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  • प्यार जितना पुराना। उतना ही सुहाना है।

    डॉ. जहान सिंह जहान   प्यार जितना पुराना। उतना ही सुहाना है।   क्या हुआ अगर यह नया ज़माना है।। आज का प्यार तो बहुत बौना है।   कुछ पल खेलने का खिलौना है। मन भर जाए तो झटपट बदलना है।।   आज की मुद्रा सौ पचास, एक रूपया और अठन्नी। कहाँ वो चांदी, सोने के सिक्के और गिन्नी।।   ये टू बीएचके का फ्लैट। कहाँ वो पुरानी हवेली। अब तो जीन्स, टॉप, स्कर्ट। कहाँ वो घागरा चोली।।   नया परिधान, हाई हील, गौगल, कोट। कहाँ वो चुनर और घूंघट की ओट।।   इनके कंधों पर हैंड बैग पड़ा। कहाँ वो कमर पर पानी का घड़ा।   कहाँ ये स्ट्रॉबेरी, पाइन एप्पल, कीवी फ्रूट की टोकरी। कहाँ वो ठंडे तालाब के किनारे आम का बाग।।   प्यार जितना पुराना, उतना ही सुहाना है।    ये तो है टू मिनट मैगी विद स्पाइस। कहाँ वो धीमी आंच में पका बासमती राइस।।   ये क्रोकरी, बेकरी और बुफे का स्टाइल है। वो चौके में सजा भोजन का थाल है।।   ये परफ्यूम की शीशी में लेमन ड्यू है। और वो पसीने में बदन की खुशबू है।।   यह रेप सॉन्ग, शोर शराबे का गीत है। वो क्लासिक शहनाई का संगीत है।।   प्यार जितना पुराना, उतना ही सुहाना है।    कहाँ ये बेड रोल की फोल्डिंग चारपाई। कहाँ वो मसहेरी, बिंद गद्दा रजाई।।   अब तो सुबह हैं दो बिस्कुट, एक चाय छोटी। कहाँ वो ताजा मक्खन, बासी रोटी।।   अब पति, पत्नी नाम से जैसे सेवक बुलाते हैं। वहाँ अजी सुनती हो। अजी सुनते हो, कहलाते हैं।।   नया प्यार, निराश न हो। वक्त के साथ वो भी पुराना होकर सुहाना हो जाएगा। पर शर्त है। ‘जहान’ दिल बड़ा रखना निभाना आ जाएगा। *****

  • वक्त का बदला

    डॉ. कृष्णा कांत श्रीवास्तव एक बार की बात है। एक बूढ़ा बाप अपने बेटे और बहू के साथ रहने के लिए उनके शहर गया। उनके अत्यंत बूढ़े हो जाने के कारण उनके हाथ कांपने लगे थे और उन्हें दिखाई भी कम देता था। उनके बेटा और बहू एक छोटे से घर में रहते थे। उनका पूरा परिवार और उसका 4 वर्ष का एक पोता भी था। वह हर रोज एक साथ बैठकर ही खाना खाते थे। तो वह भी उनके साथ खाना खाने लगा। लेकिन बूढ़े होने के कारण उस व्यक्ति को खाने में बहुत दिक्कत होती थी। खाते समय चम्मच से दाने नीचे गिर जाते थे और उनका हाथ कांपने लगता था। कभी-कभी हाथ से दूध भी गिर जाया करता था। तो बेटा बहू कुछ दिनों तक यह सब सहन करते रहे। पर कुछ दिनों बाद उन्हें अपने पिता की इन कामों पर से नफ़रत होने लगी। तभी बेटे ने कहा कि हमें इनका कुछ करना पड़ेगा और बहू ने भी उनकी हां में हां मिलाई। और कहा आखिर कब तक हम इनकी वजह से अपने खाने का मजा किरकिरा करते रहेंगे। इनकी वजह से हमारे कितनी चीजों का नुकसान भी हो गया है और यह सब मुझसे देखा नहीं जाता। तो अगले दिन बेटे ने अपने पिता के लिए कमरे के कोने में एक पुराना मेज़ लगा दिया। अपने बूढ़े बाप से कहा कि पिताजी आप यहां पर बैठ कर खाना खाया करो तब से बूढ़ा बाप अकेले ही बैठ कर अपना भोजन करने लगा। यहां तक कि उसे खाने और पीने के लिए भी लकड़ी के बर्तन दिए गए ताकि उनके टूटने पर उनका नुकसान ना हो। और वह तीनों लोग पहले की तरह ही भोजन करने लगे। जब कभी बेटा और बहू अपने बूढ़े बाप की तरफ देखते थे तो उनकी आंखों में कुछ आंसू आ जाते थे। लेकिन फिर भी उन्होंने अपना मन नहीं बदला। वे उनकी छोटी-छोटी गलतियों के कारण उन्हें ढेर सारी बातें सुना देते थे। उनका 4 साल का बेटा यह सब कुछ बड़े ध्यान से देखता रहता था। इसलिए एक दिन खाने से पहले छोटा बेटा अपने माता-पिता के साथ जमीन पर बैठ गया और कुछ करने लगा। तभी बेटे के बाप ने पूछा कि तुम यह क्या बना रहे हो तो बच्चे ने मासूमियत के साथ जवाब दिया कि मैं आप लोगों के लिए लकड़ी का एक कटोरा बना रहा हूं। ताकि जब आप बूढ़े हो जाओ तो मैं आपको इसमें खाना दे सकूं और यह कह कर वह बच्चा अपने काम पर फिर से लग गया। इस बात पर उसके माता-पिता को बहुत गहरा असर पड़ा। उनके मुंह से एक भी शब्द नहीं निकला और उनकी आंखों से आंसू बहने लगे। उन दोनों को अपनी गलती का एहसास हुआ वे दोनों बिना कुछ बोले ही समझ चुके थे कि उन्हें क्या करना है। उस रात वे अपने बूढ़े पिता को वापिस डिनर टेबल पर ले आए और उनके साथ दुर्व्यवहार नहीं किया। हमारी जिंदगी भी बिल्कुल ऐसे ही हैं हम अच्छे कर्म करें या बुरे कर्म। हमें अपने कर्मों का फल इसी जन्म में भोगना पड़ता है। इसीलिए समय रहते ही अपने बुरे कर्मों को अच्छे कर्मों में बदल दें क्योंकि अगर वक्त ने बदला तो बहुत तकलीफ होगी। *****

  • बहु भी बेटी

    मनीषा सहाय करीब तीन माह पहले ही रीना नये फ्लैट में शिफ्ट हुई थी। तब से ही रोज सुबह ही बगल के फ्लैट से सुबह-सुबह आती आवाजें ... "अरे राधा मेरे स्नान के लिये गर्म पानी रख दिया, तभी किसी ने जोरों से कहा- "साढे़ छह बज रहें है निर्मला!! ये बहु क्या कर रही है, अभी तक चाय नहीं बनाई। तभी एक अन्य आवाज "यार राधा टिंकू की स्कूल बस आती ही होगी, पता नही क्या कर रही हो? तभी भाभी कहाँ हो, मेरे बालों में मेंहदी लगानी याद है न! ?... इन बुलंद आवाजों के बीच-बीच में एक हल्की आवाज भी आ रही थी.. जी हाँ! आई, बस ला रहीं हूँ! हाँ जीजी! रीना का कोतूहल और संवेदना आज तो सीमा पार कर उस फ्लैट तक जा पहुँचे और उसने डोरबेल बजा दी....ट्रिन-ट्रिन ट्रिन ! सामने से एक दबंग महिला ने दरवाजा खोला और पूछा -- "कौन हो जी?" रीना ----"जी पड़ोसी!" "अच्छा! आओ!! कहाँ से हो? शादीशुदा हो या कँवारी? जाति क्या है तुम्हारी? वह क्या है न आजकल बड़े शहरों में इसी तरह लोग मीठी-मीठी बातें बना नजदिकियाँ बढ़ाते हैं और फिर कुछ कांड कर भाग जातें हैं। अच्छा कितना पढ़ी लिखी हो? ब्वाय फ्रेंड तो जरूर होगा! आजकल की लडकियाँ तो बेशर्मी में लड़कों से भी आगे निकल गई है। नौकरी, पढाई के नाम पर मनमानी ढ़ग से जिंदगी बिताने का सपना लिये रहती हैं न बड़ों का सम्मान ना आँखों में लिहाज वगैरह वगैरह ........ रीना ने कहा -- "जी! मैं यूपी से हूँ, संस्कारी हूँ, सरकारी नौकरी करने के लिये दिल्ली आई हूँ। रोज सुबह-सुबह आपलोगों की ढेरों फरमाईश की आवाजें सुन कर उत्सुक हो उठती हूँ और बस आज रहा नही गया तो आपके दर्शन को चली आई। आपके घर में सब काम आपकी बहू ही करती है ना! सो कॉल! आज की लड़कियाँ! आप लोगों को नही लगता कि घर के काम में आपको उसकी मदद करनी चाहिए! तभी उनकी लड़की --- ओए ! तुम होती कौन हो? तभी वह दबंग महिला गर्दन ऐंठी, तमतमाती हुई कहती है,- "मैं सोसायटी की हेड हूँ। ऐ लड़की देख तुझसे कैसे फ्लेट खाली करवाती हूँ, तू क्या मेरी पहुँच उँचे लोगों तक है।" रीना ---" मैं महिला आयोग दिल्ली की अधिकारी हूँ।" तभी बहु सामने आ गई और सास को बचाते हुए कहने लगी -- "जी बैठिए न! महिला आयोग में काम करती हैं तो इसका मतलब यह नही कि किसी को भी आप पड़ताड़ित करेंगी, यह मेरा घर है मैं यहाँ खुशी से सभी की सेवा करती हूँ।" बस फिर क्या था, वह गर्दन ऐंठी सासू ने बढ़कर बहू का माथा चूमा लिया, और रीना को घर से बाहर जाने का रास्ता दिखाया गया। खैर दो पल के लिये ही सही पर बहु को बेटी का मान तो मिला। *****

  • कोई है?

