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- आजादी
प्रेम साधना मैं तुम्हारी माँ के बंधन में और नहीं रह सकती, मुझे अलग घर चाहिए, जहाँ मैं खुल के साँस ले सकूँ। पलक रवि को देखते ही ज़ोर से चिल्ला उठी। बात बस इतनी थी कि सुलभा जी ने रवि और पलक को पार्टी में जाता देख कर इतना भर कहा था कि वो रात दस बजे तक घर वापस आ जाए। बस पलक ने इसी बात को तूल दे दिया और दो दिन बाद ही उसने किरण के घर किटी में उसे मकान ढूंढने की बात भी कह दी। मुझे मम्मी जी की गुलामी में रहना पसंद नहीं है। पलक, तुम्हारी तरह एक दिन मैं भी यही सोच कर अपनी सास से अलग हो गई थी। किटी ख़तम होते ही किरण पलक से मुख़ातिब थी। तभी तो आप आज़ाद हो। पलक ने चहक कर कहा तो किरण का स्वर उदासी से भर गया, किरण पलक से दस वर्ष बड़ी थी। नहीं, बल्कि तभी से मैं गुलाम हो गई, जिसको मैं गुलामी समझ रही थी वास्तव मे आज़ादी तो वही थी। वो कैसे, पलक, जब मैं ससुराल में थी दरवाज़े पर कौन आया, मुझे मतलब नहीं था क्योंकि मैं वहाँ की बहू थी। घर में क्या चीज़ है क्या नहीं इससे भी मैं आज़ाद थी, दोनों बच्चे दादा-दादी से हिले थे। मुझे कहीं आने-जाने पर पाबंदी नहीं थी, पर कुछ नियमों के साथ, जो सही भी थे, पर जवानी के जोश में मैं अपने आगे कोई सीमा रेखा नहीं चाहती थी। मुझे ये भी नहीं पसंद था कि मेरा पति आफिस से आकर सीधा पहले माँ के पास जाए। तो!! फिर पलक की उत्सुकता बढ़ गई। मैंने दिनेश को हर तरह से मना कर अलग घर ले लिया और फिर मैं दरवाज़े की घंटीं, महरी, बच्चों, धोबी, दिनेश सबके वक्त की गुलाम हो गई। अपनी मरज़ी से मेरे आने-जाने पर भी रोक लग गई क्योंकि कभी बच्चों का होमवर्क कराना है, तो कभी उनकी तबीयत खराब है। हर जगह बच्चों को ले नहीं जा सकते। अकेले भी नहीं छोड़ सकते। तो मजबूरन पार्टियां भी छोड़नी पड़ती जबकि ससुराल में रहने पर ये सब बंदिश नहीं थीं। ऊपर से मकान का किराया और फालतू के खर्चे अलग, फिर दिनेश भी अब उतने खुश नहीं रहते। किरण की आँखें नम हो उठीं। फिर आप वापस क्यों नहीं चली गयीं। किस मुँह से वापस लौटती। इन्होंने एक बार मम्मी से कहा भी था, पर पापा ने ये कह कर साफ़ मना कर दिया कि एक बार हम लोगों ने बड़ी मुश्किल से अपने आप को संभाला है अब दूसरा झटका खाने की हिम्मत नहीं है, बेहतर है अब तुम वहीं रहो। ओह! पलक, घर से बाहर क़दम रखना बहुत आसान है। पर जब तक आप माँ-बाप के आश्रय में रहते हैं, आपको बाहर के थपेड़ों का तनिक भी अहसास नहीं होता। माँ-बाप के साथ बंदिश से ज़्यादा आज़ादी होती है, पर हमें वो पसंद नहीं होती। एक बार बाहर निकलने के बाद आपको पता चलता है कि आज़ादी के नाम पर ख़ुद अपने पाँव में जंज़ीरें डाल लीं। बड़ी होने के नाते तुमसे यही कहूंगी सोच-समझ कर ही ये क़दम उठाना। मन ही मन ये गणित दोहराते हुए पलक एक क्षण में निर्णय ले चुकी थी। उसे किरण जैसी गुलामी नहीं चाहिए। घर की ओर चलते बढ़ते कदमों के साथ-साथ ही वो मन ही मन बुदबुदा रही थी, कि घर पहुंचते ही सासू मां के पैर छूकर क्षमा मांग लूंगी और सदा उनके साथ ही रहूँगी। मां बाप को साथ नही रखा जाता, मां बाप के साथ रहना होता है। *****
- मेरी माँ
आकाश बाजपेयी मेरा नाम सुमन है। मेरी शादी एक बड़े घर में हुई है। मेरे पति विनीत की फैमिली का अच्छा बिज़नेस है। विनीत एकलौते बेटे हैं। सास-ससुर, मैं, और विनीत' हम चार लोगों का ही परिवार है। विनीत और पापा जी सारा बिज़नेस संभालते हैं, इसलिए उनके काम से वापस आने का कोई समय नहीं होता है। विनीत अब एक नया काम शुरू करने वाले हैं, जो एक नई जगह पर है। वहाँ पर हमारा एक फार्महाउस भी है, इसलिए हम दोनों कुछ दिन वहीं जाकर रहेंगे। फार्महाउस में समय बिताने के साथ विनीत अपना काम भी करते रहेंगे। सुबह जल्दी ही हम लोग फार्महाउस में पहुंच गए। फार्महाउस की देखरेख के लिए एक नौकर, रामू, था। वह वहीं पास के एक कमरे में रहता था। हम जैसे ही पहुँचे, दूर से रामू दौड़ता हुआ हमारी कार के पास आया। आकर उसने ही कार का दरवाजा खोला और नमस्ते मालकिन कहते हुए हँसते हुए बोला। विनीत ने कहा, यह रामू है, हमारे फार्म की देखभाल करता है। मैं अंदर जाकर बैठी। थोड़ी देर बाद विनीत अपने काम में बिजी हो गए। उन्होंने रामू से कहा कि मैडम को फार्म दिखा दो। रामू बोला, ठीक है साहब। वह मुझे फार्म दिखाने ले गया। फार्म में हम घूम रहे थे, तभी गेट के बाहर से एक लगभग 6-7 साल की लड़की ने रामू को आवाज लगाई, जो स्कूल से वापस जा रही थी। रामू बोला, मैडम, मैं आता हूँ। वह गेट पर खड़ा होकर उस लड़की से बात करने लगा। मेरी नजर पड़ी तो वह लड़की मेरी तरफ ही देखे जा रही थी। फिर रामू वापस आकर बोला, मैडम, आप आराम करिये, मैं आता हूँ। ऐसा बोलकर वह चला गया। अगले दिन सुबह फिर विनीत अपने काम से जल्दी चले गए। मैं सुबह सोकर उठी तो मुझे दरवाजे पर रामू दिखाई दिया। मैंने पूछा, क्या कर रहे हो यहाँ पर? उसने बोला, मैडम, अभी आया हूँ चाय लेकर। मैंने कहा, ठीक है, यहाँ टेबल पर रख कर चले जाओ। फिर मैं नहा कर किचन में गई, तो रामू वहीँ था, और अपना कुछ काम कर रहा था। फिर उसने मुझसे बातें करने की कोशिश की, लेकिन मैं उसकी बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं दे रही थी। यहाँ का पुराना नौकर था, इसलिए मैं उसकी बातें सुन भी रही थी। अगर ऐसा नहीं होता, तो शायद मैं उसे डांट देती। यहाँ आये हुए मुझे 2-3 दिन हो गए थे और मैंने नोटिस किया कि वह मुझसे बातें करने की कोशिश लगातार करता ही रहता था। एक दोपहर मैं कमरे में अकेली बैठी थी, तभी अचानक रामू कमरे में आता है और बोलता है, मैडम, मुझे कुछ पूछना है। मैंने कहा, क्या? उसने कहा, मैडम, आप बुरा मत मानना, पर क्या मैं आपकी एक फोटो ले सकता हूँ? मेरे मुँह से निकला, क्या? बाहर निकलो अभी कमरे से! रामू बोला, मैडम, आप गलत समझ रही हैं, मेरी बात तो सुनिए। मुझे अचानक गुस्सा आ गया, और मैंने कहा, बाहर निकलो, या अभी तुम्हारे साहब को फोन करूँ। इतना बड़ा घर, और मेरे लिए तो अनजान ही था। ऊपर से वह इस तरह की बातें कर रहा था। मुझे कुछ अजीब लगा। मैंने सोचा, शाम को विनीत आएंगे तो सबसे पहले उसकी छुट्टी करवा दूँगी। शाम को विनीत आए तो मैंने उन्हें सब बताया। विनीत मानने को तैयार ही नहीं थे। बोले, "यह कई सालों से है, उसकी एक बच्ची भी है। तुम कुछ गलत समझ रही हो।" उसकी बच्ची के बारे में मुझे पता नहीं था। मैंने कहा, "कई सालों से यहाँ कोई