श्रीमती स्वयंकार
सुनीता बड़ी उत्साहित थी अपनी बेटी को पहली बार, बस में भेज कर। क्योंकि वह हमेशा चाहती थी कि उसकी बेटी पब्लिक ट्रांसपोर्ट में आना जाना सीखे। पहली बार जा रही थी इसलिए पिता भी साथ में थे। लेकिन सीमा...!
उसका तो बुरा हाल हुए जा रहा था बस का सोचकर। सफर तो कई बार किया था उसने, लेकिन मां के बिना कभी नहीं। मां के साथ हमेशा सुरक्षित महसूस करती थी वह। लेकिन आज पिता के साथ अकेले जाना था।
सुनीता ने कठोर बनकर सीमा को भेज ही दिया। बस खचाखच भरी हुई थी। पीछे बैठने के लिए कहीं कोई स्थान नहीं था। ड्राइवर ने दोनों को आगे बोनट के पास बैठा दिया। एक लड़का जगह न मिलने के कारण बोनट पर बैठा हुआ था। थोड़ी देर बैठने के बाद सीमा को नींद आ गई। नींद खुली तो उसने पाया जैसे उसके पैर पर कुछ चल रहा है, लेकिन जब देखा तो वह चरित्रहीन, संस्कारहीन लड़का अपने पैर के अंगूठे से उसकी पैर को स्पर्श कर रहा था।
सीमा असहज हो गई। वह उसकी अत्यंत चुभने वाली दृष्टि से लहूलुहान हो रही थी। लेकिन पता नहीं क्यों, अपने पिता को एक शब्द नहीं बता पाई, उस लड़के के बारे में।
मां बहुत याद आ रही थी। यदि मां होती तो बताना ही नहीं पड़ता, वह स्वयं ही समझ जाती। रास्ता बहुत लंबा था। लेकिन सीमा के लिए लंबा ही नहीं बोझिल भी था। पता नहीं कैसे उस, अबोध लड़की ने समय काटा? जैसे ही वह लड़का अपने स्टॉप पर उतरा, उसने राहत की सांस ली।
चाहें वह लड़का उसे फिर कभी नहीं दिखा, लेकिन उसका डरावना व्यवहार सीमा, सारी उम्र याद रखेगी। बिल्कुल वैसे ही जैसे, हम खूबसूरत यादों को अपने मस्तिष्क में, समेट कर रखते हैं। उस लड़के के बारे में सोचती हूं तो दया आती है। आखिर उसने एक अनजान लड़की के हृदय में जगह बनाई भी तो किस रूप में।
एक राक्षस के रूप में..
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