पुष्पा संजय नेमा
रोज की तरह आज फिर सब ऑगन में बैठ कर सुबह की गुनगुनी धूप का आनन्द ले रहे थे। इतने में बाबूजी की कड़कदार आवाज से साँवली के हाथ से गरम चाय की पतीली छूट गई उसने झटपट दूसरी चाय बनाई और लेकर गई बाबूजी लीजिए चाय। माफ कीजिए आज थोड़ी देर हो गई। बाबूजी कुछ बोल पाते इसके पहले ही मांजी ने झाड़ू सी मारते हुए कहा शर्मा जी का नाश्ता हो गया और हमें चाय नसीब हो रही है। उन्होंने जरूर कोई पुण्य कर्म किए होगे इसलिए शीला सुशीला सी बहू मिली है। जो सबको हाथो पर लिए है और हमारे तो कर्म ही फूटे है साहबजादे को पसंद भी आई तो यह कलूटी।
अब खड़ी क्यों है नाशता कब बनाएगी। साँवली की ऑखो से ऑसू बह निकले आखिर क्यों जब से इस घर मे आई हूँ अपमान और निरादर। ये काला रंगरूप अपराध है क्या आखिर कब तक।
दादी ने शादी के वक्त पापा को समझाया भी था बेटा पूरा खानदान रूई के जैसा सफेद धरा है। कही बाद में कोई परेशानी न बन बैठे। लेकिन पापा तो पापा इन लोगों की चिकनी चुपड़ी बातों में आ गए।
पहले तो सोहन पक्ष लेते थे और मां से लड़ जाते थे। रंगरूप पर कोई टिप्पणी नही करते थे पर अब तो वे भी जब कलूटी कहते है। तो अन्तर्मन तार-तार हो जाता है।
पापा ने बड़े प्यार से साँवली नाम रखा था। कहते थे साँवली है तो क्या लाखों में एक है मेरी बेटी। तीरकमान सी भौंहे तीखे नाक नकश धुंधराले बाल और क्या चाहिए सुंदरता के लिए। साँवली ने एक लंबी सांस ली पापा आपकी वही साँवली ससुराल में कलूटी नाम सुन-सुनकर तंग आ गई है।
हे भगवान रंगरूप के नाम पर कब तक अपना निरादर सहती रहूंगी। शब्द-शब्द में कितना अंतर है और तो और जेठानी जी का चार बरस का निकेत भी कहता है कलूटी चाची दूध दे दो न। वह तो अबोध है।
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