    उषा "क्या कह रही हैं आप? ऐसा भी कभी हो सकता है? आप नाम तो बताएं? मैं उड़वा दूंगी।" आवाज़ उत्तेजना से एकदम तेज हो गयी थी। भौंचक्की सी रचना के हाथ से रिसीवर छूटते-छूटते बचा। "आप यह कौन सी फिल्म के डायलॉग बोलने लगीं?" "आप मज़ाक समझ रही हैं क्या? ऐसों को ख़ूब पहचानती हूं और उनसे डील करना भी मुझे आता है। मेरे पास तगड़े सोसर्से हैं। ऐसी हरकत कर उसे जीने का कोई अधिकार नहीं है।" "बस उसे यह समझ में आना चाहिए कि एक जान चली गई। एक हंसता-खेलता परिवार बिखर गया। आगे से वह चेत जाए, बस केवल इतना ही करना है। इससे ज़्यादा हमें कुछ नहीं चाहिए।" "फिर भी आप नाम तो बताएं। आप जैसे छोड़ देनेवाले लोगों के कारण ही तो ये लोग इतने लापरवाह होते जा रहे हैं। जब तक सज़ा नहीं दी जाएगी, ये लोग नहीं समझेंगे। आख़िर आपको नाम बताने में क्या परेशानी है।" "ना.., मुझे नाम मालूम नहीं है, तो बताऊं क्या?" किसी तरह उस उद्वेलित होती महिला को समझा के शांत करने की चेष्टा की। "मत बताइए। मैं ख़ुद मालूम कर लूंगी। अस्पताल में मेरी जान-पहचान ख़ूब है।" और खटाक से फोन रखने की आवाज़ आई। रचना चुप सी बैठी रह गयी। उस हादसे को हुए अभी चार दिन हुए। नन्दन मामा का घर रचना के घर से बहुत दूर था, पर स्नेह की डोर में हर वक़्त फोन पर हंसते-बतियाते रहते। लगता था, दूसरे ही कमरे में बैठे हों। उसी बीच मामा को एस्केमिया हो गया, हाई ब्लड प्रेशर पहले से ही था। ऑफिस में तनाव ज़्यादा बढ़ता जा रहा था और लम्बे-लम्बे रास्ते तय करके ऑफिस आते-जाते थकान भी ज़्यादा रहने लगी थी। रह-रहकर दर्द उठता, छाती दबाते और चुप पड़ जाते। ऐसे में एक दिन ट्रेन से घर आते-आते पसीने में हांफते-कराहते नन्दन मामा को उनके ट्रेन के साथी ही सहारा देकर घर लाए। बदहवास सी मीता उन्हें संभालने में जुट गई और तभी घर लौटी बेटी श्रेया सामने के डॉक्टर के पास दौड़ गई। उस दिन का दिन था और परसों का दिन, जो ईसीजी निकलने शुरू हुए तब से तो जाने कितने निकलते चले गए, हिसाब ही नहीं रहा। पास ही में अच्छे कार्डियोलोजिस्ट को ढूंढ़ना, जहां आपातकालीन चिकित्सा सुविधा हो (इमरजेन्सी अटेन्ड कर सके) ऐसे अच्छे अस्पताल की खोज में दोनों बहनें श्रुति और श्रेया जुट गईं। ऐसे में श्रुति की डॉक्टर जेठानी दीदी ने बहुत साथ दिया। उनका ख़ुद का क्लीनिक दूर उपनगर में था, पर डॉक्टर की अपनी पहुंच बहुत होती है। नहीं तो अस्पताल का हाल तो यह है कि मरीज़ मरता हो, पर बेड दस दिन बाद मिलेगा। डॉक्टर महीने भर बाद मिलने का अप्वाइंटमेंट देंगे। ऐसे में डॉक्टर घर का हो, तो बड़ा सहारा हो जाता है, दूसरे डॉक्टर भी ख़्याल रखते हैं। डॉक्टर और अस्पताल ढूंढ़ते-समझते मीता, श्रुति और श्रेया ने पहला काम किया नन्दन मामा के सेल्फ रिटायरमेन्ट लेने के पीछे पड़ गईं। पहले मनुहार करके फिर झगड़ा करके कि बस बहुत हो लिया, यह दिलवा ही दिया। यह कह कर कि दिल के मरीज़ के लिए इतनी दूर ऑफिस आना-जाना, ठीक नहीं। छोटा-सा परिवार। नाज उठानेवाली पत्नी और लाड़ लड़ाने वाले बेटियां। कहीं बाप बच्चों को हथेली पर रख कर संवारता होगा, पर यहां बेटियां पिता को हथेली पर लिए हर धूप-छांव, अन्धड़ से बचाने में एक लग गयी थीं। ब्लड प्रेशर नापने की मशीन आ गयी। बेटियां नब्ज़ देखना पलक झपकने में सीख गयीं। ईसीजी पढ़ने में छोटे-मोटे डॉक्टरों को पछाड़ने लगीं। ज़रा-सी लीक से हटकर थोड़ा-सा भी ऊपर-नीचे जी होता कि घर में भगदड़ मच जाती। डॉक्टर मशीन लिए हाज़िर हो जाते। घर अस्पताल बन जाता। कुछ दिन के लिए चुपचाप सन्नाटा सा खिंचा रहता। आगे-पीछे बीवी-बच्चे पलकों का उठना-गिरना देखते रहते। तबियत सुधरते ही नन्दन मामा उस सारे दुलार को चौगुना करके फेरने लगते। श्रेया के पांव में मोच क्या आ गयी, घर सिर पर उठा लिया। दुनियाभर के तेल और ट्यूब की लाइन लग गयी। आते-जाते दोस्तों से मालिश करनेवाले का पता लगाने को कहते-कहते ख़ुद रोज़ तेल मालिश और सेंक करने लगे और ठीक करके ही चैन पाया। वे मेरे लिए हैं, मैं उनके लिए हूं। पर ऐसे संभालते-संभालते भी दो बार अस्पताल के आई.सी.यू. में जाकर लेटना पड़ा, नलियों और मशीनों से घिर कर। पर वहां भी हज़ार बार नर्सों के समझाने पर भी उनके पास तीनों में से एक बना ही रहा। बाक़ी दो दरवाज़े के बाहर पहरेदारी करती रहीं। भला जिसके घन्टे-घन्टे के बीतने का क्रम तय हो गया हो, वह लीक से हटकर चलने की हिम्मत कर कैसे सकता है? और वह भी ऐसा आदमी, जो घर की इतनी स्नेह डूबी चिन्तातुर आंखों को देखकर ख़ुद भी जी जान से लड़ने को तैयार हो गया हो। बिना नमक का उबला सा खाना, चिकनी-चुपड़ी रोटी का छूना भी दूर। सब तीज-त्योहार पर पकवानों को दूसरे के मुंह में देकर, अपना मुंह फेर लेना, वही एक मात्र जाप सा करते हुए, "वे मेरे लिए हैं मैं उनके लिए हूं।" सेल्फ रिटायरमेन्ट के लिए भी कितनी मुश्किलों से तैयार हुए थे कि श्रेया की ज़िम्मेदारी से अभी मुक्त नहीं हुआ हूं। कैसे घर बैठ जाऊं। तब श्रुति-श्रेया दोनों अड़ गयी थीं कि बेटा नहीं है, तो क्या कमानेवाली बेटियां तो हैं। सदी इक्कीसवीं में पांव रख रही है और आप अठारहवीं सदी का पांव पकड़े बैठे हैं। श्रुति घरवाली हो गयी है। अपने ही घर के ख़र्चे पूरे नहीं पड़ते, पर ब्याहा बेटा ही कौन सा साथ दे पाता है? श्रेया की नौकरी अच्छी है। पहले उसकी नौकरी देखकर लड़केवाले मुड़-मुड़कर आते थे, पर पापा की बीमारी और मां की असहायता देखकर वह टालती रही। अब कोई मुंह नहीं मोड़ता, तो वह भी नहीं देखती। महानगर में उस जैसी हज़ारों हैं अपनी नौकरी पर आती-जाती। दूसरे की ग़ुलाम तो नहीं है, कमाती है, तो अपने सबसे निकटवालों के ही हाथ में रखना होता है। कितने क़िस्से देखकर और सुन चुकी थी कि ब्याह के पीछे तो डबल नौकरी करनी पड़ती है। ऑफिस जाओ ऊपर से सास-ससुर, पति की नौकरी अलग, और फेरे लेते ही अपनी मेहनत से कमाकर लाए पैसों पर से भी ख़ुद अपना भी अधिकार पराया हो जाता है। जिन्होंने पढ़ाया, कुछ कमा सकने के लायक़ बनाया, साथ में भरपूर दहेज भी पकड़ाया, वे बेगाने हो जाते हैं। वक़्त पड़ने पर आवाज़ देने से भी मजबूर। श्रुति दीदी के सास-ससुर नहीं, पर अपनी गृहस्थी, पति और काम तो हैं। उनका ढेर सारा काम, फिर भी करती हैं। ऐसी बेड़ियां उसे नहीं डालनी, वह ज़्यादा मौज में है। कम से कम थके-हारे घर आती है, तो बेटे जैसा आराम करने को तो मिल जाता है। सुकून से लेटकर बतियाओ या टी.वी. देख लो। कभी छुट्टी में मन हुआ तो रसोई में झांक लिया। दोनों बहनों और पेन्शन के बूते पर ही नन्दन मामा मुश्किल से राजी हुए थे रिटायरमेन्ट लेने के लिए। दिवाली आ रही थी। उस रोज़ बड़े शौक़ से विभिन्न आकार के दीये ख़रीदे। श्रुति के बच्चों के लिए पटाखे, फुलझड़ी, श्रेया के लिए छोटा-सा टिफिन बॉक्स नए डिज़ाइन का, जो उसके चौड़े पर्स में आराम से बैठ सके, तब मीता के लिए भी एक साड़ी उठा ली। मीता की साड़ी शौक से गिफ्ट पैक कराई, पर घर आते-आते जीना चढ़ते ही उन्हें हल्का-सा दर्द महसूस हुआ। पहली ही मंज़िल है, इतना तो डॉक्टर ने भी ना नहीं कहा है, पर दिल है कि गाहे-बगाहे अपनी स्पीड बढ़ा देता है, सो आते ही लेट गए। घर में मीता अकेली थी। तुरंत ही उसके हाथ-पांव फूल जाते हैं, इसलिए उससे ज़्यादातर बात छिपा ली जाती है। दो मिनट पानी ग्लास लिए वह पास खड़ी रही पहले, पर दर्द की रेखा बढ़ती देख उसका अपना जी घबराने लगा। श्रेया पास ही में सर्विस करती है। डॉक्टर के साथ-साथ उसने घर में पांव रखा। डॉक्टर का मुंह और ईसीजी पर खिंचते नक्शे देखकर उसका मुंह भी सुन्न होता गया। एम्बुलेंस बुलाने के साथ ही श्रुति को फोन लगा दिया। फिर वही 'देवाजू' शुरू हुआ। लगता था ऐसा तो पहले भी हो चुका है। वैसे ही आई.सी.यू. में मशीनों के बीच नन्दन मामा का लेटना। पास में स्टूल पर एक का बैठ कर चौकीदारी करना। आई.सी.