top of page

शिक्षक का कोप

मुकेश ‘नादान’

नरेंद्र बहुत ही निर्भीक तथा दृढ़ संकल्प वाला बालक था। उनकी इच्छा के विरूद्ध उनसे कार्य करवाना मानो लोहे के चने चबाने जैसा था। यह घटना भी उसी समय से संबंध रखती है।
नरेंद्र जिस विद्यालय में पढ़ते थे, उस विद्यालय के एक शिक्षक बड़े क्रोधी थे। आवश्यकता महसूस करते ही वे छात्रों को कठोर शारीरिक दंड दिया करते। एक दिन शिक्षक एक बालक को उसके उद्डं व्यवहार के लिए पीट रहे थे, तब उनकी इस अकारण उन्मत्तता, विकट मुखभंगिमा आदि देखकर नरेंद्र अपनी हँसी नहीं रोक सके।
इसके फलस्वरूप शिक्षक का सारा क्रोध नरेंद्र के ऊपर आ गिरा और उन्हें पीटते-पीटते वे कहने लगे, “कहो, फिर कभी मेरी ओर देखकर नहीं हँसोगे।”
नरेंद्र के ऐसा नहीं कहने पर शिक्षक ने और अधिक पीटना शुरू किया और दोनों हाथों से उनके कान मलने लगे। यहाँ तक कि कान पकड़कर ऊँचा उठाते हुए उन्हें बेंच पर खड़ा कर दिया। इससे एक कान छिल गया और खून रिसने लगा। तब भी नरेंद्र उस प्रकार की प्रतिज्ञा करने को सहमत नहीं हुए और क्रोध से भरकर कहने लगे, “मेरे कान नहीं मलिएगा! मुझे पीटने वाले आप कौन होते हैं? मेरी देह पर हाथ नहीं लगाइएगा!”
इसी समय सौभाग्यवश श्रीईश्वरचंद्र विद्यासागर वहाँ आ पहुँचे। नरेंद्र ने फफकते-फफकते सारी घटना उनसे कह सुनाई और हाथों में पुस्तकें उठाते हुए कहा कि मैं सदा के लिए यह विद्यालय छोड़कर जा रहा हूँ। विद्यासागर ने उन्हें अपने कमरे में ले जाकर काफी सांत्वना दी।
बाद में इस प्रकार के दंड विधान के संबंध में और भी जानकारी मिलने पर यह आदेश दिया गया कि विद्यालय में इस प्रकार का दंड नहीं दिया जाएगा।
इधर घर में भुवनेश्वरी ने जब घटना का विवरण सुना, तब उन्होंने दुख और क्षोभ से विह्वल होकर कहा, “मैं अपने बच्चे को ऐसे विद्यालय में अब नहीं जाने दूँगी।” किंतु नरेंद्रनाथ का मन तब तक शांत हो गया था। पहले की भाँति ही वे उस विद्यालय में जाने लगे, उनका कान ठीक होने में कई दिन लग गए थे।
खेल-कूद और लिखने-पढ़ने के साथ-साथ उनके चरित्र के और भी कई आयाम इसी समय खुलने लगे। संगीत के प्रति उनमें एक जन्मजात और स्वाभाविक आकर्षण था। भिखारी गायकों का दल जब दरवाजे पर खड़ा होकर ढोल बजाते हुए गाना गाता, तब वे उसे आग्रहपूर्वक सुना करते। टोले-मुहल्ले में रामायण आदि का गान होने पर वे वहाँ भी उपस्थित होते। इसी समय उन्होंने पाकविद्या भी सीखी। साथियों को लेकर खेल के बहाने वे रसोई की सारी वस्तुओं को एकत्र करते और उन सबसे चंदा भी लेते, किंतु अधिकांश व्यय उन्हें स्वयं वहन करना होता। मुख्य रसोइया स्वयं होते। यद्यपि वे मिर्ची का अधिक प्रयोग करते थे, किंतु इसके पश्चात्‌ भी खाना विलक्षण बनता था।

*********

0 views0 comments

Recent Posts

See All

Comments


bottom of page