top of page

सच्चे गुरु की तलाश

मुकेश ‘नादान’

सन्‌ 1881 की बात है। नवंबर का महीना था, ठंड भी अपना भरपूर असर दिखा रही थी। एक दिन श्रीरामक्रृष्ण परमहंस आमंत्रण पर सुरेंद्रनाथ के घर पधारे। उनके आने पर आनंदोत्सव मनाया जा रहा था। कोई अच्छा गायक न मिलने पर सुरेंद्रनाथ ने अपने मित्र नरेंद्र को बुला लिया। जब श्रीरामकृष्णजी ने नरेंद्र का गाना सुना, तो वे उसकी प्रतिभा को पहचान गए। उन्होंने नरेंद्र से काफी देर तक बातें कीं और जाते समय नरेंद्र को दक्षिणेश्वर आने का निमंत्रण भी दे गए।
उस समय नरेंद्र एफ.ए. की तैयारी में जुटे थे। शीघ्र ही परीक्षा होने वाली थी, जिस कारण नरेंद्र श्रीरामकृष्ण परमहंस के आमंत्रण को भूल गए। परीक्षा समाप्त होते ही नरेंद्र के विवाह की बातचीत होने लगी। लेकिन नरेंद्र विवाह करने के इच्छुक नहीं थे, वह अकसर अपने मित्रों से कहते थे, “मैं विवाह नहीं करूँगा।"
इधर विश्वनाथ बाबू खुले विचारों वाले व्यक्ति थे, वे नरेंद्र पर किसी भी तरह का दबाव नहीं डालना चाहते थे। अत: उन्होंने विवाह के संबंध में नरेंद्र की राय जानने का कार्य अपने संबंधी डॉ. रामचंद्र दत्त को सौंप दिया। उनके पूछने पर नरेंद्र ने स्पष्ट शब्दों मे कह दिया, “मैं विवाह के बंधन से मुक्त रहना चाहता हूँ, क्योंकि मेरे उद्देश्य की पूर्ति में विवाह बाधक है।”
नरेंद्र का जबाब सुनकर रामचंद्र दत्त ने उन्हें सलाह दी, “यदि वास्तव में तुम्हारा उद्देश्य सत्य की प्राप्ति है, तो ब्रह्मसमाज में जाने से कोई लाभ नहीं है। तुम्हारे लिए दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण के पास जाना ठीक रहेगा।”
उनके ऐसा कहते ही नरेंद्र को श्रीरामकृष्णजी का आमंत्रण स्मरण हो आया और वह अपने मित्रों के साथ दक्षिणेश्वर जा पहुँचे।
श्रीरामकृष्ण परमहंस नरेंद्र से आत्मीयता के साथ मिले। उन्होंने नरेंद्र को अपने निकट चटाई पर बैठा लिया और गाना सुनाने के लिए कहा। नरेंद्र ने ब्रह्मसमाज का “मन चलो निज निकेतन' गीत गाया। गीत समाप्त होने पर श्रीरामकृष्ण नरेंद्र को एकांत में ले गए और अंदर से कमरा बंद कर लिया।
श्रीरामकृष्ण ने नरेंद्र से पूछा, “ अरे, तू इतने दिन कहाँ रहा? मैं कब से तेरी प्रतीक्षा कर रहा था। विषयी लोगों से बात करते-करते मेरा मुँह जल गया है, आज तुझ जैसे सच्चे त्यागी से बात करके मुझे शांति मिलेगी।” कहते-कहते उनकी आँखों से आँसू बहने लगे।
नरेंद्र हतप्रभ से उनकी ओर देखते रह गए। कुछ पलों बाद रामकृष्ण ने हाथ जोड़कर नरेंद्र से सम्मानजनक शब्दों में कहा, “मैं जानता हूँ कि तू सप्तऋषि मंडल का महर्षि है, नररूपी नारायण है। जीवों के कल्याण की कामना से तूने देह धारण की है।”
नरेंद्र उनकी बातों का कोई उत्तर न दे सके। वह अवाव्क्त से उन्हें देखते रहे। उन्होंने मन-ही-मन सोचा, यह तो निरा पागलपन है। मैं विश्वनाथ दत्त का पुत्र हूँ, फिर ये मुझे क्या कह रहे हैं?
उसी पल श्रीरामकृष्ण ने नरेंद्र का हाथ थाम लिया और विनीत स्वर में बोले, “मुझे वचन दे कि तू मुझसे मिलने पुन: अकेला आएगा और जल्दी आएगा।"
नरेंद्र ने इस अद्भुत स्थिति से मुक्त होने के लिए बचन तो दे दिया, किंतु मन-ही-मन कहा, फिर कभी न आऊँगा।
इसके बाद श्रीरामकृष्ण नरेंद्र के साथ वापस बैठक में आ गए। वहाँ अन्य लोगों की मौजूदगी में जो बातें हुई, नरेंद्र को उनमें जरा भी पागलपन नहीं दिखाई दिया। नरेंद्र वापस अपने घर लौट आए। हालाँकि उन्होंने निर्णय लिया था कि वे अब कभी श्रीरामकृष्ण से मिलने दक्षिणेश्वर नहीं जाएँगे, मगर एक माह बाद वे पुन: दक्षिणेश्वर जा पहुँचे।
रामकृष्ण एक खटोले पर लेटे हुए थे। नरेंद्र ने देखा, वहाँ उनके अतिरिक्त कोई दूसरा प्राणी नहीं है। जैसे ही रामकृष्ण की दृष्टि नरेंद्र पर पड़ी, वे प्रसन्‍न हो उठे और आनंदित स्वर में उन्हें अपने निकट बुलाकर बैठा लिया। नरेंद्र के बैठने पर न जाने किस भाव से रामकृष्ण तन्‍्मय हो गए और सरकते-सरकते उनके निकट आ गए।
नरेंद्र तनिक से भयभीत हो गए, उन्होंने सोचा, 'शायद यह पागल पहले दिन की भाँति आज भी कोई पागलपन करेगा।' अचानक श्रीरामकृष्ण ने अपना दाहिना पैर नरेंद्र के शरीर से स्पर्श करा दिया। उनका ऐसा करना था कि नरेंद्र को कमरे की दीवारें, सब वस्तुएँ और संपूर्ण संसार घूमता हुआ महसूस होने लगा। एकाएक उन्हें अपना व्यक्तित्व तथा सभी वस्तुएँ शून्य में विलीन होती अनुभव हुई।
उस समय नरेंद्र घबरा गए और भयभीत होकर चिल्ला उठे, “अजी, आपने ये मेरी कैसी अवस्था कर डाली, मेरे तो माँ-बाप भी हैं।"
नरेंद्र की बात सुनकर श्रीरामकृष्ण खिलखिलाकर हँस दिए और नरेंद्र का हाथ अपनी छाती पर रखकर बोले, “अभी इस सबका समय नहीं आया है, शायद! खैर...फिर कभी सही।”
इसके बाद परमहंस पुन: सामान्य स्थिति में आ गए। उन्होंने पहले दिन की भाँति नरेंद्र को प्रेमपूर्वक खिलाया-पिलाया। विभिन्‍न विषयों पर वार्तालाप करते-करते तथा हास-परिहास भी किया।
शाम होने पर नरेंद्र ने जब जाने की आज्ञा माँगी, तो वे उदास होकर बोले, “अच्छा! लेकिन वचन दे, फिर जल्दी ही आएगा तू।”
नरेंद्र ने विवश होकर पहले दिन की भाँति वचन दिया और घर लौट आए।

*******

1 view0 comments

Recent Posts

See All

Comments


bottom of page