यू. में बैठने की सुविधा श्रुति की जेठानी डॉक्टर दीदी के कारण मयस्सर है। तरह-तरह के टेस्ट होते चले गए। कार्डियोग्राम भी हो गया। "स्थिति सामान्य है, परेशान होने की ज़रूरत नहीं…" सुन कर तीनों जनी उन्हें घेरे रहीं। "अरे भई, कल कमरे में शिफ्ट हो जाएंगे और दीवाली तक घर में।" डॉक्टर दीदी के आश्वासन देने पर ही तीनों के चेहरों पर खिंची तनाव की रेखा ढीली हो गई। दिवाली घर कर सकेंगे जान कर एक मीठा सा सुकून मीता के अन्दर उतर आया। तय हुआ दो दिन कमरे में रह कर फिर घर का रुख दीवाली की सुबह कर लेंगे। पर ऊपर, उस रात क्या भगवान नहीं बैठा था? अपनी जगह वह किस नौसिखिये को बैठा गया था आसन पर? नंदन मामा को बेचनी सी हो रही थी। बैठी मीता घबराकर अधसोये डॉक्टर को बुला लाई। "कोई बात नहीं है।" मरीज़ को नींद नहीं आ रही। ख़ुद को कितना तेज बुखार चढ़ा है। सो जाएंगे तो अपने को भी कुछ तो सोने को मिलेगा। सोच कर वह इंजेक्शन तैयार करने लगा। तब तक मीता घबरा कर बाहर भागी। श्रुति बाहर बेंच पर बैठी ऊंघ रही थी। मां की बदहवासी देखकर वह अन्दर लपकी। "आप कौन-सा इंजेक्शन दे रहे हैं।" पापा की ओर आते डॉक्टर को रोक कर उसने पूछा। "डॉक्टर मैं हूं कि आप?" "फिर भी!" "फिर भी क्या? कम्पोज है। हटिए काम करने दीजिए।" "पर रात में तो यह दिया था न एक।" श्रुति फिर भी जोर दे रही थी। "ओ श्रुति बेटा, मेरा पेट फूल रहा है, मुझे बड़ी बेचैनी हो रही है।" छटपटाते हुए नन्दन मामा ने श्रुति का हाथ कस कर पकड़ लिया। उसे एक ओर धक्का देकर हटाते हुए डॉक्टर ने नन्दन मामा को इन्ट्राविनस इंजेक्शन दे दिया। नन्दन मामा को मांसपेशियों को आराम देने के लिए इंजेक्शन पहले लगा था। उससे मांसपेशियां ढीली हो गयी थीं। देर रात वे उठे, बाथरूम जाना चाहा पर जा न सकें। पेट फूलने लगा तनाव से बेचैनी बढ़ने लगी। पहले भी उन्हें एक बार यह परेशानी हुई थी, तब केथेटर लगा कर सुकून पाया था। उधर रात की शिफ्ट में नये डॉक्टर ख़ुद ट्रेनिंग पर थे। कोर्स पूरा कर हाउस जॉब में थे। ना तो तजुर्बा, न देर रात तक जागने की आदत। नोंक-झोंक कर सिर को झटका देकर जगे रहने की कोशिश में नाकाम होते हुए। उधर नन्दन मामा एक बेचैनी से घिरे और उसके बाद सब फेल होता चला गया। नन्दन मामा की छटपटाहट और बढ़ी। गो-गो करते वे हलाल होते बकरे की तरह रंभा रहे थे। घबरा कर मीता उनके एक ओर हाथ कस कर पकड़े खड़ी थी कि उसके हाथ के ढीले होते ही वे कहीं खिसक न जाएं और दूसरी ओर श्रेया व श्रुति डॉक्टर को आवाज़ें दे रही थीं। डॉक्टर घबरा कर उनके केस की रिपोर्ट ढूंढ़ रहा था। उसे क्या देना, क्या नहीं देना चाहिए था, अब जानने के लिए। बता गयीं वे रोते-रोते इंजेक्शन की कहानी। किस तरह पहले एक इंजेक्शन लगा था नींद का, फिर इन्ट्राविनस का लगा दिया, जो सारे नसों को सुलाता हुआ, दौड़ता हुआ हार्ट तक पहुंचा, और गो-गो करते छटपटाते मामा को सदा के लिए सुला गया। छटपटाहट शान्त हो गई। धनतेरस थी। घर में धन, नया सामान लाते-नन्दन मामा आए घर वापस… औरों के कंधों पर आंख भींचे धरती पर लिटा दिए गए। डॉक्टर दीदी आई थीं। पैरों के पास चुपचाप रोती रहीं। श्रेया व श्रुति पर हाथ फेरती। क्या जवाब दे मीता को, वो तो रूम में शिफ्ट होने की कह गयी थीं, पर कौन से रूम में गए वे। आंख चुराती-सी बैठी थीं। आंसुओं के तूफ़ान में जैसे ज्वालामुखी का मुंह खुल गया हो। जिनकी हर नब्ज़ को उंगली से थाम ब्लड प्रेशर को जांचते-संभालते रहे थे, वे नौसिखिए के हाथ यूं ही चले गए। चले गए या मारे गए। इसे तो मारना ही कहते हैं। ऐसे कोई मार देता, तो पुलिस केस होगा, सत्ता मिलेगी, पर यहां अस्पताल में ऐसे हुआ तो? बस, एक डॉक्टर के हाथ से हुआ। सज़ा का हक़दार नहीं है क्या वह? विलाप का वेग चौगुना हो गया। हर आए-गए मुंह पर एक ही बात… चले जाते घर पर होते, बिना इलाज यहां सब कराके अफ़सोस रहता कि हाय करा नहीं अस्पताल में ले गए। यमदूत क्या ऐसे को ही कहते हैं! रचना मामाजी की प्यारी भांजी थी। हर तीज-त्योहार, सुख-दुख में हाज़िरी देने चली आती। मामी का मूक रूदन श्रुति-श्रेया का छटपटाना उसकी आंखों के आगे गुज़र रहा था। अपनी हर सांस में वह उनके दुख को जी रही थी। उसी तिलमिलाहट में वह सहेली को बता बैठी मामा का जाना और ऐसे जाना। उसका रिएक्शन देख कर लगा हां, दुनिया है अभी। दूसरे के दुख-दर्द में लोग अपना समझते हैं, और अभी भी लोगों में अन्याय के ख़िलाफ़ उठ खड़े होने का ताव है। भूचाल खड़ा करने की हिम्मत बची है। पर हे भगवान! क्या ग़ज़ब की औरत है। ऐसा रिएक्शन, "उड़ा दूंगी।" वह भी औरत के मुंह से, लगता था जैसे फूलन देवी बोल रही हो। अपनी उपमा पर झल्लाहट हो आई उसे। होता है कुछ लोग रिएक्ट अलग तरह से करते हैं, पर चलो, हमारे दुख में कोई तो शरीक है। साथ दे रहा है। अभी भी सब मरा नहीं है। एक शांति की सांस अंदर आई। चौथे पर पंडित आए, हवन हुआ। सब घर के जुड़े, शहर और बाहर से आए भी और सब चले गए। उनकी आत्मा को शांति और रह गए लोगों को धैर्य मिले की प्रार्थना करते हुए। पर धैर्य कैसे मिले। कलेजे में तो जब से कारण पता लगा, हुक सी उठ रही है और सब आए हुए लोग भी उसे हवा देते जा रहे हैं। श्रुति ने हवन से निबटते अगले दिन ही बाहर से आए जीतू भाई को ऐथॉरिटी लेटर देकर भेज दिया, अस्पताल से सारी रिपोर्ट लाने। उसकी तो सभी रिपोर्ट देखी, क्या रटी पड़ी थी। एक बार हाथ में यह सब रिपोर्ट आ जाए और डॉक्टर दीदी तो साथ में हैं ही फिर कन्ज्यूमर कोर्ट खटखटाना तो है। अपने तो चले गए, पर औरों के तो ना जाएं ऐसी लापरवाही से। आवाज़ उठाने पर ही डॉक्टर व अस्पताल चेतेंगे, नहीं तो यह हादसे तो बढ़ते ही जाएंगे। इन्हें रोक सकें यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी पापा के प्रति। जीतू भाई ने रिपोर्ट लाकर हाथ में दे दी। सब पढ़ी-पढ़ाई है क्या देखनी। मन में आया, फिर भी फ़ालतू बैठी यूं ही लिफ़ाफ़े का मुंह खोल डाला। ब्लड टेस्ट वही है। शुगर ठीक है। पर यह… यह क्या… यह ईसीजी। यह तो पापा का नहीं है। इतनी ऊपर-नीची कूदती-फूदती लाइनें उसमें नहीं थी। पापा के इतने ईसीजी उसने पढ़े हैं कि उससे रचे-बसे, छिपते-दिखते सभी वॉल्व वह पहचान जाती है झट से। चौंक कर उसने इको कार्डियोग्राम देखा। "अरे, यह… यह सब क्या लिखा है।" घबरा कर श्रुति ने रिपोर्ट्स श्रेया की ओर बढ़ाई और दूसरी रिपोर्ट उठाई। 'डेथ बाई हार्ट अटैक।' श्रेया का सिर घूमने लगा। लगा चक्कर आकर वह गिर जाएगी। सहारे के लिए उसने सिर कुर्सी की पीठ पर टिका दिया। तेज़ तीखी पर परिचित आवाज़ सुनकर चौंक कर उसने पीछे मुड़ कर देखा। कमरे में घुसती डॉक्टर दीदी मम्मी पर बरस रही थीं, "आपसे किसने कहा इंजेक्शन ग़लत लगा? आपको है समझ इतनी? सब इलाज ठीक हुआ। वे तो हार्ट पेशेन्ट थे। हार्ट अटैक तेज़ पड़ा उसी में चले गए। मैं कहती हूं ना?" पास खड़ी रचना व श्रुति हैरान सी उनका मुख देखती रह गईं। जब डॉक्टर दीदी ने नन्दन मामा के घर से उठने पर बात बताई थी, तब वह क्या, उसके पास बैठी कितने नाते-रिश्तेदारों ने यह सुना था और ज़ोर डाला था, अस्पताल के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने को। दुख के आवेग में कह डाले सच को, अब यथार्थ की धरती पर खड़े हो, अपने क्लीनिक पर आंच न आ जाए। उस अस्पताल और डॉक्टर के ख़िलाफ़ कुछ बोल देने के डर से वे ऐसी मुकर गईं। श्रेया ने डबडबाई आंसू भरी आंखों से मुड़कर देखा। जीतू भाई के चेहरे पर कैसा भाव था। एक अफ़सोस सा, जो अंकलजी के जाने पर शायद कम था उनकी मौत को सनसनीखेज बनाने पर ज़्यादा। तड़प कर रचना ने कहा, "हां, सच में उड़ा दिया। एक डॉक्टर क्या, उसने तो पूरी की पूरी रिपोर्ट ही अस्पताल से उड़ा दी। ज़रूर वह डॉक्टर या अस्पताल की मैनेजिंग कमेटी का कोई उसका सगेवाला रहा होगा। तभी उन्हें पहले से आगाह करके उसने यह उड़ा दी।" मीता, श्रुति और श्रेया ने सिसक कर सोचा, 'आज सच मर नहीं दफ़न भी हो गया है। और अस्पताल के गलियारे में नहीं मुख्य आई.सी.यू. में एक बूचर को खुला छोड़ दिया गया है। कोई है, जो उसे टोकेगा? रोकेगा? *****