लड़की भी नहीं आई थी।" विनीत ने कहा, "रुको, अभी उसे बुलाकर बात करते हैं।" विनीत ने रामू को आवाज लगाई। रामू आया तो विनीत ने कहा, "क्या हुआ, रामू? तुम्हारी मैडम कुछ कंप्लेंट कर रही हैं।" रामू ने कहा, "साहब, मैंने सिर्फ फोटो लेने को कहा था।" विनीत ने पूछा, "क्यों चाहिए तुम्हें फोटो?" रामू ने कहा, "साहब, आप तो जानते हैं, मेरी 7 साल की एक बच्ची है। उसकी माँ उसके पैदा होते ही चल बसी थी, और जब वह 2 साल की थी, तब हमारे घर में आग लग गई थी। भगवान की कृपा से हम तो बच गए, लेकिन उसकी माँ की सारी निशानियाँ खत्म हो गईं।" "बिना माँ की बच्ची को संभालना बड़ा मुश्किल होता है, साहब। मैडम, उस दिन जब मैं आपको फार्म दिखा रहा था, तब स्कूल से घर वापस जाते वक्त उसने हमें देख लिया। मेरा घर यहीं थोड़ी दूर पर है, उसकी दादी उसे संभालती है। हमेशा मुझसे पूछती रहती थी कि पापा, मेरी माँ कैसी दिखती थी, कैसी चलती थी, कैसे बातें करती थी। मैं उसे कहता था कि वह बहुत सुन्दर थी। यहाँ गाँव में उसके जैसा कोई नहीं है। जब उसने आपको देखा, तो उस दिन उसने यही पूछा कि पापा, मम्मी ऐसी थी? मैंने कहा, हाँ, ऐसी ही थी। तब से जिद पर अड़ गई कि मुझे मैडम से मिलना है। वह मेरी मम्मी जैसी है।" "वह अब स्कूल नहीं जा रही। इसीलिए मैंने आपसे बात करने की कोशिश की, ताकि आपको यह सब बता सकूँ। लेकिन आपका स्वभाव अलग है। फिर उसने आज सुबह से कुछ खाया नहीं। बोल रही है, 'पापा, फोटो लाना, मैं अपने स्कूल वाले दोस्तों को दिखाऊंगी कि मेरी मम्मी ऐसी थी।' तो मैंने कहा कि मैं तुझे फोटो लेकर दिखा दूँगा। वह बोली, पक्के से लाना।" इतना कहकर रामू फूट-फूट कर रोने लगा। रोते हुए ही बोला, "बच्ची है, मैडम, उसका नसीब ही ऐसा है। पैदा होते ही माँ मर गई और बाप मुझ जैसा मिला। मैडम, हम साहब से कुछ भी बोल देते थे। साहब का कभी मुझे डर नहीं लगा। यही आदत मुझे पड़ गई, और मैंने आपको भी अपना समझ कर बोल दिया। आप मुझे बताने देतीं, तो मैं आपको भी बता देता।" रामू की बातें सुनकर मुझे अपने आप पर गुस्सा आया। विनीत ने रामू को चुप कराया और कहा कि, "बच्ची को वहाँ क्यों रखते हो? उसे यहीं रखो। इतना बड़ा फार्महाउस है।" अगले दिन सुबह रामू अपनी बच्ची को लेकर आया। वह बच्ची को दूर से ही मुझे दिखा रहा था, शायद अब भी झिझक रहा था। मैं खुद बच्ची के पास गई और कहा, "अरे, हम यहाँ 4 दिन से हैं, और आप अब आ रही हो?" मेरे ऐसा कहने पर बच्ची के चेहरे पर जो मुस्कान आयी, वह अनमोल थी। वह मुझसे लिपट गई। जब तक मैं वहाँ रही, मैं उसके साथ खेलती और हँसती रही। एक अलग खुशी मिल रही थी। अब वह एक वजह बन गई थी, मेरे वहाँ बार-बार जाने की! ******
- असली मानवता
डॉ. कृष्णकांत श्रीवास्तव अमेरिका के एक रेस्तरां में वेट्रेस ने एक आदमी और उसकी पत्नी को लंच का मेनू दिया और मेनू देखने से पहले, उन्होंने उसे दो सबसे सस्ता डिशेस देने के लिए कहा क्योंकि उनके पास इतने पैसे नहीं थे। कई महीनों से वेतन नहीं मिला था। जिस वजह से ये मुश्किल दौर से गुजर रहे थे। वेट्रेस सारा ने ज़्यादा देर तक नहीं सोचा। उसने उन्हें दो डिशेस की सिफारिश की और वो बिना किसी संकोच के सहमत हुए कि वो सबसे सस्ते थे। वह दोनों आर्डर ले आई और उन्होंने भूख से जल्दी खा लिया, और जाने से पहले उन्होंने वेट्रेस से बिल के लिए पूछा। वह अपने बिलिंग वॉलेट में कागज़ का एक टुकड़ा लेकर उनके पास वापस आई जिसमें लिखा था: "मैंने आपके हालात को देखते हुए अपने व्यक्तिगत खाते से आपके बिल का भुगतान किया है। ये मेरी तरफ से गिफ्ट के रूप में सौ डॉलर हैं और कम से कम मैं आपके लिए यही कर सकती हूं। आने के लिए धन्यवाद। सारा के लिए आश्चर्यजनक बात यह थी कि वह अपनी कठिन वित्तीय परिस्थितियों के बावजूद कपल के लंच के बिल का भुगतान करके बेहद खुश थी। हालांकि वह लगभग एक साल से ऑटोमेटिक वाशिंग मशीन खरीदने के लिए पैसे बचा रही थी क्योंकि उसे पुरानी वाशिंग मशीन से कपड़े धोने में मुश्किल थी। उसकी दोस्त को इस मामले के बारे में पता चला तो सारा की दोस्त ने उसे बहुत डांटा। क्योंकि उसने खुद को और अपने बच्चे की जरूरतों को पीछे डालकर यह पैसा बचाया था। उसे दूसरों की मदद करने से अधिक अपने लिए एक वाशिंग मशीन खरीदने की जरूरत थी। इस बीच उसे अपनी माँ का फोन आया जोर से कहा: "साराह तुमने क्या किया? " एक असहनीय सदमे के डर से उसने धीमी, कांपती आवाज़ में जवाब दिया: "मैंने कुछ नहीं किया। क्या हो गया ? उसकी माँ ने जवाब दिया: "सोशल मीडिया आपकी तारीफ़ और आपके व्यवहार की प्रशंसा करने में ज़मीन आसमान एक कर रहा है। उस आदमी और उसकी पत्नी ने फेसबुक पर आपका संदेश पोस्ट किया जब आपने उनकी ओर से बिल का भुगतान किया और कई और लोगों ने इसे शेयर किया। मुझे आप पर फ़ख़्र है। "... उसने अपनी मां के साथ अपनी बातचीत मुश्किल से ख़त्म की थी कि एक स्कूल के दोस्त ने उसे फोन किया और कहा कि उसका मैसेज सभी डिजिटल सोशल प्लेटफॉर्म पर वायरल हो गया है। जैसे ही सारा ने अपना फेसबुक अकाउंट खोला, उसे टीवी प्रोडूसर्स और प्रेस रिपोर्टर्स के सैकड़ों मैसेज मिले, जो उसके ख़ास कदम के बारे में बात करने के लिए उनसे मिलने के लिए कह रहे थे। अगले दिन, सारा, सबसे लोकप्रिय और सबसे अधिक देखे जाने वाले अमेरिकी टीवी शो में से एक में दिखाई दी। प्रस्तुतकर्ता ने उसे एक बहुत ही आलीशान वाशिंग मशीन, एक आधुनिक टेलीविजन सेट और दस हजार डॉलर दिए। इस इलेक्ट्रॉनिक्स कंपनी से पांच हजार डॉलर का शॉपिंग वाउचर मिला। यहाँ तक कि उसके महान मानवीय व्यवहार की सराहना में हासिल होनेवाली रक़म $100,000 से ज़्यादा तक पहुंच गई। सौ डॉलर से कम कीमत वाले दो डिशेस ने उसकी जिंदगी बदल दी। उदारता ये नहीं है कि जिस चीज़ की आपको ज़रूरत नहीं है वो किसी को दे दें, बल्कि वह उदारता ये है कि जिस चीज़ की आपको ज़रूरत है वो किसी और ज़रूरतमंद को दे दें। असल ग़रीबी मानवता और दृष्टिकोण की ग़रीबी है। *******
- दूरी
