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सीखना सतत प्रक्रिया है।

पिंकी सिंघल



कहा जाता है कि जब सीखने की प्रक्रिया बंद हो जाती है उसी पल से हमारा विकास होना भी अवरुद्ध होने लगता है हमारे आगे बढ़ने के अवसर उसी क्षण समाप्त हो जाते हैं। ऐसे में एक सीमा तक हमने जितना कुछ सीखा, जाना उसी के सहारे हमें आगे का जीवन जीना होता है। जिस पल हमारे मन में यह बात घर कर जाती है कि अब हम सब कुछ सीख चुके हैं और आगे कुछ सीखने की हमें कोई आवश्यकता नहीं रह गई है, तो समझ लीजिए उससे अधिक दुर्भाग्य की बात हमारे लिए दूसरी कोई हो ही नहीं सकती।
सीखने सिखाने की प्रक्रिया जीवन पर्यंत चलती रहती है हम हर पल हर क्षण कुछ नया सीखते हैं। अपने जीवन में मिलने वाले हर शख्स से हमें कुछ ना कुछ सीखने को मिलता है। सीखने का कोई अंत होता ही नहीं है। जैसे ही हमें यह महसूस होने लगता है कि अब हमें जीवन का काफी अनुभव हो गया है और दुनियादारी की समझ हमारे भीतर आ गई है उसी क्षण हमें कुछ ऐसा नया ज्ञान, नया अनुभव, नई सीख मिलती है जिसके बाद हममें फिर से कुछ नया सीखने की उत्सुकता जागृत होने लगती है और हम सीखने की उसी दिशा में खींचे चले जाते हैं। जब तक हम उस नए ज्ञान को ग्रहण नहीं कर लेते और नवीन चीजों को सीख समझ नहीं लेते, तब तक हमें सब्र नहीं आता और हम बेचैन रहते हैं। वस्तुत: यही बेचैनी ही तो हमें नित नया सीखने के लिए प्रेरित करती है। ज्ञान पिपासु होने की प्रवृत्ति प्रति क्षण प्रबल होती जाती है जिसके शांत होने पर ही हमें सुकून का अहसास होता है।
अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर सीखना है क्या और कैसे बेहतर तरीके से सीखा जा सकता है?
मेरे हिसाब से जीवन में सब कुछ औपचारिक तरीके से ही नहीं सीखा जाता अपितु अप्रत्यक्ष एवम अनौपचारिक माध्यमों से भी व्यक्ति काफी कुछ सीख जाता है। कभी-कभी हम दूसरों को कुछ करते देख स्वत: ही कुछ नया सीख जाते हैं। यह भी आवश्यक नहीं है कि कुछ नया सिखाने वाला हमसे उम्र में बड़ा ही हो। हम सभी अपने दैनिक जीवन में इस प्रकार का अनुभव करती हैं कि कभी-कभी हम छोटे छोटे बच्चों से भी बड़ी-बड़ी, गहरी और नवीन बातें सीख जाते हैं। बच्चों द्वारा कभी-कभी हमें ऐसी सीख दे दी जाती है जिसे देख हम खुद अचंभित रह जाते हैं। इसलिए सीखने सिखाने का आयु से कोई खास संबंध नहीं होता।
दूसरी बात,
केवल दूसरों की आकांक्षाओं और आशाओं पर खरा उतरने के लिए ही ना सीखे सिखाएं अपितु अपनी क्षमताओं, कैपेसिटी और पेसे के हिसाब से ही सीखें और आगे बढ़ने का प्रयास करें। अपनी उत्सुकता को कभी ठंडा ना पड़ने दें क्योंकि उत्सुकताओं में आया हुआ उबाल ही हमें एक बेहतर इंसान बनने में मदद करता है।
तीसरी बात,
सीखने सिखाने की कोई निश्चित उम्र नहीं होती यदि कोई कहे कि एक निश्चित आयु तक ही व्यक्ति कुछ सीख सकता है तो यह सर्वथा गलत माना जाएगा। जैसा कि मैंने ऊपर भी कहा कि यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो तमाम उम्र चलती रहती है। जाने अनजाने में भी हम दूसरे लोगों से बहुत कुछ सीख जाते हैं जिसे अंग्रेजी में इनडायरेक्ट लर्निंग का नाम दिया जाता है। किताबी ज्ञान कभी भी उस ज्ञान का होड़ नहीं कर सकता जो ज्ञान व्यक्ति खुद कुछ सही गलत करके और अपने आसपास के वातावरण और अनुभवों से प्राप्त करते हैं।
सीखने से तात्पर्य केवल किसी चीज को समझना ही नहीं है अपितु उस समझ और ज्ञान को अपने दैनिक जीवन में प्रयोग में लाना भी होता है। असली मायनों में सीख तभी कारगर मानी जाती है जब उस सीख से प्राप्त समझ और ज्ञान को हम अपने जीवन में अपनाते हैं और अपने जीवन को पहले से अधिक बेहतर बनाने का यथासंभव प्रयास करते हैं।
सीखने सिखाने की प्रक्रिया तो जीव जंतुओं में भी देखी गई है। एक छोटी सी चींटी भी दूसरी चीटियों को पंक्ति बद्ध हो कर चलता देखती है तो स्वत: ही पंक्ति में चलना प्रारंभ कर देती है। उस चींटी को ऐसा करने के लिए किसी ने नहीं बोला अपितु यह ज्ञान यह सीख उसे दूसरों को देखकर मिला, जिसे उसने अपने जीवन में अपनाया।
कहने का तात्पर्य यह है कि जीवन में प्राप्त ज्ञान और नई चीजों को सीखने का वास्तविक लाभ हमें तभी प्राप्त हो सकता है जब हम उसे अपने दैनिक जीवन में प्रयोग में लाएं अपने ज्ञान से दूसरों को भी लाभान्वित करें और मिलजुलकर एक सभ्य और पहले से कहीं अधिक विकसित समाज का नव निर्माण करने में अपना योगदान दें।
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