  • सच्चा उपहार

    आनंद किशोर एक बहुत ही बड़े उद्योगपति का पुत्र कॉलेज में अंतिम वर्ष की परीक्षा की तैयारी में लगा रहता है। तो उसके पिता उसकी परीक्षा के विषय में पूछते है तो वो जवाब में कहता है कि हो सकता है कॉलेज में अव्वल आऊँ। अगर मैं अव्वल आया तो मुझे वो महंगी वाली कार ला दोगे जो मुझे बहुत पसन्द है। तो पिता खुश होकर कहते हैं क्यों नहीं अवश्य ला दूंगा। ये तो उनके लिए आसान था। उनके पास पैसो की कोई कमी नहीं थी। जब पुत्र ने सुना तो वो दो गुने उत्साह से पढाई में लग गया। रोज कॉलेज आते जाते वो शो रुम में रखी कार को निहारता और मन ही मन कल्पना करता कि वह अपनी मनपसंद कार चला रहा है। दिन बीतते गए और परीक्षा खत्म हुई। परिणाम आया वो कॉलेज में अव्वल आया उसने कॉलेज से ही पिता को फोन लगाकर बताया कि वे उसका इनाम कार तैयार रखे मैं घर आ रहा हूं। घर आते आते वो ख्यालों में गाडी को घर के आँगन में खड़ा देख रहा था। जैसे ही घर पंहुचा उसे वहाँ कोई कार नही दिखी। वो बुझे मन से पिता के कमरे में दाखिल हुआ। उसे देखते ही पिता ने गले लगाकर बधाई दी और उसके हाथ में कागज में लिपटी एक वस्तु थमाई और कहा लो यह तुम्हारा गिफ्ट। पुत्र ने बहुत ही अनमने दिल से गिफ्ट हाथ में लिया और अपने कमरे में चला गया। मन ही मन पिता को कोसते हुए उसने कागज खोल कर देखा उसमे सोने के कवर में रामायण दिखी ये देखकर अपने पिता पर बहुत गुस्सा आया। लेकिन उसने अपने गुस्से को संयमित कर एक चिठ्ठी अपने पिता के नाम लिखी कि पिता जी आपने मेरी कार गिफ्ट न देकर ये रामायण दी शायद इसके पीछे आपका कोई अच्छा राज छिपा होगा। लेकिन मैं यह घर छोड़ कर जा रहा हूँ और तब तक वापस नही आऊंगा जब तक मैं बहुत पैसा ना कमा लू। और चिठ्ठी रामायण के साथ पिता के कमरे में रख कर घर छोड कर चला गया। समय बीतता गया.. पुत्र होशियार था और होनहार भी। जल्दी ही बहुत धनवान बन गया। शादी की और शान से अपना जीवन जीने लगा। कभी-कभी उसे अपने पिता की याद आ जाती तो उसकी चाहत पर पिता से गिफ्ट ना पाने की खीज हावी हो जाती, वो सोचता माँ के जाने के बाद मेरे सिवा उनका कौन था। इतना पैसा रहने के बाद भी मेरी छोटी सी इच्छा भी पूरी नहीं की। यह सोचकर वो पिता से मिलने से कतराता था। एक दिन उसे अपने पिता की बहुत याद आने लगी। उसने सोचा क्या छोटी सी बात को लेकर अपने पिता से नाराज हुआ अच्छा नहीं हुआ। ये सोचकर उसने पिता को फोन लगाया बहुत दिनों बाद पिता से बात कर रहा हूँ। ये सोच धड़कते दिल से रिसीवर थामे खड़ा रहा। तभी सामने से पिता के नौकर ने फ़ोन उठाया और उसे बताया की मालिक तो दस दिन पहले स्वर्ग सिधार गए और अंत तक तुम्हें याद करते रहे और रोते हुए चल बसे। जाते जाते कह गए कि मेरे बेटे का फोन आया तो उसे कहना कि आकर अपना व्यवसाय सम्भाल ले। तुम्हारा कोई पता नही होने से तुम्हें सूचना नहीं दे पाये। यह जानकर पुत्र को गहरा दुःख हुआ और दुखी मन से अपने पिता के घर रवाना हुआ। घर पहुँच कर पिता के कमरे जाकर उनकी तस्वीर के सामने रोते हुए रुंधे गले से उसने पिता का दिया हुआ गिफ्ट रामायण को उठाकर माथे पर लगाया और उसे खोलकर देखा। पहले पन्ने पर पिता द्वारा लिखे वाक्य पढ़ा जिसमें लिखा था "मेरे प्यारे पुत्र, तुम दिन दुनी रात चौगुनी तरक्की करो और साथ ही साथ मैं तुम्हें कुछ अच्छे संस्कार दे पाऊं.. ये सोचकर ये रामायण दे रहा हूँ।", पढ़ते वक्त उस रामायण से एक लिफाफा सरक कर नीचे गिरा जिसमें उसी गाड़ी की चाबी और नगद भुगतान वाला बिल रखा हुआ था। ये देखकर उस पुत्र को बहुत दुख हुआ और धड़ाम से जमींन पर गिर रोने लगा। हम हमारा मनचाहा उपहार हमारी पैकिंग में ना पाकर उसे अनजाने में खो देते हैं। पिता तो ठीक है। ईश्वर भी हमें अपार गिफ्ट देते हैं, लेकिन हम अज्ञानी हमारे मन पसन्द पैकिंग में ना देखकर, पा कर भी खो देते हैं। हमें अपने माता पिता के प्रेम से दिये ऐसे अनगिनत उपहारों का प्रेम का सम्मान करना चाहिए और उनका धन्यवाद करना चाहिये। *****