सुनील त्रिपाठी यूं तो वह दोनों बहनें हैं और खुशकिस्मती से दोनों सगे भाइयों से ब्याही गई थी। मगर शादी के बाद घर में दोनों देवरानी-जेठानी के रुतबे की वजह से दोनों का अहम बीच में आने लगा था। दोनों एक-दूसरे को नीचा दिखाने से कभी नहीं चूकती थी। आए दिन की नौकझौक छोटी-छोटी से बडी लड़ाइयों में तब्दील होते हुए समय नहीं लेती। दोनों की वजह से कलह इतनी बढ़ गयी कि बड़े भाई को ना चाहते हुए भी छोटे के लिए अलग मकान खरीदना पड़ा। बड़े भाई को डर सता रहा था कि कहीं रोज-रोज की कलह से कोई बड़ा हादसा ना हो जाए। उसपर माता-पिता की मृत्यु के बाद घर का बड़ा था वो और उसका छोटे भाई उसके लिए बेटे जैसा। वहीं उसकी पत्नी उसकी बेटी समान बहु। मगर यदि वह उन दोनों का पक्ष लेता तो पत्नी नाराज हो जाती। वहीं पत्नी का पक्ष लेने पर छोटा भाई और उसकी पत्नी। उन्हें ही बड़े होकर पक्षपात करने का आरोपी बना देते। आखिरकार समस्या के निवारण के लिए उसने छोटे भाई को एक मकान खरीदकर दे दिया। मगर पत्नी को यही कहा कि छोटे ने अपनी कमाई और कुछ लोन उठाकर मकान लिया है। मुझे तो बड़ा होने की वजह से सही ग़लत के चलते बस वहां खड़ा कर दिया था। उसकी पत्नी ने उससे पूछा, “अच्छा, वैसे कहाँ लिया मकान उन दोनों ने?” बहूत दूर है उनका मकान, इतना कहते हुए उसकी आवाज भर्रा गई और आगे वह कुछ नहीं कह पाया। अगले कुछ दिनों में नाजाने कैसे घूमते फिरते उसकी पत्नी ने पता लगवा लिया छोटे देवर देवरानी के मकान का। उसी शाम पति के घर आते ही वह उस पर बरसते हुई बोली, तुम तो कहते थे बहुत दूर लिया है मकान और ये दो गली छोड़कर ही खरीद लिया मकान, अपने ही ब्लाक में। तुम मना नहीं कर सकते थे जब बड़ा बनना था तो दूर किसी और दूसरी कालोनी में मकान नहीं दिलवा सकते थे। यही हमारी छाती पर मूंग दलवानी थी। वह लगातार जाने क्या अनाप-शनाप बके जा रही थी। वहीं बड़ा भाई चुप था क्योंकि उसे तो अपने ही ब्लाक की दो गली की दूरी मीलों जैसे दूर लग रही थी। अब उसे सुबह उठने पर या शाम को फैक्ट्री से लौटकर आने पर अपने बेटे जैसे छोटे भाई का मासूम चेहरा देखने को भी नहीं मिलेगा। उसके दिल से कोई पूछे ये दूरी.....कितनी दूर है। *****
- सज़ा
निरंजन धुलेकर अब बेटे के पास ढेरों ऐसे काम थे जिनका संबंध घर से तो बिल्कुल भी नही था। पढ़ाई के अलावा बहुत सारी बातें उसके लिए बेहद ज़रूरी हो चुकीं थीं। घर से बाहर जाने की उसे इतनी जल्दी रहती कि घर का काम करना तो दूर उसे काम को सुनने का भी वक़्त नही था। कुछ कहने पर वो उसे अनसुना करता बाहर निकल जाता। घर के किसी काम से बाहर गया भी तो कोई गारंटी नहीं कि उसे वो याद रहेगा। लौटने पर बोलता कि सॉरी भूल गया, और बात ख़त्म। न जाने का वक़्त न आने का समय, किसी के लिए कोई ज़िम्मेदारी ही फील नही होती थी उसे। मेरा बहुत मन करता है कि पास बैठे हाल चाल पूछे अपनी सुनाएँ मेरी सलाह ले, पर वो ऐसा नहीं करता है इसलिए अब बेहद अकेला महसूस करने लगा हूँ। आज भी बेटा बहुत लेट आया और मेरे घर का दरवाजा खोलने के बाद बिना मेरी ओर देखे अपने कमरे में जा कर ज़ोर से दरवाजा बंद कर लिया। रात के डेढ़ बजे हैं, डैड की दशकों पहले लिखी डायरी हाथ लग गयी थी वही पढ़ रहा हूँ, लिखा है .. "आज बेटा फिर देर से लौटा। उसे पता है कि मैं ख़ुश नही होता उसके देर रात घर लौटने से। दरवाज़ा खोला पर वो रुका नही, उड़ती सी नज़र डाल कर अपने कमरे में गया और दरवाज़ा धड़ाम से बन्द कर लिया। लगा जैसे मेरे मुँह पर ही दे मारा हो। उसके इस व्यवहार ने मुझे तोड कर रख दिया बेहद पीड़ा हुई है, आज बहुत अपमानित ... ." पन्ने पर आगे के शब्द अस्पष्ट से थे शायद उन पर गिरी बूँदों से धुल कर कागज़ में समा गए होंगे। उन्ही धुँधले अक्षरों पर आज मेरी ताज़ी गरम बूंदें गिर कर जैसे सॉरी बोल रहीं थीं पर आज क्षमा करता कौन? मुझे उस वक़्त डैड के साथ अपने किये की सजा आज मेरा बेटा दे रहा था। *****
- सफल जन्म
स्नेहा सिंह "दादी मां, हर किसी के जन्म के पीछे विधाता कोई न कोई ध्येय निश्चित किए रहता है? क्या यह बात सच है?" किशोर वया विधि अपनी दादी मीना की गोद में सिर रखे हुए आकाश में तारों को देखते हुए बोली। "हां, बेटा हर आदमी के जन्म के पीछे विधाता का एक निश्चित ध्येय होता है पर अपने जन्म का ध्येय बहुत कम लोग ही पूरा करने में सफल हो पाते हैं।" विधि के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए मीना ने कहा। "ऐसा क्यों दादी मां? हर किसी का ध्येय क्यों नहीं पूरा होता? मम्मी-पापा का तो पूरा हुआ है न? यूएसए में सेट हो गए हैं?" "नहीं बेटा। एक सफल कैरियर से ही जीवन का ध्येय पूरा नहीं हो जाता है। मनुष्य मॉं के शरीर से भले ही एक ही बार पैदा होता है पर इस दुनिया में जन्म लेने के साथ ही समय-समय पर उसके दूसरे तमाम जन्म होते हैं, जैसे- जिम्मेदारियां, चिंताएं, सपने के साथ रोज़ाना नित नए विचार और संबंध तक जन्म लेते हैं। इन सब के बीच संतुलन बनाने में आदमी को कभी पता ही नहीं चल पिता कि उसका जन्म क्यों हुआ है?" "इतने अधिक जन्म और वो भी एक ही जन्म में!" नन्हीं विधि को दादी की गूढ़ बातें भला कैसे समझ में आती? जिम्मेदारियों व चिंता के बारे में तो उसे कुछ पता नहीं था पर वह सपनों के बारे में थोड़ा-थोड़ा समझने लगी थी क्योंकि अब वह स्कूल की पढ़ाई पूरी कर कालेज जाने वाली थी। अत: वह बोली "दादी, आपने भी तो कोई सपना देखा होगा न?" विधि की बात सुनकर मीना अतीत में खो गयी। बोली "मैं अपनी बात करूं बेटा तो जब मेरा जन्म हुआ तो बेटी पैदा हुई है यह जानकर घर में सभी का मुंह लटक गया। पहला बच्चा, वह भी बेटी! किसी के चेहरे पर मेरे जन्म की कोई खुशी नहीं थी। यह वो दौर था जब दहेज के डर से बेटियों को गर्भ में ही मार दिया जाता था, पर मैं शायद थोड़ी किस्मत वाली थी....मेरे जन्म के कुछ सालों बाद मेरे भाई का जन्म हुआ। भाई के जन्म के साथ बड़ी बहन के रूप में मेरा एक और जन्म हुआ। बड़ी बहन होने की वजह से मुझे अपने छोटे भाई को मां की तरह ही संभालना पड़ा, जिससे मुझमें सोचने-विचारने की क्षमता विकसित हुई। मैं जैसे-जैसे बड़ी हुई, विचारों और सपनों ने जन्म लेना शुरू किया था पर इससे पहले कि मेरे सपने पूरे हो पाते, मेरी शादी कर दी गयी और फिर एक पत्नी के रूप में मेरा एक और जन्म हुआ।
- ईश्वर के प्रति विद्रोह
