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स्वार्थी राजा

विनोद मिश्रा

एक जंगल में मंदविष नामक सांप रहता था और बहुत बूढ़ा हो चुका था। बूढ़ा और कमजोर होने के कारण अपना शिकार करने में असमर्थ था। एक दिन रेंगता हुआ वह तालाब के किनारे पहुँच गया और वहीं लेट गया और कुछ दिनों तक वह इसी तरह लेटा रहा।
उसी तालाब में बहुत सारे मेंढक भी रहते थे। उन्होंने तालाब किनारे लेटे हुए सांप की हालत के बारे में मेंढकों के राजा जालपाद को बतलाया। मेंढकों का राजा जालपाद उस सर्प के बारे में जानने के लिये सर्प के पास पहुंचा और जालपाद बोला – “हे सर्पराज! मैं मेंढकों के राजा जालपाद हूँ और इसी तालाब में रहता हूँ। आपकी हालत के बारे में कुछ मेंढकों ने मुझे बतलाया था। आप इतने सुस्त क्यूँ पड़े हुए हो, आपकी यह हालत किसने की है, क्या आप हमें कुछ बतलाओगे।”
मेंढकों के राजा से इस प्रकार के प्रश्न सुनकर सर्प ने बनावटी कहानी बनाई और बोला- “हे मेंढकों के राजा! मैं एक गाँव के पास रहता था। एक दिन एक ब्राम्हण के पुत्र का पैर मेरे ऊपर रखा गया था और मैंने उसे काट लिया जिससे उस ब्राम्हण पुत्र की मृत्यु हो गई। उस ब्राम्हण ने मुझे श्राप दिया कि मुझे किसी तालाब के किनारे जाकर मेंढकों की सेवा करनी होगी और उन्हें अपनी पीठ पर बैठकर घुमाना होगा।”
सर्प के मुंह से इस प्रकार की बातें सुनकर मेंढकों का राजा जालपाद बहुत खुश हुआ। उसने सोचा कि अगर इस सर्प से मेरी दोस्ती हो जाती है और मैं इस सर्प की पीठ पर बैठकर सबारी करूँगा तो दल का कोई भी दूसरा शक्तिशाली मेंढक मेरे खिलाफ विद्रोह भी नहीं कर सकेगा।
जालपाद को कुछ सोचता हुआ देख सर्प बोला – “भद्र! मैं सोच रहा था कि मुझे उस ब्राम्हण का श्राप भोगना पड़ेगा। किसी और मेंढक को अपनी पीठ पर बैठाकर घुमाने से अच्छा है, मैं मेंढकों के राजा को अपनी पीठ पर बिठ्लाऊ। अगर आप चाहें तो मेरी पीठ पर बैठ कर देख सकते हैं।”
मेंढकों के राजा जालपाद ने सांप की बात पर विश्वास कर लिया और झिझकते हुए सांप की पीठ पर बैठ गया। सांप ने उसे पूरा तालाब घुमाया और लाकर पुनः उसी स्थान पर छोड़ दिया। मेंढक (जालपाद) को सांप की गुदगुदी पीठ पर बैठने में बहुत आनंद आया और वह रोज सांप की पीठ पर बैठकर तालाब में घूमने का आनंद लेता और अपने सजातियों को सांप का भय दिखलाता।
एक दिन जब वह सांप की पीठ पर सवारी कर रहा था तब सर्प बहुत धीरे-धीरे चल रहा था। मेंढक (जालपाद) ने पूछा – “आज आप इतने धीरे-धीरे क्यूँ चल रहे हो? आज सवारी में मजा नहीं आ रहा है।”
सर्प बोला – “मित्र! मुझे कई दिनों से भोजन नहीं मिला है इसीलिए कमजोरी आ गई है और मुझसे चला नहीं जा रहा है।”
सर्प की बात सुनकर मेंढकों का राजा जालपाद बोला – “अरे मित्र! इतनी छोटी सी बात है, इस तालाब में हजारो मेंढक है जो तुम्हारा प्रिय आहार हैं। तुम चाहो तो इनको अपना आहार बना लिया करो।”