  • जलील

    निर्मला ठाकुर बच्चों को स्कूल भेज, पतिदेव को ऑफिस विदा कर, घर का काम निपटाकर, नहा-धोकर एक कप चाय लेकर लॉन में आ बैठी। मार्च की सुबह की कुनकुनाती धूप बड़ी भली लग रही थी। पिंकू के लिए स्वेटर बुन रही थी। उसका गोला भी हाथ में था। इतने में पड़ोस की नीता आती दिखाई दी। "हम आ जाएं भाभी?" बोलती हुई वह गेट खोलकर अंदर आ गई। मैं भी उठने का उपक्रम करते हुए बोली, "अरे आओ नीता।" नीता को मालूम है कि इस वक़्त मैं खाली होती हूं, इसीलिए जब भी कभी आती है, इसी वक़्त आती है। "नीता, तुम बैठो। मैं एक कप चाय बना लाऊं।" कहते हुए उठ ही रही थी कि उसने हाथ पकड़कर बैठा लिया, बोली, "भाभी, बिल्कुल इच्छा नहीं है।" नीता बहुत बेचैन सी लग रही थी। मैं भी उसकी इस बैचेनी का कारण पूछे बिना नहीं रह सकी। वैसे तो जब से वो विवाह के बाद आई है, मुझसे इतनी घुलमिल गई है कि हम दोनों ही अपने मन की बातें एक-दूसरे से करती रहती हैं। पड़ोस में ही अग्रवाल आंटी रहती हैं, उनके बच्चे भी मुझसे काफ़ी खुले हुए हैं, ख़ासतौर से छोटा वाला आशु। जब आशु का विवाह हुआ, तो आंटी ने काजल डालने की रस्म मुझसे ही करवाई और बड़ी भाभी होने का नेग भी दिया। मुंह दिखाई की रस्म के दिन जब मैंने नीता के हाथ में अपना तोहफ़ा रखा तो आंटी के कहने पर उसने मेरे पैर भी छुए, तब मैंने ही कहा था, "आंटी, प्लीज़ इसे मैं अपने पैर नहीं छूने दूंगी, इसे तो गले से लगाऊंगी। मुझे तो इसे देखकर अपनी छोटी बहन की याद आ गई।" उस दिन के बाद से हमारे बीच एक अजीब सा रिश्ता बन गया। कहती तो वो मुझे भाभी थी, पर मानती बड़ी बहन की तरह थी। शुरू-शुरू में नए घर-परिवार में सामंजस्य बैठाने में तकलीफ़ आती है, मैं भी गुज़र चुकी थी उस दौर से। अतः मैं हर बात की सीख छोटी बहन के नाते से उसे देती। धीरे-धीरे वह घर में घुलमिल गई। हमारे रिश्ते और प्रगाढ़ होते चले गए। बड़ी बहुएं अपने-अपने घर जा चुकी थीं, क्योंकि दोनों बड़े भैया बाहर नौकरी करते थे। आशु मां के साथ रहता था, अतः नीता को ही घर संभालना था। नीता इस बीच प्यारी-सी बेटी की मां बन गई। अब तो वह घर-परिवार में व्यस्त हो गई। फिर भी समय निकालकर कभी-कभी आ जाती। अग्रवाल आंटी और नीता दोनों में काफ़ी पटती थी, अतः घर का वातावरण सौहार्दपूर्ण रहता था। नीता को देखकर कोई कह नहीं सकता था कि वह एक बच्चे की मां है। गोरा रंग, सुतवां नाक, बड़ी-बड़ी बोलती सी आंखें, घने काले बाल, अच्छा क़द, कुल मिलाकर ऐसा लगता मानो अप्सरा ही पृथ्वी पर उतर आई हो। मैं तो आशु से कभी-कभी मज़ाक भी करती, "तेरे जैसे लंगूर को यह हूर की परी कैसे मिल गई?" इस पर वह, "भाभी आप भी…" कहकर रह जाता। बेटी भी मां पर गई थी, बिल्कुल गुड़िया-सी। "भाभी, आज हम काफ़ी तनाव में हैं, पर कैसे कहें सारी बातें, समझ नहीं आ रहा, आप भी न जाने क्या सोचेंगी सुनकर हमारे बारे में।" "अरे पगली, ऐसी भी क्या बात हो गई? क्या आशु से लड़ाई हो गई या आंटी से कुछ कहासुनी हो गई?" "नहीं भाभी! ऐसी कोई बात नहीं है। भाभी, आप क़सम खाइए, किसी से कुछ नहीं बताएंगी, यहां तक कि भाई साहब से भी नहीं।" "लो, तुम्हारी कसम खाती हूं। अब तो बोलो, ऐसी क्या बात हो गई?" मेरा यह कहना था कि उसका रोना शुरू हो गया। मैं स्तब्ध रह गई, ऐसी क्या बात हो गई? अभी तक कभी मैंने उसे इतना बेहाल नहीं देखा था। मेरे चुप कराने पर, सांत्वना देने पर उसने जो कुछ बताया, चुपचाप सुनती रही मैं। "भाभी। बात हमारी शादी के पहले की है। हम गर्मी की छुट्टियों में अक्सर मम्मी के साथ अपनी नानी के यहां जाया करते थे। हम भाई-बहन, हमारे मामाओं के बच्चे, सब हमउम्र होने के कारण आपस में काफ़ी घुलमिल गए थे। हमारे मंझले मामाजी का बेटा तुषार उम्र में हमसे साल भर बड़ा है। धीरे-धीरे हमारी दोस्ती गहरी होती चली गई। शुरू-शुरू में हमने विशेष ध्यान नहीं दिया कि वो हमसे कुछ ज़्यादा ही खुला हुआ क्यों है, लेकिन बाद में आभास हुआ कि उसके मन में हमारे लिए कुछ और ही भावना थी। उसका व्यक्तित्व इतना आकर्षक कि हम भी उसके प्रति आकर्षित होते चले गए। पिक्चर जाना, घूमना-फिरना, घंटों बातें करना, ये सब हमें और क़रीब लाता गया। उम्र के उस मोड़ पर भावनाओं की रौ में बहकर हमने ऊंच-नीच का ख़्याल नहीं किया। हमारी नानी कभी-कभी हमारी मम्मी से कहती भी थीं कि इस तरह इनका ज़्यादा मेलजोल ठीक नहीं। तब मम्मी कहती, "मां, आप अब पुराने ज़माने की हो गई हो। आजकल के बच्चे अपने हमउम्र भाई-बहनों के साथ दोस्त सा व्यवहार करते हैं। आपकी आशंका निर्मूल है।" इस पर नानी भी चुप हो जातीं, काश! उस समय नानी की बातों पर मम्मी ने ध्यान दिया होता। उम्र के उस नाज़ुक मोड़ पर जो रिश्ते बने, उनकी नैतिकता का आभास हमें तब हुआ, जब तुषार हमारे लौट जाने पर भी हमें पत्र लिखता, घंटों फोन पर अपनी भावनाओं का इज़हार करता। हमारी शादी पक्की हो जाने पर उसके आक्रोश भरे पत्र आने लगे। हालांकि उसकी शादी हमसे पहले ही हो गई थी और वो दो बच्चों का पिता भी है, पर हमारी तरफ़ उसका आकर्षण बना रहा। हमने उसे पत्र लिखने, फोन करने के लिए मना किया, तो वो हमें ही दोषी ठहराने लगा कि हमने उसकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया है। भाभी, हम मानते हैं कि ग़लती हमारी भी थी, जो हमने उसको अपनी ओर आकर्षित होते देखकर भी ख़ुद सचेत होने की बजाय उसके आकर्षण में बह गए। हद तो यह है भाभी कि वो अब हमारे यहां भी फोन करने लगा है। हमने उसे फोन करने से मना किया, तो उल्टी-सीधी बातें करने लगा। अब तो हमारी हालत यह हो गई है कि अपने किए पर ग्लानि तो होती ही है, साथ ही यह डर भी लगा रहता है कि आशु और मम्मीजी को पता चलेगा तो क्या होगा? भाभी, हम तो शर्म से डूबकर मर ही जाएंगे। आशु इतने अच्छे हैं कि हमने उनके साथ ऐसा विश्वासघात किया, यह सोचकर ही हम बहुत शर्मिन्दगी महसूस करते हैं। अब कल ही की बात है। तुषार का रात को फोन आया था। फिर वही रटी-रटाई बातें कह रहा था। इस पर हमने उसे बुरी तरह डांट दिया कि क्या तुमको ऐसी बातें करते शर्म नहीं आती? तुम्हारी बीवी है, बच्चे हैं, मैं भी एक बच्चे की मां हूं, क्या अब यह तुम्हें शोभा देता है? आगे फोन किया, तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा। इस पर वह बेशर्मी से बोला, "जरूर फोन करूंगा। एक बार नहीं, बार-बार करूंगा बोलो, क्या बिगाड़ लोगी मेरा?" यह तो गनीमत थी भाभी कि उस वक़्त तक ये ऑफिस से लौटे नहीं थे और मम्मीजी भी सो चुकी थीं। अब आप ही कोई रास्ता बताइए, हमें तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा।" और फिर वह सिसक-सिसक कर रो पड़ी। मैंने भी दुनिया देखी है, इतना लिखती-पढ़ती हूं, उसकी मनोव्यथा सुनकर समस्या का क्या निदान हो, यह सोचने लग गई। परेशान तो मैं भी हो उठी थी। नहीं चाहती थी कि कोई ऐसी घटना हो, जिससे दो परिवार उजड़ें। नीता तो रो-रो कर बेहाल हो रही थी और मैं असमंजस की स्थिति में थी। उसे दिलासा दिया कि कोई-न-कोई उपाय ज़रूर निकल आएगा। चूंकि ग़लती नीता की भी थी, अतः मामला ज़्यादा उलझ गया था। अक्सर हम देखते हैं कि उम्र के उस नाजुक मोड़ पर जरा-सा भी पांव फिसला नहीं कि गर्त में धकेल देता है। पर उस समय अच्छे-बुरे की समझ किसे होती है? बड़े-बूढ़े कुछ दख़लअंदाज़ी करते हैं, तो उन्हें दक़ियानूसी या उम्र का फासला कहकर, अनजाने ही किशोर वर्ग ऐसी ग़लतियां कर बैठता है, जिसका नतीज़ा कभी-कभी बहुत भयावह हो सकता है। नीता तो पूरी बात बताकर चली गई, पर मेरा मन बहुत असहज हो उठा। सोचती रही कि इस समस्या का क्या निराकरण हो? पर कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। कहते हैं ना कि भगवान सारे दरवाज़े एक साथ बंद नहीं करता, एक-न-एक दरवाज़ा तो खुला छोड़ ही देता है। हर भूल को सुधारने के लिए रास्ता भी वही सुझाता है। हुआ यूं कि ऑफिस के काम से  आशु को छह-सात दिनों के लिए टूर पर जाना था। पर सिर्फ़ आशु के जाने से रास्ता निकल नहीं रहा था। इसी बीच खुदा के करम से अग्रवाल आंटी के सत्संग की स्त्रियां हरिद्वार जा रही थीं। आंटी की भी जाने की इच्छा थी, पर नीता अकेली रह जाएगी, यह सोचकर वह प्रोग्राम नहीं बना रही थीं। तब मौक़े का फ़ायदा उठाने के लिए मैंने आंटी को दिलासा दिया कि नीता की देखरेख मैं कर लूंगी। आंटी को मुझ पर पूरा विश्वास था, अतः उन्होंने निश्चिंत होकर प्रोग्राम बना लिया। आशु और आंटी के जाने के बाद रात को सोने के लिए मैं उसके घर जाने लगी। पहली रात शांति से गुज़री। तुषार का फोन आने पर क्या करना था, यह हमने पहले ही सोच लिया था। भगवान ने हमारी जल्दी ही सुन ली। दूसरी रात तुषार का फोन आया, तो नीता ने ही फोन उठाया। हालचाल पूछने के बाद कहा, "तुषार, मम्मीजी यानी मेरी सासूजी तुमसे कुछ बात करना चाहती हैं।" इस पर वह हकलाते हुए बोला, "क्यों? आंटीजी को मुझसे क्या बात करनी है?" वह आगे कुछ बोल पाता, इससे पहले ही मैंने रिसीवर ले लिया। मेरी आवाज़ सुनते ही वह घबरा गया। मैंने कहा, "बेटा, मैं नीता की सास ही नहीं, उसकी मां भी हूं। और वह भी मेरी बहू नहीं, बेटी है। उसने तुम्हारे बारे में मुझे सब कुछ बता दिया है। अब ज़रा अपनी पत्नी को फोन देना, उसको भी तुम्हारी जलील हरकतों के बारे में बता दूं।" इस पर वह माफ़ी मांगने लगा, कहने लगा, "आंटी, मैं क़सम खाता हूं, आगे से नीता को परेशान नहीं करूंगा, मेरी पत्नी को पता चल गया, तो हंगामा खड़ा हो जाएगा। वैसे ही वह बहुत शक्की स्वभाव की है। मेरी गृहस्थी उजड़ जाएगी। प्लीज़ आंटी, ऐसा मत करना, प्लीज़।" मैंने धमकाते हुए कहा, "आगे कभी तुमने नीता को तंग करने की कोशिश भी की, तो उसका अंजाम बहुत बुरा होगा।" और मैंने फोन रख दिया। नीता सारी बातें सुन रही थी। अपनी समस्या का यूं समाधान होते देख ख़ुशी के मारे रो पड़ी और मेरे गले लग गई। तब मैंने ही उसको प्यार से कहा, "पगली, दुख में भी रोती है और ख़ुशी में भी। जब तक ये तेरी बड़ी बहन कम भाभी तेरे साथ है, किसी दुख की छाया भी तुझ पर नहीं पड़ने दूंगी। अरे! यह तो अब ज़िंदगीभर तुमसे डरता रहेगा। ऐसे लोगों से निबटने का तरीक़ा आना चाहिए। ज़िंदगी में भूल किससे नहीं होती, पर अपनी भूल का एहसास समय रहते ही कर लो, तो नौबत यहां तक नहीं पहुंचती।" उस रात हम काफ़ी देर तक बातें करते रहे। नीता बार-बार मेरा शुक्रिया अदा कर रही थी। इतने दिनों के मानसिक तनाव के बाद अब वह काफ़ी सुकून का अनुभव कर रही थी। मम्मीजी और आशु के लौट आने के दिन क़रीब आ रहे थे। मुझे भी ख़ुशी थी कि समय पर ही सारी समस्याओं का अंत हो गया। इस घटना के बाद से नीता और मैं और क़रीब आ गए। आज नीता दो प्यारे बच्चों की मां है। ख़ुशहाल गृहस्थ जीवन व्यतीत कर रही है। नीता की सुखी गृहस्थी देखकर संतोष होता है। कभी-कभी विचार आता है कि न जाने ऐसे कितने तुषार पैदा होते रहेंगे, जिनके चंगुल में नीता जैसी भोली-भाली बालिकाएं फंस जाती हैं। ऐसी स्थिति में यह फ़र्ज़ है हम बड़ों का कि अपने बच्चों का सही मार्गदर्शन करें। जीवन की ऊंच-नीच समझाएं, रिश्तों के नैतिक मूल्यों का बोध कराएं। मेरी बेटी भी बड़ी हो रही है और मैं काफ़ी सचेत रहती हूं। मेरी टोकाटाकी की आदत से कभी-कभी वह कह उठती है, "जेनरेशन गैप मम्मी, जेनरेशन गैप।" पर जीवन के अनुभवों से जो दिखा है, वही संस्कार अपनी बेटी में डालने की कोशिश करती हूं। चाहती हूं कि उसे सही दिशा, ज्ञान और सही मार्गदर्शन मिले, ताकि वह जीवन के मूल्यों का सही विश्लेषण कर सके और वही आगे आनेवाली पीढ़ी को भी विरासत में दे सके। *****

