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संत की शरण

रमाकांत शास्त्री

एक गांव में एक ठाकुर थे। उनके यहां एक नौकर काम करता था जिसके कुटुंब में बीमारी की वजह से कोई आदमी नहीं बचा। केवल नौकर का लड़का रह गया। वह ठाकुर के घर काम करने लग गया। रोजाना सुबह वह बछड़े चराने जाता था और लौटकर आता तो रोटी खा लेता था। ऐसे समय बीतता गया।
एक दिन दोपहर के समय वह बछड़े को चरा कर आया तो ठकुरानी की नौकरानी ने उसे ठंडी रोटी खाने के लिए दे दी। उसने कहा कि थोड़ी सी छाछ या रबड़ी मिल जाए तो ठीक है। नौकरानी ने कहा कि, जा जा तेरे लिए बनाई है रबड़ी, जा ऐसे ही खा ले नहीं तो तेरी मर्जी। उस लड़के के मन में गुस्सा आया कि, मैं धूप में बछड़े चरा कर आया हूं, भूखा हुँ, पर मेरे को बाजरे की सूखी रोटी दे दी। रबड़ी मांगी तो तिरस्कार कर दिया।
वह भूखा ही वहां से चला गया। गांव के पास में एक शहर था। उस शहर में संतों कि एक मंडली आई हुई थी। वह लड़का वहां चला गया। संतों ने उसको भोजन कराया और पूछा कि तेरे परिवार में कौन हैं। उसने कहा कि कोई नहीं है। संतों ने कहा तू भी साधु बन जा। लड़का साधु बन गया। संतों ने ही उसके पढ़ने की व्यवस्था काशी में कर दी। वह पढ़ने के लिए काशी चला गया। 
वहां पढ़कर वह विद्वान हो गया। फिर कुछ समय बाद उसे महामंडलेश्वर महंत बन दिया गया। महामंडलेश्वर बनने के बाद एक दिन उसको उसी शहर में आने का आमंत्रण मिला। वह अपनी मंडली लेकर वहां आये, जिनके यहाँ वह बचपन में काम करते थे। वे ठाकुर बूढ़े हो गए थे। वह ठाकुर जी भी शहर में उनका सत्संग सुनने आए। उनका सत्संग सुना और प्रार्थना की कि महाराज, एक बार हमारी कुटिया में पधारो जिससे हमारी कुटिया पवित्र हो जाए। महामंडलेश्वर जी ने उसका निमंत्रण स्वीकार कर लिया। 
महामंडलेश्वर जी अपनी मंडली के साथ ठाकुर के घर पधारे। भोजन के लिए पंक्ति बैठी, भोजन मंत्र का पाठ हुआ। फिर सबने भोजन करना आरंभ किया। महाराज के सामने तख़्त लगाया गया, और उस पर तरह-तरह के भोजन के पदार्थ रखे हुए थे। अब ठाकुर जी महाराज के पास आए साथ में नौकर था, जिसके हाथ में हलवे का पात्र था। ठाकुर साहब प्रार्थना करने लगा कि महाराज कृपा करके थोड़ा सा हलवा मेरे हाथ से ले लो। महाराज को हंसी आ गई। ठाकुर ने पूछा कि आप हँसे कैसे? महाराज बोले कि, मेरे को पुरानी बातें याद आ गई इसलिए हंसा।
ठाकुर साहब बोले महाराज यदि हमारे सुनने लायक बात हो तो हमें भी बताइए। महाराज ने सब संतो से कहा कि, भाई थोड़ा ठहर जाओ बैठे रहो। ठाकुर बात पूछता है, तो बताता हूं। महाराज ने ठाकुर से पूछा कि, आपके कुटुंब में एक नौकर का परिवार रहा करता था। उस परिवार में अब कोई है क्या? ठाकुर बोले कि, केवल एक लड़का था और हमारे यहाँ उसने कई दिन बछड़े चराए फिर ना जाने कहाँ चला गया। बहुत दिन हो गए फिर कभी उसको देखा नहीं।
महाराज बोले, कि मैं वही लड़का हूं। पास के शहर में संत-मंडली ठहरी हुई थी। मैं वहां चला गया। पीछे काशी चला गया वहां पढ़ाई की और फिर महामंडलेश्वर बन गया। यह वही आंगन है, जहां आपकी नौकरानी ने मेरे को थोड़ी सी रबड़ी देने के लिए भी मना कर दिया था। अब मैं भी वही हुँ, आंगन भी वही है, आप भी वही हैं, पर अब आप अपने हाथों से मोहनभोग दे रहे हैं कि महाराज कृपा करके थोड़ा सा मेरे हाथ से ले लो। 
सन्तों की शरण लेने मात्र से इतना हो गया कि जहां रबड़ी नहीं मिलती थी वहां मोहनभोग भी गले में अटक रहे हैं। अगर कोई भगवान् की शरण ले ले, तो वह संतों का भी आदरणीय हो जाए। लखपति करोड़पति बनने के लिए सब स्वतंत्र नहीं हैं, पर भगवान् की शरण होने में भगवान् का भक्त बनने में सब के सब स्वतंत्र हैं, और ऐसा मौका इस मनुष्य जन्म में ही है।

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