मंदविष सांप के मानो मन की हो गई वह तो यही चाहता था। अब वह प्रतिदिन बिना मेहनत किये कुछ मेंढकों को खा सकता था। इधर मूर्ख जालपाद यह भी नहीं समझ सका कि अपने क्षणिक आनंद के लिए वह अपने वंश का नाश करवा रहा है।
अब मेंढकों का राजा जालपाद प्रतिदिन सांप के पीठ पर बैठकर तालाब की सबारी करता और सांप तालाब में रहने वाले मेंढकों को खाकर अपना पेट भरता था।
एक दिन एक दूसरे सांप ने मेंढक को सांप की सवारी करते देखा तो उसे अच्छा नहीं लगा और कुछ देर बाद मंदविष के पास आकर बोला – “मित्र तुम यह प्रकृति विरुद्ध कार्य क्यूँ कर रहे हो? ये मेंढक तो हमारे भोजन हैं और तुम इन्हें अपनी पीठ बार बैठा कर सवारी करवा रहे हो?”
मंदविष बोला- “ये सारी बातें तो मैं भी जानता हूँ और अपने लिए उपयुक्त समय का इन्जार कर रहा हूँ जब इस तालाब में कोई भी मेंढक नहीं बचेगा।”
बहुत दिनों तक इसी प्रकार चलता रहा एक दिन ऐसा आया कि तालाब में जालपाद के परिवार को छोड़ कर कोई दूसरा मेंढक नहीं बचा। मंदविष सांप को भूख लगी और वो जालपाद से बोला – “अब इस तालाब में कोई मेंढक नहीं बचा है और मुझे बहुत भूख लग रही है।”
जालपाद बोला- “इसमें मैं क्या कर सकता हूँ। इस तालाब में मेरे सगे-संबंधियों को छोड़ कर तुम सारे मेंढकों को खा चुके हो। अब तुम अपने भोजन की व्यवस्था खुद करो।”
जालपाद की बात सुनकर मंदविष सांप बोला – “ठीक है मुझे तो बहुत भूख लग रही है मैं तुम्हारे परिवार को छोड़ देता हूँ पर मुझे अपनी भूख मिटाने के लिए तुम्हे खाना पड़ेगा।”
मंदविष सांप की बात सुनकर जालपाद के पैरो तले जमीन खिसक गई और उसने अपनी जान वचाने के लिए अपने सगे संबंधियों तक को खाने की अनुमति दे दी। देखते ही देखते सांप ने जालपाद के सभी रिश्तेदारों और परिवारों वालों को खा लिया। अब तालाब में मेंढकों में सिर्फ जलपाद बचा था।
मंदविष सांप जलपाद से बोला – “अब इस तालाब में तुम्हें छोड़कर कोई भी मेंढक नहीं बचा है और मुझे बहुत भूख लगी है अब तुम ही बतलाओ मैं क्या करूँ?”
मंदविष सांप की बात सुनकर जालपाद मेंढक डर गया और बोला – “मित्र! तुम्हारी मित्रता में मुझे अपने वंश और परिवार के लोगों को खो दिया है अब तुम कहीं और जाकर अपना भोजन देख लो।”
जालपाद की बात सुनकर मंदविष सांप बोला -“मित्र! तुम्हारा कहना मैं मान लूँगा। तुमने अपने स्वार्थ के कारण अपने जन्मजात दुश्मन को अपना मित्र बनाया और अपने सगे संबंधियों को मेरा भोजन बनवाया अब तुम अकेले इस दुनियां में रहकर क्या करोगे?”
इतना बोलकर सांप ने जालपाद मेंढ़क को भी मारकर अपना आहार बना लिया।
शिक्षा – जो व्यक्ति अपने क्षणिक लाभ के लिए अपने परिवार को दांव पर लगा देता है। उसका अंत भी बुरा ही होता है।

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