मुकेश ‘नादान’
नरेंद्र की उस समय जो मन:स्थिति थी, उसके विषय में स्वामी सारदानंद ने अपने ग्रंथ 'श्रीरामकृष्ण लीला प्रंग' में लिखा है, “मैं सोच में पड़ गया कि इच्छा मात्र से यह पुरूष अगर मेरे जैसे प्रबल इच्छा-शक्ति वाले मन को और दृढ़ संस्कार युक्त गठन को इस प्रकार मिट्टी के लोटे की भाँति तोड़-फोड़कर अपने अनुरूप ढाल सकता है, तो फिर यह पागल कैसे हो सकता है? लेकिन पहली भेंट में ही एकांत में ले जाकर इन्होंने मुझे जिस तरह संबोधित किया, उसे क्या कहा जाए? बुद्धि का उन्मेष होने के अनंतर खोज तथा तर्कयुक्ति की सहायता से प्रत्येक वस्तु तथा व्यक्ति के विषय में एक मत स्थिर किए बिना मैं कभी निश्चिंत नहीं हो सका। इसी स्वभाव में आज एक प्रंड आघात लगा। इससे इस संकल्प का उदय हुआ कि जैसे भी हो, इस अद्भुत पुरूष के स्वभाव तथा शक्ति की बात अवश्य समझनी चाहिए।”
नरेंद्र जिसे आदर्श के रूप में खोज रहे थे, वे वही थे। फिर भी नरेंद्र जैसे दृढ़ संस्कारयुक्त व्यक्ति के लिए भी श्रीरामकृष्ण जैसे अदूभुत पुरूष को एकाएक गुरु के रूप में धारण करना संभव नहीं था। अतः उन्होंने श्रीरामकृष्ण की परीक्षा लेने का निश्चय किया।
एक दिन सुबह के समय, जब नरेंद्र अपने मित्रों के साथ अध्ययन में जुटे थे, उन्हें किसी के पुकारने का स्वर सुनाई दिया- घनरेन, नरेन!”
स्वर सुनते ही नरेंद्र हड़बड़ाकर तेजी से दुवार खोलने के लिए लपके। उस स्वर को वे पहचानते थे। आगंतुक श्रीरामकृष्ण ही थे।
नरेंद्र को देखते ही श्रीरामकृष्ण की आँखों में आँसू भर आए। वे बोले, “तू इतने दिनों से आया क्यों नहीं?”
नरेंद्र उन्हें आदर सहित भीतर ले आए। आसन ग्रहण करने के पश्चात् श्रीरामकृष्ण ने उन्हें अंदेशे खाने को दिए, जिन्हें नरेंद्र ने अपने मित्रों में भी बाँटा।
इसके पश्चात् श्रीरामकृष्ण ने नरेंद्र से भजन गाने को कहा।
नरेंद्र ने 'जागो माँ कुल वुंक्तडलिनी' भजन गाया।
भजन आरंभ होते ही रामकृष्ण भावविभोर हो उठे और समाधि में लीन हो गए उन्हें संज्ञाशून्य होता देखकर नरेंद्र के मित्र भयभीत हो उठे। तब नरेंद्र बोला, “भयभीत मत होओ। वे संज्ञाशुन्य नहीं हुए हैं, बल्कि भावविभोर हुए हैं। दूसरा भजन सुनकर पुन: चेतना में आ जाएँगे।”
नरेंद्र का कथन सत्य सिद्ध हुआ। नरेंद्र ने अन्य भजन गाने आरंभ किए, तो रामकृष्णजी की चेतना लौट आई।
गीतों का सिलसिला समाप्त होने पर श्रीरामकृष्ण नरेंद्र को आग्रहपूर्वक दक्षिणेश्वर ले गए।
नरेंद्र यदि कुछ दिनों तक दक्षिणेश्वर जाकर श्रीरामकृष्ण से भेंट नहीं करते थे, तो वे व्याकुल हो उठते थे।
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