मुकेश ‘नादान’ नरेंद्र का चरित्र अपनी माँ से बहुत प्रभावित था। वे एक धर्मपरायण महिला थीं। मगर इस घोर विपत्ति में उनका विश्वास भी डोल गया। उन्होंने नरेंद्र को ईश्वर-उपासना करते देखकर डाँट दिया कि वह पूजा न करे। माँ की बात सुनकर नरेंद्र सोच में पड़ गया, “क्या वास्तव में भगवान् हैं? यदि हैं, तो वह मेरी प्रार्थना क्यों नहीं सुनते? उसके मन में ईश्वर के प्रति विद्रोह जाग उठा। नरेंद्र अपने मनोभाव दूसरों के सामने व्यक्त करने में तनिक भी नहीं हिचकिचाते थे। उन्होंने ईश्वर के प्रति अपने विद्रोहात्मक उदगार भी परिचितों के समक्ष प्रकट कर दिए, परिणाम स्वरूप नरेंद्र की चारों ओर निंदा होने लगी। लेकिन नरेंद्र को दूसरों द्वारा की गई निंदा-प्रशंसा से कोई सरोकार नहीं था। सर्दी, गरमी, बरसात मौसम-पर-मौसम बीत रहे थे, लेकिन नरेंद्र को कहीं काम नहीं मिला। एक दिन रामकृष्ण कलकत्ता आए। नरेंद्र भी उनके दर्शन करने गया। रामकृष्ण से आग्रहपूर्वक दक्षिणेश्वर ले आए। वहाँ रामकृष्ण नरेंद्र व अपने अन्य भक्तों के साथ कमरे में बैठ गए। रामकृष्ण भावावेश में विलाप करने लगे। उस समय की दशा का वर्णन नरेंद्र ने अपने शब्दों में इस प्रकार किया है, “मैं अन्य लोगों व ठाकुरजी (श्रीरामकृष्ण) के साथ एक कमरे में बैठा था। अचानक ठाकुर को भावावेश हुआ, देखते-ही-देखते वे मेरे निकट आ गए और मुझे प्रेम से पकड़कर आँसू बहाते हुए गीत गाने लगे। जिसका सार था, “बात कहने में डरता हूँ, न करने में भी डरता हूँ। मेरे मन में संदेह होता है कि शायद तुम्हें खो दूँ। अंतर की प्रबल भावराशि को मैंने अब तक रोक रखा था। अब उसका वेग मैं सँभाल नहीं पा रहा। ठाकुर की तरह मेरी आँखों से भी अश्रुधारा बह निकली। हमारे इस आचरण से वहाँ बैठे लोग अवाव्क्त रह गए।” भावनाओं के वेग से बाहर निकलने पर ठाकुर ने हँसते हुए कहा, “हम दोनों में वैसा कुछ हो गया है।” जब सब लोग चले गए, तो उन्होंने मुझसे कहा, “मुझे पता है, तू माँ के काम से संसार में आया है। संसार में तू सदा नहीं रहेगा। इसलिए जब तक मैं हूँ, मेरे लिए तब तक तू रह।” इतना कहकर ठाकुर पुनः रोने लगे। श्रीरामकृष्ण परमहंस की बात सुनकर नरेंद्र कलकत्ता लौट आए। यह तो नरेंद्र को भी अनुभव हेने लगा था कि उनका जन्म साधारण मनुष्यों की भाँति धनोपार्जन के लिए नहीं हुआ है। *****
- निश्चिन्ती
विकास यादव इनकी शुरू से एक आदत है। सोते समय या तो मेरा हाथ पकड़ लेंगे या मेरे गाल पर हाथ रख कर सोएंगे, कुछ नही तो साड़ी का पल्लू ही हाथ मे ले कर सो जाएंगे। एक बार मज़ाक में पूछा तो बोले कि बस मुझे अच्छा लगता है। जैसे कोई छोटा बच्चा माँ का आँचल पकड़ कर सेफ महसूस करता है ठीक वैसे ही पर इनका माजरा कुछ और ही है। आज दोनों कामवालियां गायब, कुक भी गायब, किसी की डेथ हो गयी इनकी बिरादरी में सो वहीं गयीं इकट्ठी, ये भी रात नौ बजे लौटे। काम निपटाते मैं बेहद थक कर आ लेटी। आज इनका हाथ मेरे गालों पर नही मेरे बालों में घूम रहा था जैसे कुछ खोज रहा हो। मुझे सब पता है ख़ुद की परेशानियां भूल इन्हें मेरी चिंता हो रही है। मुँह से कुछ बोलेंगे नही बस ये स्पर्श ही अहसास दिला जाते हैं। मैं इस तरह चुपचाप लेटी हुई इन्हें बिल्कुल अच्छी नही लगती। हाथ फेरते हुए पूछ लिया, "परेशान हो न थक गई न, कुछ कहना है क्या सोच रही हो, कोई प्रॉब्लम, कुछ चाहिए?" बस, इनका इधर ये पूछना और उधर मैं सब भूल जाती हूँ कि क्या सोच रही थी, क्या काम बाकी था, क्या दिमाग में चल रहा था, सब गायब हो जाता है। इनको जवाब देने के लिए याद करने लगती हूँ और फिर से चुप हो जाती हूँ और इन्हें मेरी चुप्पी से उलझन होती है और मुझे इनके सवाल न करने से। मैं जब इनका हाथ अपने गालों पर रखती हूँ तब जा कर इन्हें तसल्ली होती है कि मैं निश्चिन्त हूँ। पर सच तो ये है कि मुझे भी तभी नींद आती है जब मुझे ये तसल्ली हो जाती है कि ये मेरी तरफ से एकदम निश्चिन्त हैं। *****
- चैन से जीने दो
उर्मिला तिवारी "तुम बिन मैं कुछ नहीं, तुम्हारा साथ हर मुश्किल को पार करने के लिए काफी है। तुम हो, तो मैं हूँ, वरना कुछ भी नहीं।" पढ़ते पढ़ते शारदा जी ने कहा, "आपने वाकई बहुत अच्छा लिखा है" सुनकर दीपक जी बस मुस्कुरा कर रह गए। यह हैं दीपक जी और उनकी पत्नी शारदा जी। कभी दोनों सरकारी नौकरी में थे, पर आज दोनों रिटायर हो चुके हैं और अपने बड़े से घर में दोनों अकेले रहते हैं। यह घर उन्होंने अपने परिवार के लिए बनाया था। उनके परिवार में तीन बेटियां, दो बेटे थे। धीरे-धीरे बच्चे बड़े हुए तो पढ़ाई पूरी होने के बाद एक-एक करके सब का विवाह कर दिया। बड़े बेटे की अमेरिका में नौकरी लगी तो वह अपने परिवार सहित वहां चला गया। और छोटा बेटा मुंबई में अपने परिवार के साथ शिफ्ट हो गया। बेटियों का ससुराल भी दूसरे शहर में था इसलिए दोनों यहां अकेले रहते थे। बड़े बेटे ने अपने साथ पढ़ने वाली अंजलि से प्रेम विवाह किया था, पर अंजलि इस परिवार में कभी भी एडजस्ट नहीं कर पाई। उसे ऐसा लगता जैसे उसे बंदिशों में रखा जाता है। जिस कारण से आए दिन घर में झगड़े होने लगे। जिस कारण उनके बड़े बेटे ने बाहर नौकरी करना ही ठीक समझा और अमेरिका में जॉब प्लेसमेंट हुई तो उस नौकरी को उसने ना नहीं कहा। अब वह दो-तीन साल में एक बार मिलने आ जाता। वहीं दीपक जी और शारदा जी ने अपने छोटे बेटे की शादी अपनी मर्जी से करवाई। यह सोच कर कि प्रेम विवाह सफल नहीं होते, लेकिन वहाँ भी किस्मत ने साथ नहीं दिया। छोटे बेटे की पत्नी अंजू को ऐसा लगता था कि सारी सेवा मैं ही क्यों करूं? घर की बड़ी बहू भी तो है! इसलिए आए दिन वह भी घर में झगड़ा करने लगी, जिस कारण से छोटा बेटा भी मुंबई शिफ्ट हो गया। अब दीपक जी और शारदा जी अकेले रह गए। कुछ दिनों बाद शारदा जी की तबीयत बहुत ज्यादा बिगड़ गई। इस कारण से उनका पूरा परिवार वहां मौजूद था। तो दीपक जी ने अपने बेटों से कहा, "तुम्हारी माँ तुम्हें दिन रात याद करती रहती है। तुम लोग यहीं रुक जाओ। यही रह कर कोई नौकरी कर लो।" सुनकर दोनों बेटे एक दूसरे की शक्ल देखने लगे और उनकी पत्नियों का मुंह बन गया। अंजलि ने कहा, "हम इस तरह की किसी बंदिश में नहीं रहना चाहते। हमें खुलकर जीने की आदत है।" "मैं अकेली ही सेवा करने के लिए थोड़ी ना हूं। भाभी तो अपने पति के साथ अमेरिका चली जाएगी। मैं अकेली ही यह क्या खटती रहूंगी।" छोटी बहू ने भी अपना राग अलापा। "यहाँ कौन सी बंदिश है। तुम तुम्हारे मन मुताबिक कपड़े पहन सकती हो, घूम सकती हो, किसी चीज की मनाही तो नहीं है।" दीपक जी ने समझाना चाहा। "हमसे आप लोगों की कोई सेवा नहीं होती। आप बड़ी बहू से पूछ लो" छोटी बहू ने कहा। इस पर बड़ी बहू का मुंह बन गया और वह रूठ कर के अपने पीहर चली गई। इस बात पर अच्छी खासी बहस हो गई। दोनों बेटे कहने लगे कि हमारी जिंदगी हैं हमें जीने दीजिए। क्यों हमें परेशान कर रहे हैं। आप लोगों ने तो अपनी जिंदगी जी ली, अब हमारी जिंदगी में क्यों दखलअंदाजी कर रहे हो। वैसे भी हमें पाल पोस कर कोई एहसान नहीं किया आपने। ये आपका फर्ज था, वही निभाया है। आपको चाहिए