  • घर का भोजन

    सरला सिंह एक स्त्री के पास एक बड़ा सा घर था, बड़े-बड़े १२ कमरों वाला। वह स्त्री अकेली रहती थी, तो उसने सोचा क्यों न वह उसमें नवयुवकों को पेइंग गेस्ट के रूप में रख लूं। आमदनी भी होगी एवं मेरा अकेलापन भी दूर हो जाएगा। उसने हर कमरे में दो-दो पलंग बिछवा कर शेष सारी सुविधाएं जुटा लीं। उसे भोजन बनाने और खिलाने का भी बहुत शौक था। सुबह सब को नाश्ता करवाती और दोपहर के लिए भी पैकेट बना कर देती। रात को तो खैर सबको गर्मागर्म भोजन मिलता ही था। और वह स्त्री यह सब पूरा महीना बिना कोई छुट्टी लिए प्रेम पूर्वक करती थी। छह माह बीत गए। एक दिन उसकी बहुत पुरानी सखी उससे मिलने आई। बातचीत में उस स्त्री ने अपनी सहेली को बताया कि वह अब महीने में केवल २८ दिन ही भोजन बनाती है। बाकी के दो या तीन दिन सब को अपने भोजन की व्यवस्था स्वयं करनी होती है। सहेली को कुछ आश्चर्य हुआ और उसने पूछा, “ऐसा क्यों? पहले तो तुम इन्हें पूरा महीना प्यार से भोजन करवाती थी।" स्त्री ने कहा, “मैं पैसे भी अब २८ दिन के ही लेती हूं।” “पर यह लोग तो तुम्हें पूरे महीने के देने को तैयार है न! अब यह बेचारे युवक दो दिन क्या खाते होंगे?” “बात पैसों की नहीं है।” “तो फिर?” “मैं पूरे मन से खाना बनाती थी और खिलाती भी प्यार से थी, परन्तु मुझे हर समय शिकायतें ही सुनने को मिलती। हर दिन कोई न कोई कमी निकाल ही लेते। कभी "नमक कम है" और कभी "रोटी ठंडी है” कह कर मुझे सुनाते। परन्तु जब से उन्हें दो दिन भोजन ढंग का नहीं मिलता और बाहर पैसे भी अधिक देने पड़ते हैं, तो अब वह मेरे बनाए भोजन की कद्र करने लगे हैं और बिना त्रुटि निकाले खाते हैं। मैं अपनी ग़लती सुधारने को तैयार हूं, परंतु बिना बात नुक़्ताचीनी सुनने को नहीं।” *****

  • और क्या चाहिए?

