इसके पहले कि मैं आपके सामने माणिक मुल्ला की अद्भुत निष्कर्षवादी प्रेम कहानियों के रूप में लिखा गया यह ‘सूरज का सातवां घोड़ा’नामक उपन्यास प्रस्तुत करूं, यह अच्छा होगा कि पहले आप जान लें कि माणिक मुल्ला कौन थे, यह हम लोगों को कहाँ मिले, कैसे उनकी प्रेम कहानी हम लोगों के सामने आई, प्रेम के विषय में उनकी धारणायें और अनुभव क्या थे तथा कहानी की टेक्निक के बारे में उनकी मौलिक उदभावनायें क्या थी।
‘थीं’का प्रयोग मैं इसलिए कर रहा हूँ कि मुझे यह नहीं मालूम कि आजकल कहाँ है? क्या कर रहे हैं? अब कभी उनसे मुलाकात होगी या नहीं और अगर सच में वे लापता हो गए हैं, तो कहीं उनके साथ उनकी अद्भुत कहानियाँ भी लापता हो ना जाये, इसलिए मैं आपके सामने पेश कर देता हूँ।
एक जमाना था, जब वे हमारे मोहल्ले की मशहूर व्यक्ति थे। वहीँ पैदा हुए, वहीं बड़े हुए, वहीं शोहरत पाई और वहीं से लापता हो गये। हमारा मोहल्ला काफी बड़ा है, कई हिस्सों में बटा हुआ है और वे उस हिस्से के निवासी थे, जो सबसे ज्यादा रंगीन और रहस्यमय है और जिनकी नई और पुरानी पीढ़ी दोनों के बारे में अजब-गजब सी किवंदतियाँ मशहूर है।
मुल्ला उनका उपनाम नहीं, जाति थी। कश्मीरी थे। कई पुश्तों से उनका परिवार यहाँ बसा हुआ था। वह अपने भाई और भाभी के साथ रहते थे। भाई और भाभी का तबादला हो गया था और वह पूरे घर में अकेले रहते थे। इतनी सांस्कृतिक स्वाधीनता तथा इतना कम्युनिस्ट एक साथ उनके घर में थी कि यद्यपि हम लोग उनके घर से बहुत दूर रहते थे लेकिन वही सब का अड्डा जमा रहता था। हम सब उन्हें गुरुवत मानते थे और उनका भी हम सबों पर निश्छल प्रेम था। वे नौकरी करते हैं या पढ़ते हैं, नौकरी करते हैं तो कहाँ, पढ़ते हैं तो कहाँ – यह भी हम लोग कभी नहीं जान पाये। उनके कमरे में किताबों का नामो-निशान भी नहीं था। हाँ कुछ अजब-गजब चीजें वहाँ थीं, जो अमूमन दूसरे लोगों के कमरे में नहीं पाई जाती। मसलन दीवार पर एक पुराने काले फ्रेम में एक फोटो जड़ा टंगा था। ‘खाओ बदन बनाओ’एक तख़्त में एक काली बेंट का बड़ा सुंदर चाकू रखा था। एक कोने में घोड़े की पुरानी नाल पड़ी थी और इसी तरह की कितनी ही अजीबोगरीब चीजें थीं, जिनका औचित्य हम लोग कभी नहीं समझ पाते थे। इनके साथ ही साथ हमें ज्यादा दिलचस्पी जिस बात में थी, वह यह थी कि जाड़ों में मूंगफलियाँ और गर्मियों में खरबूजे हमेशा मौजूद रहते थे और उनका स्वभाविक परिणाम था कि हम लोग भी हमेशा मौजूद रहते थे।
अगर कभी फुर्सत हो, पूरा घर अपने अधिकार में हो, चार मित्र बैठे हो, तो निश्चित है कि घूम फिर कर वार्ता राजनीति पर आ टिकेगी और जब राजनीति में दिलचस्पी खत्म होने लगेगी, तो गोष्ठी की वार्ता प्रेम पर आ टिकेगी। कम से कम मध्यम वर्ग में तो इन दो विषयों के अलावा तीसरा विषय नहीं होता। माणिक मुल्ला का दखल जितना राजनीति में था उतना ही प्रेम में भी था। लेकिन जहाँ तक साहित्यिक वार्ता का प्रश्न था, वे प्रेम को तरजीह दिया करते थे।
प्रेम के विषय में बात करते समय वे कभी-कभी कहावतों को अजब रूप में पेश किया करते थे और उनमें से ना जाने क्यों एक कहावत अभी तक मेरे दिमाग में चस्पा है। हालांकि उसका सही मतलब ना मैं तब समझा था ना अब। अक्सर प्रेम के विषय में अपने कड़वे मीठे अनुभवों से हम लोगों का ज्ञान वर्धन करने के बाद खरबूजा काटते हुए कहते थे – ‘प्यारे बंधुओ! कहावत में चाहे जो कुछ हो, प्रेम में खरबूजा चाहे चाकू पर गिरे या चाकू खरबूजे पर, नुकसान हमेशा चाकू का होता है। अतः जिसका व्यक्तित्व चाकू की तरह ना हो, उसे हर हालत में उस उलझन से बचना चाहिए।’ ऐसी कहावतें थीं, याद आने पर मैं लिखूंगा।
लेकिन जहाँ तक कहानियों का प्रश्न था, उनकी निश्चित धारणा थी कि कहानियों की तमाम नस्लों में प्रेम कहानियाँ ही सबसे सफल साबित होती है। अतः कहानी में रोमांस का अंश जरूर होना चाहिए। लेकिन साथ ही हमें अपनी दृष्टि संकुचित नहीं कर लेनी चाहिए और कुछ ऐसा चमत्कार करना चाहिए कि वह समाज के लिए कल्याणकारी अवश्य हो।
जब हम पूछते थे कि यह कैसे संभव है कि कहानियाँ प्रेम पर लिखी जाये, पर उनका प्रभाव कल्याणकारी हो। तब यह कहते थे कि यही तो चमत्कार है तुम्हारे माणिक मुल्ला, में जो अन्य किसी कहानीकार में है ही नहीं।
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