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श्रद्धा

उपेंद्र प्रसाद

एक गाँव में एक महात्मा आये। उन्होंने एक अनुष्ठान किया ईश्वर प्राप्ति के लिए। इसके लिए उन्होंने स्वयं को लोहे की जंजीर से बांध कर एक कुऐं में उल्टे लटक गए, कि ईश्वर अब मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर दर्शन देंगे। बहुत दिन ऐसे ही लटके रहे भूखे प्यासे।
लोगों का ताँता लग गया दर्शनों के लिए। उसी में एक गाँव का लड़का भी था, बहुत सरल। उसने सोचा यदि कुएँ में उल्टे लटकने से ही ईश्वर मिलता है तो मैं भी कोशिश करता हूँ। उसने पास पड़ी एक रस्सी उठाई पैर से बाँधी और कुऐं में कूद गया। रस्सी तुरंत टूट गयी, लेकिन गिरने से पहले ही ईश्वर ने प्रकट हो उसे अपनी बाँहों में भर लिया, दर्शन भी दिये और उद्धार भी कर दिया।
महात्मा जी को जब पता लगा की लड़के को ईश्वर के दर्शन इतनी जल्दी हो गए, और वह अभी लटके ही पड़े हैं, तो उन्होंने ईश्वर से शिकायत की, कि मेरी श्रद्धा में कहाँ कसर रह गयी थी भला।
आकाशवाणी हुई कि तेरी श्रद्धा तो लोहे की जंजीर में थी, मुझ में कहाँ थी। तुझे डर था इसलिए लोहे की जंजीर से बाँधा स्वयं को, उस लड़के की मुझ पर श्रद्धा थी इसलिए गली हुई रस्सी पर भी झूल गया।
जहाँ श्रद्धा होगी वहाँ ही तो मैं आऊँगा।

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