    सरला सिंह   सुबह पांच बजे अलार्म बजा, सुभी आज बेमन से उठी। अंग-अंग दर्द कर रहा था, दो मिनट और लेट जाती हूं। उसमें ही दस मिनट निकल गये। आखिर सवा पांच पर तो उठना ही पड़ा। अलसाई आंखों को खोला और बाथरूम में जाकर मुंह धो आई। फिर फटाफट किचन में गई, एक बर्नर पर पानी चढ़ाया, सास को गर्म पानी दिया फिर सब्जियों को फ्रिज से निकाला। क्या बनाऊं, कल इसके लिए सोच नहीं पाई थी। कल अचानक से पास में रह रहा बुआ सास का परिवार आ गया, डिनर भी यहीं था। रात को वो देर तक बैठे फिर उनके जाने‌ में देर हो गई फिर सोने में और सुबह आंख खुलने में। भिंडी बना लेती हूं। ये सोचते ही लग गई भिंडी काटने में, सास आराम से गर्म पानी घूंट घूंट कर पी रही थी। मन में तो आया कह दे, मांजी आप सब्जी काट दें तो मेरी मदद हो जायेगी। पर हिम्मत नहीं हुई, रोज सोचती है पर कह नहीं पाती। शादी को दस साल होने को जा रहे हैं, पर आज तक कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। सुभी के आते ही सास ने किचन से सन्यास ले लिया। फटाफट सुभी ने भिंडी काटकर छौंक दी, इतने में बच्चों को उठाने का वक्त हो गया। एक तरफ सब्जी, दूसरे बर्नर पर चाय, तीसरे पर दूध चढ़ाकर बच्चों को उठाने चल दी। छोटे बच्चों को उठाओ, सहलाओ, लाड़ लड़ाओ, गोदी में बिठाकर पुचकारो तब जाकर उठते हैं। उसमें भी दस से पन्द्रह मिनट लग जाते हैं। "मम्मी आज दूध नहीं पीना, आप पिला दो तो पी लूंगी।" मन तो करता है अपने बच्चों को अपने हाथों से खिलाऊं, पर उसी वक्त गैस पर रखी सब्जी हिलानी थी, नहीं तो जल जाती। "छोटी अपने आप पियो मुझे और भी काम हैं।" सुभी ने यूं ही बनावटी गुस्से में कहा। कभी कभी लगता है मैं अपने बच्चों को टाइम नहीं दे पाती, अब क्या करूं? शिखा ने फटाफट परांठे सेंके और दोनों बच्चों को तैयार करके टिफिन पैक कर दिया। "अरे! मम्मी पानी की बोतल?" "हां वो तो यही रह गई।" हड़बड़ी में सुभी ने वो भी भरी। दो मिनट भी देर हो जाये तो बस रूकती नहीं है, फिर बच्चों को स्कूटी से इतना दूर छोड़ने जाओं। "सुभी चाय" ससुर जी अखबार का पन्ना पलटते हुए बोले। जैसे तैसे चाय दी और बैग लेकर दौड़ी। बच्चों को बस में बैठाकर बोझिल कदमों से घर आते हुए पार्क में टहल रही औरतों को देखकर उसका भी मन हुआ कि वो भी सुबह की ताज़ा हवा में टहले पर अभी उसे नैतिक का टिफिन पैक करना था, नाश्ता बनाना था। घर आकर उसने रोज की तरह सास, ससुर, पति के लिए नाश्ता बनाया, फिर सारे बिस्तर समेटे, यहां-वहां पड़े कपड़े उठाये, वाशिंग मशीन में कपड़े लगाये। किचन के दूध, दही के बर्तनों को खाली किया। उसने तसल्ली से बैठकर चाय भी नहीं पी कि तभी खबर मिली कि आज मेड नहीं आयेगी, उसके पांव में चोट लगी है। घर का काम निपटाने में वक्त लग गया, लंच बनाया, लंच का काम निपटा था कि बच्चों को लाने का वक्त हो गया, छोटी एक बजे स्कूल से आती है। उसे लेकर आई, उसका खाना पीना किया, कपड़े बदले, बड़ी मुश्किल से उसे सुलाया था कि तभी बड़े बेटे को लाने का टाइम हो गया। सुभी का मन कर रहा था कि वो भी एक झपकी ले ले, पर फिर स्कूटी स्टार्ट की और बेटे को तीन बजे बस स्टॉप से लेकर आई। दोनों बच्चों के आने का अलग वक्त है, दो बार चक्कर हो जाते हैं। ससुर जी टीवी देख रहे थे, वो भी ला सकते थे, पर ये भी सुभी का काम था। सोनू की स्कूल की बातें सुनने में लीन थी, उसे खाना दिया था कि छोटी शोर शराबे से उठ गई। फिर उसे बहलाने में लग गई। सुभी, चार बज गए, चाय का टाइम हो गया, बना दो। सुभी की सास पलंग पर करवट बदलते हुए बोली। सुभी तेज कदमों से किचन में दौड़ी और चाय चढ़ा दी। अपनी भी चाय का कप लेकर कमरे में आई। दोनों बच्चों की डायरी चैक की, उन्हें होमवर्क करवाया, छोटी का डिक्टेशन था, उसे स्पेलिंग याद करवाई, सोनू के कल मैथ्स का टेस्ट था, उसे समझाया। इसी में छह बज गये, सास-ससुर जल्दी खाना खा लेते हैं, एक बर्नर पर सब्जी चढ़ाई तो दूसरे पर बच्चों के लिए दूध। सीटी बजते ही आटा मला, बच्चों को दूध देकर तैयार किया और दोनों को ड्राइंग क्लास छोड़कर आई। आकर सास-ससुर को खाना खिलाया फिर बच्चो को लाने का वक्त हो गया। शाम को पार्क में चहलकदमी करती औरतों को देखकर उसका भी मन करता वो भी कुछ देर यहां रूके, सबसे बात करे। लेकिन नैतिक के ऑफिस से आने का वक्त हो जाता है, जाते ही चाय चढ़ा दी। तभी नैतिक के चिल्लाने की आवाज आई, सुभी मेरा टॉवल कहां है? कितनी बार बोला है मुझे बाथरूम में चाहिए, मुंह हाथ धोने के बाद चाहिए होता है। वो मैंने धो दिया था, बाहर सूख रहा है अभी लाती हूं। सुभी जैसे ही टॉवल लेकर आई। नैतिक के मम्मी-पापा कह रहे थे कि "पता नहीं सारा दिन करती क्या है? घर में ही तो रहती है" ये सुनकर सुभी कड़वे घूंट पीकर रह गई। सदा से औरतों के घरेलू कामों को कम आंका जाता रहा है। वो कितना भी कर लें, सुबह से रात तक लगी रहती हैं, घर के लिए अपनी नींद, चैन, सेहत, करियर तक त्याग देती हैं, फिर भी यही सुनने को मिलता है कि घर पर ही तो रहती है, कुछ नहीं करती। ये उसके रोज के दिन में सी एक था लेकिन आज कुछ अलग हुआ सुभी का दिल आहत हो गया था क्योंकि नैतिक ने भी सहमति के साथ सुना था। सब कुछ देखते जानते हुए भी उसके लिए एक शब्द भी नही बोला। एक औरत को पति से ही उम्मीद होती है, जब वो भी टूट जाय तो अस्तित्व ही नही रहता खुद का, ऐसा लगता हैं। सुभी दूसरे दिन उठी यथावत काम किया, उसके बाद अपने और बेटी के कपड़े पैक किये, नैतिक को फोन किया। "मैं कुछ दिन के लिए मायके जा रही हुँ, माँ ने बुलाया है, 1 साल हो रहा है उनको देखा नही है।" "अरे ऐसे कैसे अचानक" और माँ को ही देखना है तो में दिखा लाऊंगा रुकने की क्या जरूरत है। मेरी भी तबियत ठीक नही है, आराम कर लूंगी कुछ दिन वहां सुभी ने कहा। अरे वो तो यहां भी कर सकती हो और करती ही हो नैतिक ने खीजते हुए कहा। हां तो आराम ही तो करती हुँ यहां की जगह वहां कर लूँगी। अब तो नैतिक आगबबूला हो गया ठीक है जाओ बच्चों को भी ले जाना, हो गई उनकी तो पढ़ाईं। गुड़िया को ले जा रही हुँ स्कूल में बात कर ली है, सोनू के स्पोर्ट्स चल रहे है तो यहीं रहेगा। कहकर फोन काट दिया। जाते समय सास ससुर के पैर छुए और निकल गई, उन्होंने पूछना भी जरूरी नही समझा। बेटे से बात हो गई थी। शायद तो गुस्से में देख रहे थे, पिछले 10 सालों में कभी कोई कसर नही छोड़ी थी। घर के काम में सभी की सेवा खुशामद करने में, लेकिन कभी प्यार के 2 बोल सुनने नही मिले, कभी पलट के नही बोला ना आज हिम्मत थी सो चुपचाप चली गई। इधर फिर सुबह हुई, नैतिक लेट उठा बेटे का भी स्कूल छूट गया, किचिन में आया तो माँ ने चाय बड़ी मुश्किल से बनाई, नास्ता बाहर किया और घर में भी सबको दे गया। जैसे तैसे सुबह का निपटा तो दोपहर के खाने की चिंता सास को सताने लगी कहां तो मुँह सी निकलते ही हर चीज हाजिर हो जाती थी और अब दाल रोटी भी नही बन पा रही। दाल चावल बना लिए, वो ही सबने खाय। साम को चाय फिर डिनर सो हालात खराब हो गई सासु माँ की। उस पर कपड़े साफ सफाई से लेके हजारों काम घर में दिखने लगे उसी घर में जिसमें कोई काम नही था सुभी के लिए। दूसरे दिन ससुर को छोड़ने जाना था बेटे को स्कूल और फिर लेने जो उनको पहाड़ सा काम लग रहा था। बात बात पर सुभी का नाम चिल्लाते सभी फिर शांत हो जाते। 2 दिन बीत चुके थे तीसरे दिन नैतिक शाम को लौटा तो मम्मी पापा के ही पास बैठ गया। पापा ने कहा "क्या हुआ बेटा" कोई काम ठीक से नही हो रहा है, ना टाइम सी उठ पा रहा ना सो पा रहा ना ही पेट भर खा पा रहा हुँ। ऑफिस का काम भी पेंडिंग है। उधर बेटे के स्कूल सी नोटिस आया है, होमवर्क नही हुआ है। हमारा भी यहीं हाल है "ना जाने बहु कब आएगी" सुभी के 2 दिन ना रहने से हमारी ये हालत हो गई है, और हम कहते है "वो करती क्या हैं" नैतिक की आँखे भर आई थी। हां बेटा बहु ने घर ऐसे संभाला था जैसे लगता था अपने आप ही सब हो रहा है। काम का बोझ उसी को समझ आता है जो ढोता है, करवाने बाले को जब समझ आता है जब वो करता है। हम सबने अपनी जिम्मेदारी उसके ऊपर ही छोड़ दी इसलिए काम की आदत ही छूट गई। वो हमारे हिस्से का भी काम कर रही थी बिना किसी शिकायत के, जा बेटा उसे ले आ। दूसरे दिन नैतिक सुभी को ले आया वो भी आ गई बिना कुछ कहे क्योकि घर की हालत क्या होगी उसको अंदाजा था। और नैतिक का लेने जाना भी गवाही दे ही रहा था। दूसरे दिन सुभी उठी तो नैतिक उठ चुका था बच्चों को को तैयार कर रहा था, सुभी हड़बड़ा सी गई कैसे आँख नही खुली तुरंत बाथरूम में गई, आकर सीधा किचिन में जाने लगी तो नैतिक ने बोला। तुम चाय बना लाओ हम साथ में पियेंगे। वो किचिन में गई तो सासु माँ पहले से थी बोली चाय ले जाओ बहु मैंने बना दी है, हम लोगों ने पी ली है नास्ते के लिए सब्जी काट दी है आकर बना लेना। आज पहली बार सुकून से नैतिक के साथ चाय पी थी सुभी ने।  फिर किचिन में आके नास्ता बनाया बच्चों को रखा और जैसे ही स्कूटी की चाभी उठाई, ससुर बोले लाओ बहु में छोड़ आऊँ बच्चों को थोड़ी हवा भी लग जायगी सुबह की इतने सरलता से सरा काम हो गया था। सुभी आकर शांत बैठ गई। सासु माँ आई नैतिक भी। सासु माँ बोली बहु हमें समझ आ गया है, वो जो तु बताना चाहती थी। अब से हम सब तुम्हारे साथ काम में हाथ बटायेंगे, हम भूल गये थे कि एक बहु के आने से हमारी जिम्मेदारियाँ बट जाती हैं, खत्म नही होती तू नौकरानी नही बहुरानी है। नैतिक ने कहा कई बार हमने बोला है तुमको "तुम करती क्या हो" आज समझ आ गया है, ये घर सूचारु रूप से सिर्फ तुम्हारी बदौलत ही चलता है। तभी ससुर जी आ गये बोले बहु आज हम सब अपनी जिम्मेदारी समझेंगे जो बन सकेगा तुम्हारी हेल्प करेंगे। नैतिक ने सुभी से पूछा बताओ तुम्हें क्या चाहिए। सुभी ने कहा, "बस अब और क्या चाहिए" सुभी रो रही थी सबकी आँखों में आँसू थे लेकिन ये खुशी के आँसू थे। *****