तो, और पैसों की जरूरत हो तो, हम वह देने को तैयार हैं पर हम यहां नहीं रह सकते। दोनों की बातें सुनकर दीपक जी मौन हो गए अपने ही खून की इस तरह की चल रही जुबान को देखकर वो हैरान रह गए थे। दूसरे दिन दोनों बेटे वहां से रवाना हो गए। बेटियां जरूर थोड़े दिन रुकी। हालांकि बेटियां हर दो-तीन महीने में आकर मिल जरूर जाती। पर फिर भी अकेलापन तो था ही। इस इस कारण धीरे-धीरे शारदा जी की तबियत खराब रहने लगी। फिर एक दिन दीपक जी ने फैसला किया और शारदा जी से कहा, "बच्चों को हमारी जरूरत नहीं। वह अपनी जिंदगी जीना चाहते हैं तो उन्हें जीने दो। हम अपनी जिंदगी अपने आप जिएंगे। हमें अपनी जो इच्छाएं अपनी जिम्मेदारियों को पूरी करते हुए पूरी नहीं कर पाये, उन्हें अब हम पूरा करेंगे। बस इसमें मुझे तुम्हारा साथ चाहिए।" शारदा जी ने मुस्कुराकर हां कहा। शारदा जी और दीपक जी को मूवी देखने का बहुत शौक था, किंतु जिम्मेदारियों को चलते वे दोनों अपनी इच्छा मार लेते थे। पर आज सत्तर साल की उम्र में दीपक जी ने कार चलाना सीखी और अपनी नई कार में शारदा जी को बिठाकर मूवी देखने गए। जब उनके बेटों को पता चला कि पापा ने नई कार खरीद ली तो उन लोगों ने कहा, "पापा क्यों बेवजह पैसे खर्च कर रहे हो? इस उम्र में कहां गाड़ी का शौक चढ़ा है आपको? क्या यह सब शोभा देता है?" "बेटा, तुम लोगों की पढ़ाई लिखाई और परवरिश में बहुत पैसा खर्च कर दिया पर माफ करना उसका तो कोई रिटर्न भी नहीं है। पर चिंता मत करो। वह हम तुमसे मांग नहीं रहे। रही बात इस उम्र में नए शौक की, तो शौक तो पहले से ही था, पर हर बार हम अपनी इच्छाओं को दबा दिया करते थे, क्योकि पहले हमें तुम नजर आते थे। और आखिरी और जरूरी बात। यह हमारी जिंदगी है, हमें चैन से जीने दो। बहुत इच्छाएँ मार ली अब तक, अब वक्त है तो उसे जीने दो" दोनों बेटों की उसके आगे कुछ कहने की हिम्मत भी ना हुई। ******
- ममता
अभिलाषा कक्कड़ पंडित बृजमोहन जैसे ही नहा कर आये तो स्वयं बहुत ही को असहज सा महसूस करने लगे। पत्नी मंगला ने पूछा कि क्या हुआ तो कहने लगे कि कुछ अच्छा नहीं लग रहा, जी बहुत घबरा रहा है। तो आज की सारी पूजा कैंसल कर दीजिए। माना कि शादियों का समय चल रहा है लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि आप एक दिन में दो-दो शादियों करवायें मंगला समझाने के इरादे से बोली। अरी पगली हमारे लिए भी यही वक़्त तो है चार पैसे कमाने का बेटियाँ शादी के लायक़ हो रही हैं। बहुत जल्दी अब उनके हाथ भी पीले करने हैं। यह कहते पंडित जी तकिये पर गिर गये। पति की हालत देख मंगला ज़ोर ज़ोर से रतन और रेशम को बुलाने लगी। दोनों भाग कर आई, रतन पिता की गिरती हालत देख पड़ोसी को गाड़ी में ले जाने के लिए बुला ले आई। अस्पताल जाते ही डाक्टर ने बताया कि इन्हें दिल का दौरा पड़ा और देखते ही देखते एक ओर आघात ने पंडित जी के शरीर का आधा हिस्सा मार दिया। परिवार पर अचानक से संकटों का पहाड़ टूट पड़ा। घर का मुखिया और एक मात्र आमदनी का सहारा, बीमारी भी ऐसी कि चार दिनों में जाने वाली नहीं। पंडित जी की दो बेटियाँ रतन और रेशम दोनों ही बहुत संस्कारी रूप और गुणों से सम्पन्न थी। माँ को घर चलाने में कई कामों में संघर्ष करते देख रतन जो कि बड़ी बेटी उसने अपने कालेज की आख़िरी पढ़ाई घर में बैठकर ही पूरी करने का फ़ैसला लिया और ट्यूशन चलाकर माँ की मदद करने लगी। धीरे-धीरे चरमराती हुईं आर्थिक स्थिति नियन्त्रण में आने लगी। फिर एक दिन ख़बर सुनकर पंडित जी के एक बहुत ही पुराने मित्र पंडित सुबोध कांत उनसे मिलने आये। मित्र की ऐसी हालत देखकर उनका चित दुख से भर गया। पैसे से परिवार की मदद कर सके ऐसी उनकी माली हालत ना थी फिर भी मन में एक विचार लेकर वहाँ से निकले कि उनसे जितना बन पड़ेगा वो अपने मित्र के परिवार की अवश्य मदद करेंगे। फिर एक दिन सुबोधकांत बड़ी बेटी रतन के विवाह हेतु एक प्रस्ताव लेकर आयें। बहुत ही उच्च कोटि के विचारों वाले लोग हैं, दहेज धूमधाम से शादी खर्चा सामने बिठाकर लड़की देखना इन सबसे कोसो मील दूर उनकी बस हाँ है। ऐसा सुनते ही मंगला की आँखें चमक गई और बोली लड़का क्या करता है? सुबोध कांत - लड़का हरिप्रसाद पेशे से वकील हैं अच्छी ख़ासी उसकी वकालत चल रही है। लड़का बहुत ही नेक और उदार दिल का इन्सान है। ऐसा सब कहते हैं। बस छोटी सी कमी है दिखने में वो बहुत सामान्य है। रतन बिटिया जैसा सुन्दर नहीं है। सोच लो अच्छे से आपका परिवार और परवरिश की बात सुनकर उनकी तो हाँ है पाँच सात लोग लेकर आयेंगे और यही घर में मैं ही ब्याह करवा दूँगा। मंगला - लड़कों की शक्ल सूरत नहीं कामकाज और घर परिवार देखा जाता है क्यूँ जी आप क्या कहते हैं? बिस्तर पर लेटे पति की तरफ़ देखकर बोली पति ने भी हाँ में सिर हिला दिया। तो ठीक है हमारी भी हाँ है। रतन भी सब सुन रही थी। जानती थी माँ ने जो फ़ैसला ले लिया उससे पीछे हटने वाली नहीं और घर के हालात भी यही कहते हैं कि चुपचाप जो हो रहा है उसे स्वीकार करो। ब्याह का दिन तय हुआ और एक छोटी सी बारात पंडित जी के द्वार निश्चित दिन पर आ पहुँची। दुल्हन बनी रतन को जब बाहर लाया गया तो वकील साहब देखते ही रह गये। शक्ल सूरत में वो रतन के आसपास भी नहीं थे। श्यामल रंग मोटी चपटी नाक आँखों पर मोटा चश्मा, देखते ही उन्हें फेरे लेने से पहले रतन से बात करना ज़रूरी लगा। दोनों को एक कमरे में बिठाया गया। वकील साहब ने कहा मैं नहीं चाहता कि तुम्हें बाद में पछतावा हो कि तुम्हारे साथ धोखा हुआ है। मैं दिखने में तुमसे काफ़ी कम हूँ। तुम चाहो तो अपना फ़ैसला बदल सकती हो मुझे बिलकुल बुरा नहीं लगेगा। रतन को वकील साहब की यह पहली सादगी पसन्द आई और उसने कहा कि मैं दिल से इस शादी के लिए तैयार हूँ आप तनिक भी चिन्ता ना करें। पूरे रस्मों रिवाज के साथ रतन की विदाई हुई और पति देव के घर में कुछ ही देर में पहुँच गई। सुबह रतन की जब नींद खुली तो सुबह के दस बज चुके थे। घड़ी देख कर रतन झटके से उठी और जल्दी से तैयार होकर रसोई में सासु माँ के पास चली गई। उनके पाँव छूने के लिए झुकी तो सास ने दिल से लगा लिया। और जल्दी से बहू के लिए चाय बनाकर ले आई और बातें करने लगी। हरिप्रसाद हमारी एकमात्र औलाद है। शादी के दस साल तक हम बच्चे के लिए तरसते रहे। ना जाने कितने तीर्थ स्थानों मंदिरों में जाकर मन्नतों के बाद ईश्वर ने हमारी पुकार सुनी और हमें माता-पिता बनने का सुख मिला। ईश्वर की ही देन हैं। हरिप्रसाद