठे, तुम्हें अपने बड़ों की इज्जत का कुछ ख्याल ही नहीं रहा। अरे! इतना कमाते हो। थोड़ा बहुत किसी को दे दोगे तो कुछ कमी नहीं पड़ जाएगी तुम्हारे खजाने में। और तुम्हारे पास नहीं है तो मेरे पास से ले जाया करो। अभी तक तो मैं जिंदा हूं। इतने से तो मैं ही तुमको दे दूंगी"
इतना सब कुछ होने के बावजूद भी सुरेश ने बीच में अपनी पढ़ाई छोड़ दी तो बदनामी भी उन्हीं लोगों की हुई। गांव में सब तरफ भाभी जी ने ये बात फैला दी कि सुरेश ने इसलिए पढ़ाई छोड़ दी क्योंकि चाची उससे घर का काम कराती थी। इसलिए वो पढ़ाई ढ़ंग से नहीं कर पाया। अब जिंदगी में कुछ तो करना ही था। इसलिए व्यापार कर रहा है।
सुनकर मीनाक्षी को बहुत बुरा लगा था। उसी समय उसने ठान लिया था कि अगर अब भाभी जी ने अपने छोटे बेटे दिनेश के लिए कहा तो वो पलट कर जवाब दे देगी। और आज आखिर वही हुआ। उसने पलट कर इंकार कर दिया तो बस इसी बात को सब ने पकड़ लिया।
फिर थोड़ी देर बाद रमन और बड़े भैया घर पर आए, तब भी अम्मा मुंह फुलाकर बैठी हुई थी। जब रमन ने इसका कारण पूछा तो अम्मा गुस्से में ही बोली, "तेरी पत्नी की हिम्मत कैसे हो गई दिनेश को वहां रखकर पढ़ाने से मना करने के लिए। आखिर तेरे ऊपर उसने कैसे निर्णय ले लिया? अपनी पत्नी को थोड़ा दबा कर नहीं रख सकता। आज अपने ससुरालियों के निर्णय के बीच में बोल रही है। तुम दोनों भाइयों के रिश्ते के बीच में खटास पैदा कर देगी।"
अम्मा की बात सुनकर रमन समझ गया कि आखिर क्या बात हुई होगी। तभी बड़े भैया भी बोले, "रमन तुझे नहीं लगता कि तूने तेरी पत्नी को बहुत ज्यादा छूट दे रखी है।"
उसने बड़ी ही विनम्रता से भैया से कहा, "भैया जी, मेरी पत्नी मेरे साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलती है। जब घर के खर्चों में वो बराबर मेरे साथ खड़ी है। मेरे घर को बनाने में वो मेरे साथ खड़ी है तो उसको दबा कर रखना ये तो बेवकूफी है। मैं इस पर विश्वास नहीं करता।"
फिर अम्मा की तरफ मुंह करके बोले, "अम्मा मैं और मीनाक्षी घर कैसे चलाते हैं ये हमारा जी जानता है। हम कोई अमीर घराने के लोग तो हैं नहीं। मध्यम वर्गीय परिवार के लोग हैं। क्या हमारे खर्च नहीं होते? नौकर चाकर रखने की हमारी औकात नहीं है। हम और हमारे बच्चे मिल जुल कर घर का काम करते हैं। कल को हमने दिनेश को भी परिवार का सदस्य मानकर मिल-जुल कर काम करने को कह दिया तो ये बदनामी हो जाएगी कि हम उस से काम करवा रहे हैं।
और यदि कल को ये भी अपने बड़े भाई की तरह अगर निर्णय लेकर बैठ गया कि मुझे बिजनेस करना है तो फिर गांव भर में हमारी बदनामी होती फिरेगी कि हमने उसे पढ़ने से रोक दिया। अब दोबारा हम बदनामी सिर पर नहीं लेंगे। मीनाक्षी गलत नहीं है। इसमें मैं भी उसके साथ हूं। आपको दिनेश को पढ़ाना है तो हॉस्टल में डाल दो। और अपनी जिम्मेदारी पर पढ़ाओ।"
कहते हुए रमन ने हाथ जोड़ दिए। रमन से इस तरह की उम्मीद किसी को नहीं थी। उसका कड़ा रूख देखकर अम्मा हैरान रह गई। आखिर रमन के आगे तो किसी की न चली। और सब चुप रह गए। आखिर दिनेश ने हॉस्टल में रहकर ही अपनी पढ़ाई पूरी की। ये अलग बात है कि रमन बीच-बीच में उसे हॉस्टल जाकर संभाल आता था या वीकेंड पर कभी-कभी वो अपने चाचा-चाची के घर आ जाता था।

******

17 views0 comments

Recent Posts

See All

Comments


bottom of page