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सत्य की खोज

मुकेश ‘नादान’

बात उस समय की है जब नरेंद्र ने सत्य की खोज में न जाने कितनी ही पुस्तकें पढ़ डाली थीं। वे अपने अध्ययन से किसी उद्देश्य को प्राप्त करना चाहते थे।
वास्तव में वह अध्ययन के माध्यम से सत्य की खोज करना चाहते थे। जिसे वे सत्य की कसौटी पर खरा पाते, उसकी मन-प्राण से रक्षा करते। जब उन्हें लगता कि सामने वाला उस सत्य को झूठ साबित करने के लिए उद्यत है तो नरेंद्र तुरंत उससे तर्क-वितर्क करने लगते और उसे परास्त करके ही शांत होते।
उनके मन में न किसी के प्रति द्वेष था और न ही वे अपनी बात ऊँची रखने के लिए कुतर्क का सहारा लेते थे, फिर भी उनसे परास्त व्यक्ति उन्हें दंभी कहते थे, किंतु नरेंद्र ने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया कि कोई उनके विषय में क्या कह रहा है।
उनके स्वभाव से परिचित छात्र उनका बहुत आदर करते थे। जनरल असेंबली कॉलेज के अध्यक्ष विलियम हेस्टी बहुत सज्जन व्यक्ति थे। वह बड़े विदृवान्‌, कवि और दार्शनिक भी थे। नरेंद्र अपने कुछ प्रतिभाशाली साथियों के साथ नियमित रूप से उनके पास जाकर दर्शनशात्र का अध्ययन किया करता था। हेस्टी साहब नरेंद्र की बहुमुखी प्रतिभा की बहुत प्रशंसा करते थे।
एक बार नरेंद्र ने जब कॉलेज के “दार्शनिक क्लब' में किसी मत विशेष का सूक्ष्म विश्लेषण किया, तो हेस्टी साहब ने प्रसन्‍न होकर कहा, “नरेंद्र दर्शनशात्र का अति उत्तम छात्र है। जर्मनी और इंग्लैंड के तमाम विश्वविद्यालयों में एक भी ऐसा छात्र नहीं है, जो इसके समान मेधावी हो।"
नरेंद्र की जिज्ञासा उनकी बढ़ती आयु और अध्ययन के अनुपात में तीव्र होती जा रही थी। वह जानना चाहते थे कि मानव जीवन का उद्देश्य क्या है? क्या वास्तव में इस जड़-जगत्‌ को संचालित करने वाली कोई सर्वशक्तिमान ईश्वरीय सत्ता है? ऐसे अनगिनत प्रश्नों के उत्तर खोजने की चेष्टा में उनका मन उलझा रहता। हालाँकि उनमें बाल्यावस्था से ही धर्मभावना विद्यमान थी, किंतु सत्य को जानने की अभिलाषा में उनका मन अशांत रहता था।
पाश्चात्य विज्ञान तथा दर्शनशात्र का अध्ययन उनके मन में संदेह उत्पन्न करता था। जब भी वह किसी धर्म-प्रचारक को ईश्वर के विषय में उपदेश देते हुए सुनते, तो वह तुरंत पूछते, “महाशय, क्या आपने ईश्वर के दर्शन किए हैं?"
सकारात्मक अथवा नकारात्मक उत्तर देने के स्थान पर धर्म-प्रचारक अपने उपदेशों के माध्यम से उन्हें संतुष्ट करने का प्रयास करते, किंतु नरेंद्र इन सांप्रदायिक बातों को सुन-सुनकर विरक्‍्त हो चुके थे। अपने प्रश्न का उन्हें किसी से सत्यता की कसौटी पर सही उत्तर नहीं मिलता था।
नरेंद्र की अपने पिता से विरासत में मिली आलोचना-प्रवृत्ति पर पाश्चात्य विचारों का प्रभाव बढ़ गया था। इसी कारण नरेंद्र को आत्मिक शांति प्राप्त नहीं हो पा रही थी। उन्हें खोज थी ऐसे व्यक्ति की, जो जीता-जागता आदर्श हो।
और इसी दूबंदूव के चलते नरेंद्र अपने कुछ मित्रों के साथ ब्रह्मसमाज के सदस्य बन गए। तब तक ब्रह्मसमाज आदिब्रह्मसमाज और अखिल भारतीय ब्रह्मसमाज, इन दो भागों में विभक्त हो चुका था। इनके नेता क्रमशः देवेंद्रनाथ ठाकुर और केशबचंद्र सेन थे। केशवचंद्र सेन से बंगाली नौजवान काफी प्रभावित थे।
केशव और उनके अनुयायी ईसाइयत के रंग में रँगे हुए थे तथा उनका रवैया सनातन हिंदू धर्म की उच्चतम मान्यताओं के एकदम विपरीत था। लेकिन नरेंद्र की इन मान्यताओं में आस्था थी। संदेववादी होते हुए भी उनमें अन्य नौजवानों जैसी उद्‌डंता तथा अराजकता नहीं थी। उन्होंने आदिब्रह्मसमाज को चुना था।
ब्रह्मसमाज की प्रत्येक रविवारीय उपासना में नरेंद्र सम्मिलित होते थे। साथ ही अपने मधुर कंठ से ब्रह्म संगीत सुनाकर श्रोताओं का मन मोह लेते थे, किंतु वे उपासना के विषय में दूसरे सदस्यों से सहमत नहीं थे। उन्हें ब्रह्मसमाज में त्याग तथा निष्ठा की कमी अनुभव होती थी।
जहाँ भी वह असत्य की छाप देखते, निर्भीक भाव से उसकी आलोचना करते थे, फिर भी उन्हें सत्य के दर्शन नहीं हुए।
एक दिन देवेंद्रनाथ ठाकुर ने उपदेश देते हुए नरेंद्र से कहा, “तुम्हारे प्रत्येक अंग में योगियों की छाया स्पष्ट झलकती है। ध्यान करने से तुम्हें शांति तथा सत्य की प्राप्ति होगी।”
'लगनशील नरेंद्र उसी दिन से ध्यानानुराग में रम गए। थोड़ा खाना, चटाई पर सोना, सफेद धोती पहनना तथा शारीरिक कठोरता का पालन करना उन्होंने अपना नियम बना लिया। उन्होंने अपने घर के निकट किराए पर कमरा ले रखा था। उनके परिवार वाले समझते थे कि घर पर पढ़ाई में असुविधा होती होगी, इसी कारण नरेंद्र अलग कमरा लेकर रह रहा है। विश्वनाथजी ने भी कभी नरेंद्र की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने की चेष्टा नहीं की। नरेंद्र अध्ययन, संगीत आदि की चर्चा करने के पश्चात्‌ अपना शेष समय साधना-भजन में बिताते थे।
इस तरह दिन बीतने लगे, लेकिन उनकी सत्य की खोज पूर्ण नहीं हुई। समय बीतने के साथ-साथ उन्हें समझ में आने लगा कि सत्य को प्रत्यक्ष रूप से देखने के लिए किसी ऐसे व्यक्ति के चरण-कमलों में बैठकर शिक्षा लेनी होगी, जिसने स्वयं सत्य का साक्षात्कार किया हो। साथ ही उन्होंने निर्णय लिया कि यदि मैं सत्य की खोज न कर सका, तो इसी प्रयल में प्राण दे दूँगा।

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