और जैसे उसी का ही रूप हैं। दिल का बहुत ही साफ़ और नेक दिल इन्सान है। इन्सान तो क्या एक छोटे से जानवर का भी दुख नहीं देख सकता। ह्रदय इसका प्रेम से भरा हुआ है। सबकी मदद करता है। किसी को निराश नहीं करता। इस जन्म का तू मुझे नहीं पता लेकिन पिछले जन्म में ज़रूर अच्छे करम किये होगे जो हमें हरिप्रसाद जैसा पुत्र मिला। वो जल्दी से बेटी अपनी मन की बात नहीं कहता तू अब उसकी जीवनसंगिनी है अब तुझे ही उसे समझना होगा इन बातों के साथ घटों सास बहू बैठी बतियाती रही। अगले दिन माँ ने बहू बेटा को मंदिर जाने के लिए भेजा। रतन बहुत अच्छे से तैयार हुई। पति के साथ उसका पहला गमन था। मंदिर ज़्यादा घर से दूर नहीं था। दोनों बातें करते हुए साथ-साथ चलने लगे। अभी कुछ कदम चले ही थे कि रतन हैरान हुई देख कर पति ने रास्ते में जो भी चीज़ पैरों के लिए हानिकारक लगी जैसे काँच पत्थर काँटे झाडी सब अपने हाथ से हटाये। गली के कुकर छोटे पिल्ले सबको बैठकर प्यार किया। जो भी रास्ते में मिला सबसे बड़े प्रेम अदबी से मिला। रतन पति की यह उदारता देख कर मुस्कराती रही। मन से वह भी कोमल भाव रखती थी लेकिन पति के आगे वो बहुत कम थे। बीतते वक़्त के साथ रतन घर के अन्दर की बातें जानने लगी। घर का खर्चा पिता जो कि एक रिटायर्ड अध्यापक थे उनकी पेंशन से चलता था। पति की पुरानी सी गाड़ी घर के लिए कम लोगों की मदद के लिए ज़्यादा थी। राशन सामग्री का बहुत हिस्सा दर पर आये ज़रूरत मदों भिखारियों को खिलाने में जाता था। पति की वकालत अच्छी जा रही थी लेकिन पैसा घर में कहीं आता नज़र नहीं आ रहा था। सासु माँ से पुछने पर पता चला कि हरिप्रसाद ग़रीब निर्बल लोगों के मुक़दमे की फ़ीस नहीं लेता। बचपन में किसी मजबूर पर ज़ुल्म होता देखता तो आकर कहता मैं बड़ा होकर इनके इन्साफ़ के लिए लड़ूँगा और देखो ईश्वर ने इसे वकील बनाकर इसका लक्ष्य पूरा किया। पति ज़रूरत से ज़्यादा सत्कर्मी था लेकिन एक बात रतन देख कर खुश हुई हरिप्रसाद में कुछ तो आम लोगों जैसा भी था, वो था कपड़ों से प्यार। कपड़े साफ़ सुथरे स्त्री किये हो ऐसी तमन्ना उनकी आँखों में सदा दिखती। कपड़ों पर दाग छींटा ना लगे इस बात से सदा सजग रहते। पति की इस इच्छा का रतन अच्छे से ख़्याल रखने लगी। बीतते वक़्त के साथ ज़िन्दगी आगे बढ़ी। रतन और हरिप्रसाद दो बच्चों के माता-पिता बने। हरिप्रसाद के माता-पिता एक के बाद एक इस दुनिया से विदा ले गये। रतन पूरी तरह अपनी गृहस्थी सम्भालने में व्यस्त हो गई। उसके लिए उसके बच्चे और उनकी ख़ुशियों से बढ़कर कुछ नहीं था। पति की नेकियाँ जब राहों में आकर खड़ी होने लगी तो रतन एकदम से स्वार्थी हो गई। पति को दुनिया से काटने के लिए झूठ बोलने लगी बातें छुपाने लगी। मुफ़्त में मुक़दमे लड़ने पर पति से झगड़ा करती। कोई मदद माँगने आता है तो ना करने में देर ना लगाती। उसे भगवान नहीं इन्सान चाहिए था अपना पति अपने बच्चों का पिता चाहिए था। धीरे-धीरे हरिप्रसाद दुनिया से कट कर अपने घर और बच्चों तक सीमित रह गया। रतन बहुत खुश थी। फिर एक दिन बहुत मुबारक दिन आया रतन की छोटी बहन रेशम की शादी का, रतन जोरशोर से तैयारियों ख़रीदारियों में लग गई। सबके लिए कपड़े ख़रीदे पति के लिए भी क़ीमती पेट कोट टाई सूट ख़रीद कर लाई। सूट देखकर हरिप्रसाद बहुत खुश हुए। जाने में समय से बहुत देर पहले ही तैयार होकर बैठ गये और ना जाने कितनी बार ख़ुद को आईने में देखकर आये। तभी रतन ने आकर कहा कि शगुन डालने का लिफ़ाफ़ा नहीं मिल रहा और थोड़ी देर में गाड़ी भी आने वाली है। हरिप्रसाद बोले तुम लोग तैयार हो मैं लेकर आता हूँ। लिफ़ाफ़े लेकर जब वापिस लौट रहे थे सामने दलदल में एक छोटे से सूअर का बच्चा धँसा हुआ था और बाहर निकलने का निरन्तर प्रयत्न कर रहा था। दलदल के बाहर कीचड़ से सनी उसकी माँ भी खड़ी थी। शायद अपने बच्चे को बचाने में अपनी सब कोशिशों में हार चुकी थी। वकील साहब को आसपास एक छोटे से बच्चे के अलावा कोई दिखाई नहीं दिया। उन्होंने अपना कोट उतार कर उस बच्चे को पकड़ाया और स्वयं उस मासूम की मदद के लिए कीचड़ में उतर गये। दलदल काफ़ी गहरा था लेकिन वकील साहब भी आसपास के उठे हुए पत्थरों को पकड़कर बच्चे तक पहुँच गये। इधर जाने के लिए गाड़ी आ गई और पति का कुछ पता नहीं तो घबराकर रतन फ़ोन करने लगी। फ़ोन कोट की जेब में था, बच्चे ने बताया कि जिन अंकल का यह फ़ोन है वो दलदल में फँसे हुए हैं। रतन सुनते ही दौड़ीं, बच्चे भी माँ के पीछे दौड़े। वहाँ देखते रतन जड़ सी हो गई पति दूर दलदल से एक छोटे से सुअर के बच्चे को उठाकर आ रहे थे ख़ुद गिर गिर कर भी उस बच्चे को सँभाले हुए थे। आज पति की करूणा में रतन भी बह गई। गला रूँध गया आँखों से आँसू बह गये। अन्तरिम में सभी वासनाओं की विसंगति टूट गई। प्रेम की ऐसी पावन गंगा उसके घर में स्वयं परमात्मा ने बहाईं थी और वो उसमें दूषित सोच की गंदगी डाल रही थी। इस दलदल में हरि की जान भी जा सकती थी, वहाँ कोई बचाने वाला भी नहीं था लेकिन उनके लिए इनसानियत पहले थी। बच्चे की माँ भी सबके साथ खड़ी हरिप्रसाद का इन्तज़ार कर रही थी। किनारे पर आते ही रतन ने भागकर पति को हाथ का सहारा दिया। फिर उन्होंने नल के नीचे उस बच्चे की सारी गंदगी साफ़ की रतन सामने खड़ी सब देख रही थी और भीतर ही भीतर पति के सद्भाव के आगे झुकी जा रही थी। पत्नी को देखकर वकील साहब बोले माफ़ करना रतन तुम्हारा लाया क़ीमती सूट ख़राब हो गया। भीगी आँखों से रतन बोली ऐसा ना कहिए मैंने आज जो पाया है उससे अधिक क़ीमती कुछ भी नहीं। भगवान का शुक्र आप सही सलामत हैं। सुनकर वकील साहब बोले मुझे कुछ कैसे हो सकता था रतन मेरे साथ उस माँ की ममता थी। अपने बच्चे के लिए उसकी प्रार्थना थी और मैं भी उस प्रार्थना के साथ बाहर आ गया। आज इस माँ का दर्द दूर करके जो ख़ुशी मिली वो मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकता और फिर साड़ी तो तुम्हारी भी इस नेकी में रंग गई वकील साहब ने मज़ाक़ के मूड में कहा तो एक हंसी की खिल खिलाहट से रौनक़ भर गई। सूअर माँ और बच्चा जैसे लाखों दुआयें देकर चल दिए और रतन अपने घर में में एक मंदिर जैसा दिल लेकर वापिस लौट आई। ****
- मोहन का पेपर
