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स्त्री

वंदना सक्सेना


स्त्री केवल तन ही नहीं
मन भी है
पाकीज़गी है
निर्मलता है
जो समा लेती है
सैकड़ों यातनाएं मन के अंदर
जो तू देता है
कभी सोचा वो देह से परे भी बहुत कुछ है
अनन्त सम्भावनायें लिए
वो तुम्हारे साथ
कदम से कदम मिलाकर चलती है
रंग जाती है उसी रंग में
जिसमें तुम उसे देखना चाहते हो
कभी माँ, कभी बहन
कभी प्रेयसी
तो कभी पत्नी बनकर
गंगा की तरह तुम्हारे सब पाप
खुद में समा लेती है
तपती है सूरज की तरह
तुम्हारे जीवन को प्रकाशमय करने के लिए
तुम समुद्र भले सही पर खारे हो
वो बहती है तुममें नदी की
अविरल धारा की तरह
तुममें आकर तुम्हारी हो जाती है
चाहती कुछ नहीं
बस हर रिश्ते में ईमानदार रहना
और तुमसे भी वफ़ादारी चाहती है
वज़ूद-ए-औरत तुम क्या समझोगे!
शुष्क आँखों को भी उसके लिए पिघलना होगा
उसकी तरह रात दिन जलना होगा
तबस्सुम होठों पे लिए
वो कैसे खपती है
ये समझने के लिए तुम्हे
मानवीयता से गुजरना होगा
स्त्री बहुत कुछ है तन के सिवा
हाँ तुम्हे ये समझना होगा।

*****

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