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समय का फेर

डॉ उर्मिला सिन्हा

"यह कुलच्छिनी जन्म लेते मां को खा गई फिर बाप को। इसके साये से भी दूर रहना चाहिए। "ताई दांत पीस-पीस कर कोसे जा रही थी।
सब का लात मार के साथ जूठन खा अनाथ बालिका रमा जैसे-तैसे ताई ताऊ बुआ दादी के सहारे बड़ी हुई।
उस पर कोढ में खाज की तरह रमा का रुपवती होना किसी को फूटी आंख नहीं सुहाता था। क्योंकि फटे पुराने उतरन पहनकर भी उसका रुप दमक उठता। उसके सुंदरता के आगे घर की अन्य लड़कियां पानी भरती।
फिर क्या था रमा को नीचा दिखाने के लिए "खा खा के मुटा रही है... काम के न काज के " चाची का गुस्सा सातवें आसमान पर रहता था। थर-थर कांपती रमा सिर झुकाये सबकी तीमारदारी में लगी रहती। उसकी बुद्धि भी बहुत तेज थी। जहाँ घर के अन्य बच्चे महंगे स्कूल में संसाधनों के साथ खींच-तीन कर पास होते वहीं सरकारी स्कूल में रमा को वजीफा मिलता।
"ला ये पैसे हमें दे... मुफ्त खोरी की आदत पड़ी हुई है" जख्म पर नमक छिड़कने वालों की कमी न थी।
ईश्वर की माया... ऐसे ही रोते-धोते गाली गलौज फजीहत के बीच अपने परिश्रम के बल पर रमा का चयन पहली ही बार में प्रशासनिक सेवा में चयन हो गया।
पेपर मीडिया में रमा छा गई। पहचान वाले बधाईयां देने लगे। रमा को जली-कटी सुनाने वालों का मुंह बन गया।
किंतु आदत से लाचार ताई जले पर नमक छिड़कने से बाज न आई, "देखना यह मनहूस लड़की वहां भी सुख से न रह पायेगी।"
पडो़सी से रहा न गया बोल पड़ी, "अब तो बस करो... यही लड़की तुम लोगों का नाम रौशन की और इसी को भला-बुरा कह रही हो। अब तो जख्मों पर नमक छिड़कना बंद करो।"
समय बदलते सबके मुंह पर ताले जड़ गये।

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