रमाकांत शर्मा आज फिर बेटा बिना कुछ खाए घर से जा रहा था, तो मां ने बेटे से कहा – बेटा थोड़ा खाना खाकर जा। दो दिन से तूने कुछ नहीं खाया – तो बेटे ने कहा देखो मम्मी मैंने मेरी 12वीं बोर्ड की परीक्षा के बाद सेकंड हैंड बाइक मांगी थी और पापा ने प्रॉमिस किया था कि जरूर लेकर देंगे। आज मेरा आखिरी पेपर है दीदी को कह देना कि जैसे ही मैं परीक्षा देकर बाहर आऊंगा। तब वह पैसे लेकर बाहर खड़ी रहे। मेरे दोस्त की पुरानी बाइक मुझे आज ही लेनी है और हां यदि दीदी वहां पैसे लेकर नहीं आई तो मैं घर वापस नहीं आऊंगा। एक गरीब घर में बेटे मोहन की जिद और माता की लाचारी आमने-सामने टकरा रही थी। मां ने कहा बेटा तेरे पापा तुझे बाइक लेकर देने ही वाले थे। लेकिन पिछले महीने एक्सीडेंट, इससे पहले के मां अपनी बात पूरी कर पाती उससे पहले मोहन बोला मैं कुछ नहीं जानता मुझे तो बाइक चाहिए ही चाहिए। ऐसा बोलकर मोहन अपनी मम्मी को गरीबी और लाचारी की मझदार में छोड़कर घर से बाहर निकल गया। 12वीं बोर्ड की परीक्षा के बाद भागवत सर एक अनोखी परीक्षा का आयोजन करते थे। हालांकि भागवत सर का विषय गणित था। किंतु विद्यार्थियों को जीवन का गणित भी समझाते थे। उनके सभी विद्यार्थी यह परीक्षा जरूर देने आते थे। इस साल परीक्षा का विषय था – मेरी पारिवारिक भूमिका। मोहन परीक्षा कक्षा में आकर बैठ गया। उसने मन में गांठ बांध ली थी कि यदि मुझे बाइक नहीं लेकर देंगे तो मैं घर नहीं जाऊंगा। भागवत सर ने क्लास में सभी को पेपर बांट दिए। पेपर में कुल 10 प्रश्न थे। उत्तर देने के लिए 1 घंटे का समय दिया गया था। मोहन ने पहले प्रश्न पढ़ा – आपके घर में आपके पिताजी, माताजी, बहन, भाई और आप कितने घंटे काम करते हो? बिस्तार में बताइए? मोहन ने तुरंत जवाब लिखना शुरू कर दिया पापा सुबह 6:00 बजे टिफिन के साथ अपनी ऑटो रिक्शा लेकर निकल जाते हैं और रात को 9:00 बजे वापस आते हैं। ऐसे में वह लगभग 15 घंटे काम करते हैं। मम्मी सुबह 4:00 बजे उठकर पापा का टिफिन तैयार करती है। बाद में घर का सारा काम करती है। दोपहर को सिलाई का काम करती है और सभी लोगों के सो जाने के बाद वह सोती है। लगभग रोज 16 घंटे काम करती है। दीदी सुबह कॉलेज जाती है और शाम को 4:00 से 8:00 बजे तक पार्ट टाइम जॉब करती है और रात को मम्मी के काम में मदद करती है। लगभग 12 से 13 घंटे काम करती है। मैं सुबह 6:00 बजे उठता हूं और दोपहर को स्कूल से आकर खाना खाकर सो जाता हूं। शाम को अपने दोस्तों के साथ टहलता हूं। रात को 11:00 तक पढ़ता हूं तो लगभग 10 घंटे तक मैं व्यस्त रहता हूं। पहले सवाल के जवाब के बाद मोहन ने दूसरा प्रश्न पढ़ा – आपके घर की मासिक कुल आमदनी कितनी है? तो मोहन ने जवाब लिखना शुरू किया मेरे पापा की आमदनी लगभग ₹10000 है। मम्मी और दीदी मिलकर 5000 कुल जोड़ लेते हैं। कुल आमदनी 15000 रुपए है। प्रश्न नंबर तीन था – मोबाइल रिचार्ज प्लान, आपकी मनपसंद टीवी पर आ रही तीन सीरियल के नाम, शहर के एक सिनेमा हॉल का पता और अभी वहां चल रही मूवी का नाम बताइए? सभी प्रश्नों के जवाब आसान होने के कारण मोहन ने फटाफट 2 मिनट में लिख दिए। अब बारी थी प्रश्न नंबर चार की और चार नंबर प्रश्न था 1 किलो आलू और भिंडी की कीमत क्या है? 1 किलो गेहूं चावल और तेल की कीमत बताइए और जहां पर घर का गेहूं पिसाने जाते हो उस आटा चक्की का पता भी बताइए? मोहन को इस सवाल का जवाब नहीं आया उसे समझ में आया कि हमारे दैनिक आवश्यक जरूरत की चीजों के बारे में तो उसे थोड़ा भी पता नहीं है। मम्मी जब भी कोई काम बताती थी तो मना कर देता था। आज उसे समझ में आया कि बेकार की चीज मोबाइल रिचार्ज, मूवी का ज्ञान ही जरूरी नहीं है। अपने घर के कामों की समझ होना भी बहुत जरूरी है। प्रश्न नंबर पांच था – आप अपने घर में भोजन को लेकर कभी तकरार या गुस्सा करते हैं? तो मोहन ने सोच कर जवाब लिखा – हां मुझे आलू के सिवा कोई भी सब्जी पसंद नहीं है। यदि मम्मी और कोई सब्जी बनाएं तो मेरे घर में झगड़ा होता है। कई बार मैं बिना खाना खा उठ खड़ा हो जाता हूं। इतना लिखते ही मोहन को याद आया की आलू की सब्जी से मम्मी को गैस की तकलीफ होती है। पेट मे दर्द होता है। मम्मी अपनी सब्जी में एक बड़ी चमच्च अजवाइन डालकर खाती है। एक दिन मैंने गलती से मम्मी की सब्जी खा ली थी और फिर मैं थूक दिया था और फिर पूछा था कि मम्मी तुम इतनी कड़वी सब्जी क्यों खाती हो? तब दीदी ने बताया था कि हमारे घर की स्थिति अच्छी नहीं है, कि हम दो सब्जी बनाकर खाएं। तुम्हारी जिद के कारण मम्मी बेचारी क्या करें? मोहन ने अपनी यादों से बाहर आकर अगले प्रश्न को पढ़ा – अगला प्रश्न नंबर छः था – आपने अपने घर में की हुई आखिरी जिद के बारे में लिखिए? मोहन ने जवाब लिखना शुरू किया मेरी बोर्ड की परीक्षा पूर्ण होने के बाद दूसरे ही दिन बाइक के लिए जिद की थी। पापा ने कोई जवाब नहीं दिया था और मम्मी ने समझाया था कि घर में पैसे नहीं है। लेकिन मैं नहीं माना मैंने दो दिन से घर में खाना खाना भी छोड़ दिया है। जब तक बाइक नहीं लेकर देंगे मैं खाना नहीं खाऊंगा और आज तो मैं वापस घर ही नहीं जाऊंगा। यह कहकर निकला हूं। अब बारी थी प्रश्न नंबर 7 की और प्रश्न था – आपको अपने घर में मिल रही पॉकेट मनी का आप क्या करते हैं? आपके भाई बहन अपनी पॉकेट मनी कैसे खर्च करते हैं। तो मोहन में जवाब लिखना शुरू किया हर महीने पापा मुझे ₹100 देते हैं उसमें से मैं मनपसंद परफ्यूम और चश्मा लेता हूं या अपने दोस्तों के साथ छोटी-मोटी पार्टियों में खर्च करता हूं। मेरी दीदी को भी पापा ₹100 देते हैं। वह खुद भी कमाती है और पगार के पैसे से मम्मी को आर्थिक मदद भी करती हैं। हां उसको दिए गए पॉकेट मनी को वह गुल्लक में डालकर बचत करती हैं। उसके किसी प्रकार के कोई शौक नहीं है क्योंकि वह कंजूस भी है। इसके बाद प्रश्न था आठ – आप अपनी खुद की पारिवारिक जिम्मेदारी को समझते हैं? यह प्रश्न अटपटा और मुश्किल होने के बाद भी मोहन ने जवाब लिखना शुरू किया। परिवार के साथ जुड़े रहना चाहिए। एक दूसरे के प्रति समझदारी से व्यवहार करना चाहिए। एक दूसरे की मदद करनी चाहिए और ऐसे अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए। यह लिखते लिखते ही अंतरात्मा से आवाज ए आर मोहन तुम खुद अपनी पारिवारिक जिम्मेदारी को योग्य रूप से निभा रहे हो क्या और अंतरात्मा से ही जवाब आया नहीं बिल्कुल नहीं। प्रश्न नंबर 9 – आपके परिणाम से आपके माता-पिता खुश हैं? क्या वह अच्छे परिणाम के लिए आपसे जिद करते हैं? आपको डांटते रहते हैं? इस प्रश्न का जवाब लिखने से पहले मोहन की आंखें भर आई। अब वह परिवार के प्रति अपनी भूमिका बराबर समझ चुका था। उसने लिखने की शुरुआत की वैसे तो मैं कभी भी मेरे माता-पिता को आज तक संतोषजनक परिणाम नहीं दे पाया हूं। लेकिन इसके लिए उन्होंने कभी भी जिद नहीं की। मैंने बहुत बार अच्छे रिजल्ट के प्रॉमिस तोड़े हैं। फिर भी हल्की सी डाँट के बाद वहीं प्रेम बना रहता है। इसके बाद आखरी प्रश्न था प्रश्न नंबर 10 – पारिवारिक जीवन में असर कारक भूमिका निभाने के लिए इन छुट्टियों में आप कैसे अपने परिवार की मदद करेंगे? जवाब में मोहन की कलम चले इससे पहले उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। जवाब लिखने से पहले ही कलम रुक गई। बेंच के नीचे मुंह रखकर रोने लगा फिर से कलम उठाई तब भी वह कुछ ना लिख पाया। दसवें प्रश्न का जवाब दिए बगैर उसने पेपर सबमिट कर दिया और बाहर आ गया। स्कूल के दरवाजे पर दीदी को देखकर मोहन उसकी ओर दौड़ पड़ा। जैसे ही दीदी के पास पहुंचा दीदी ने कहा – भाई यह ले ₹8000 मम्मी ने कहा है कि बाइक लेकर ही आना। दीदी ने मोहन को पैसे पकड़ा दिए। मोहन ने पूछा – कहां से लाई हो पैसे? तब दीदी ने बताया मैंने मेरे ऑफिस से एक महीने की सैलरी एडवांस मांग ली। मम्मी भी जहां काम करती है वहीं से उधार ले लिया और मेरी पॉकेट मनी की बचत से निकाल लिए। ऐसा करके तुम्हारी बाइक के पैसे की व्यवस्था हो गई है। मोहन की दृष्टि पैसों पर स्थिर हो गई थी। दीदी फिर बोली – भाई मम्मी को बोलकर निकले थे कि पैसे नहीं दोगे तो मैं घर पर नहीं आऊंगा। अब तुम्हें समझना चाहिए कि तुम्हारी भी घर के प्रति जिम्मेदारी है। मुझे भी बहुत शौक है। लेकिन मै अपने शौक की बजाय अपने परिवार को ज्यादा महत्व देती हूँ। तुम हमारे घर के सबसे लाडले हो इसलिए पापा के पैर में फ्रैक्चर होने के बावजूद भी रोज ऑटो चलाते हैं ताकि तुझे बाइक दिलाने का प्रामिस पूरा कर सके। बाकी तुमने तो अनेकों बार अपने प्रामिस तोड़े ही है न? मोहन के हाथ में पैसे देकर दीदी घर चली गई। उसी समय मोहन का दोस्त वहाँ अपनी बाइक लेकर आ गया। उसने अच्छे से बाइक को चमका दिया था। दोस्त ने कहा – ले मोहन आज से यह बाइक तुम्हारी। सब 12000 रुपए में मांग रहे थे मगर यह तुम्हारे लिए ₹8000 में। मोहन बाइक की ओर एक टक देख रहा था और थोड़ी देर बाद बोला – दोस्त तुम अपनी बाइक उसे 12000 वाले को ही दे देना। मेरे पास पैसे की व्यवस्था नहीं हो पाई है और होने की संभावना भी नहीं है। यह कहकर मोहन सीधा भागवत सर की केबिन में जा पहुंचा। भागवत सर ने मोहन की ओर देखा और पूछा – अरे मोहन कैसा लिखा है पेपर में? तब मोहन बोला सर यह कोई पेपर नहीं था यह तो मेरे जीवन के लिए दिशा निर्देश था। मैंने एक प्रश्न का जवाब छोड़ दिया है किंतु वह जवाब लिखकर नहीं अपने जीवन की जवाबदेही निभा कर दूंगा और इतना कहकर भागवत सर के चरण स्पर्श किए और अपने घर की ओर निकल पड़ा। घर पहुंचते ही मोहन ने देखा कि मम्मी पापा दीदी सब उसकी राह देख रहे थे। मोहन को देखते ही मम्मी ने पूछा बेटा बाइक कहां है? मोहन ने दीदी के हाथों में पैसे थमा दिए और कहा सॉरी मुझे बाइक नहीं चाहिए और पापा मुझे ऑटो की चाभी दो। आज से मैं पूरी छुट्टियां ऑटो चलाऊंगा और आप थोड़े दिन आराम करेंगे और मम्मी आज मेरी पहली कमाई शुरू होगी। इसलिए तुम अपनी पसंद की सब्जी ले आना। रात को हम सब साथ मिलकर खाना खाएंगे। मोहन के स्वभाव में आए परिवर्तन को देखकर मम्मी ने उसको गले लगा लिया और कहा बेटा सुबह जो कहकर तुम गए थे। वह बात मैंने तुम्हारे पापा को बताई थी और इसलिए तुम्हारे पापा दुखी हो गए। काम छोड़कर घर वापस आ गए। भले ही मुझे पेट में दर्द होता हो लेकिन आज तो मैं तेरी पसंद की ही सब्जी बनाऊंगी। तब मोहन ने कहा – नहीं मम्मी अब मैं समझ गया हूं कि मेरे घर परिवार में मेरी भूमिका क्या है? मैं रात को आपकी पसंद की सब्जी ही खाऊंगा। परीक्षा में मैं आखरी जवाब नहीं लिखा वह प्रेक्टिकल करके दिखाना है। और हां मम्मी हम गेहूं को पीसने कहां जाते हैं उस आटा चक्की का नाम और पता भी मुझे दे दो। इसी समय भागवत सर ने घर में प्रवेश किया और बोले वाह मोहन वाह जो जवाब तुमने लिखकर नहीं दिया वह प्रैक्टिकल जीवन में करके दोगे। मोहन भागवत सर को देखकर आश्चर्य चकित हो गया और बोला – सर आप और यहां? तब भागवत सर बोले मुझे मिलकर तुम चले गए उसके बाद मैंने तुम्हारा पेपर पढ़ा। इसलिए तुम्हारे घर की ओर निकल पड़ा। मैंने बहुत देर से तुम्हारे अंदर आए परिवर्तन को सुना। मेरी अनोखी परीक्षा सफल रही और उस परीक्षा में तुमने पहले नंबर पाया है। ऐसा बोलकर भागवत सर ने मोहन के सर पर हाथ रख दिया और उसे आशीर्वाद दिया। मोहन ने तुरंत ही भागवत सर के पैर छुए और ऑटो रिक्शा चलाने के लिए निकल पड़ा। *****
- कागज की नाव
नीरजा कृष्णा अमिता को मुंबई में नया ऑफिस ज्वाइन किए हुए साल भर होने जा रहा है पर वो नितांत अकेली है। चुपचाप आना, अपना काम करना और फिर उसी तरह चुपचाप घर की बस पकड़ लेना... यही उसकी दिनचर्या है। असीम को उससे हमदर्दी तो है पर वो भी चुप्पा इंसान है। आज कंपनी की तरफ़ से एक पिकनिक के आयोजन में सभी कर्मचारियों का जमावड़ा हैंगिंग गार्डन में है। मुंबई की बारिश तो मशहूर है ही...कब उमड़घुमड़ जाए...कोई नहीं जानता। उस दिन भी यही हुआ। एकाएक झमाझम शुरू हो गई। सब एक बड़े से शेड के नीचे दुबक गए थे। बगल के छोटे से गड्ढे में पानी बहने लगा था। अमिता का उदास मन खिल उठा... बैग में सुबह का पेपर पड़ा था। झट से उसने तीन चार नावें बना कर उसमें डाल दी और खुशी से ताली बजाने लगी। सभी का ध्यान उधर चला गया। असीम को ये सब देख कर अपना बचपन याद आने लगा...कैसे गाँव में सब बच्चे बारिश में कागज की नावें बना कर मस्ती करते थे। उसे छुटकी याद आ गई... कितनी फटाफट सुंदर सुंदर नाव बना डालती थी और उसकी नाव तेजी से आगे भी निकल जाती थी...तब वो असीम को बहुत चिढ़ाती थी। सहसा असीम भी जोश से भर गया। अपने मित्र से पेपर लेकर उसने भी नाव बना कर उसी गड्ढे में तैरा दी। उसकी नाव को आगे बढ़ते देख अमिता के मुँह से निकला,"अरे तुम्हारी नाव तो आगे निकल गई।" एकाएक उसके भी मुँह से निकल गया,"हाँ, आज तो मैं ही जीतूँगा।" "अरे साहब, ये कागज की नाव है...कब डूब जाएगी... कौन जानता है?" ये अमिता चहक रही थी। वो चौंक गया और पूछ बैठा,"तुम पालमपुर वाली छुटकी हो क्या? "हाँ! और तुम सरपंच जी के बेटे मुन्ना हो?" उसने हाथ बढ़ा दिया,"हाँ भाई हाँ।" दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़ कर हँसने लगे। कागज की नावों ने बचपन के मित्रों को मिला दिया था। ******