  • बात जो भारी पड़ गई

    शुभ्रा बैनर्जी सुधा के छोटे ननदोई जी रेलवे में इंजीनियर के पद पर कार्यरत थे। पुरोहित का काम उनके परिवार में पीढ़ियों से चला आ रहा था। शादी के बाद पहली बार मायके आकर ही छोटी ननद ने बताया था "भाभी, ससुराल में सभी बहुत नियम कायदे से रहते हैं। घर में बने मंदिर में पहले पूजा होती है, फिर कोई काम शुरू होता है। पूजा-पाठ में थोड़ी सी भी कमी बर्दाश्त नहीं करते, तुम्हारे ननदोई।" सुधा की सास भी पंडित की बेटी थीं। अपनी बेटी के मुंह से उसकी ससुराल में चलने वाले नियम-कानून सुनकर कहां पीछे रहने वाली थी, झट बोलीं "हमारे घर में भी नियम-कानून थे। मेरे पिताजी भी पंडिताई करते थे। समय के साथ तोड़-मरोड़ दिए सारे नियम मैंने। "ननद इशारे से मां को चुप रहने को कहती रही, पर मां तो दामाद के सामने चुप ही नहीं हो रहीं थीं। ननदोई ने सुबह से नहा धोकर अपना पूजा-पाठ शुरू कर दिया,  तो मां फिर बोल पड़ीं "ये तो कुछ भी नहीं, मेरे पिताजी आठ घंटे ध्यान में रहते थे। हमारी हिम्मत ही नहीं होती थी कि पूजा घर में चले जाएं।" सुधा ने बड़ी मुश्किल से दो-तीन दिन उन्हें संभाला। ननद की शादी के कुछ महीने बाद ही सुधा को बेटा हुआ। छठी पूजा में सास के आग्रह पर छोटे दामाद आए थे पूजा करने। छोटे से बच्चे के साथ सुधा एक कमरे में अलग रह रही थी। दामाद के सामने सासू मां जोर-शोर से नियमों का पालन कर रही थी। कड़कड़ाती ठंड में जितनी बार वो अपने पोते को गोद में लेती, नहाना पड़ता। सुधा को ननदोई के रहते भरपूर आराम मिला। दो दिन में ही सासू मां की हालत खराब हो चुकी थी। दामाद जी भी जान-बूझकर नए-नए नियम बताए जा रहे थे। उनकी विदाई के बाद सासू मां ने चैन की सांस ली। सुधा की ननद ने वापस जाकर फोन पर बताया कि ननदोई जी नाराज हो रहे थे, कि कुछ नियम नहीं मानते तुम लोग।" सुधा सास और दामाद के बीच चल रहे शीत युद्ध से परेशान हो गई थी। भगवान ने बहुत जल्दी ही हल निकाल दिया। सुधा की छोटी ननद मायके आई पहले बच्चे के समय। निर्धारित तिथि निकल जाने पर भी प्रसव पीड़ा नहीं हुई। ननदोई जी बेहाल हो रहे थे, ससुराल में उचित चिकित्सकीय सुविधा ना होने पर। तय तिथि से दो दिन के बाद छोटी ननद ने बेटी को जन्म दिया। ननदोई जी का मुंह बरैया काटे सा फूल गया। गंभीर मुद्रा में बैठे हुए दामाद को देखकर सासू मां का तीर फिर चला "अरे बेटा, तुम क्यों परेशान हो रहे हो? भगवान‌ ने लक्ष्मी दी है। "उनके शब्द पूरे भी नहीं हुए कि दामाद जी खिसियाकर बोले "मां,मुझे पता था कि बेटी ही होगी। मुझे कोई दुख नहीं है। "सुधा समझ रही थी कि मन ही मन बेटे की चाह थी मन में। ननद की अस्पताल से छुट्टी हो गई। पंडित जी के रहते सारे कायदे कानून मानने पड़ेंगे, सोचकर सुधा ने एक कमरे में उसके और बच्चे के रहने की और बैठक में दामाद जी के सोने की व्यवस्था कर दी। एक महीने तक अलग रहना होगा जच्चा और बच्चा से। उसी रात ननद की छोटी बिटिया रोने लगी जोर से। सासू मां ननद के साथ ही थीं। अचानक से बच्ची का रोना बंद हो गया। सुधा हैरान हो रही थी, तभी देखा ननदोई अपनी गुड़िया को गोद में लेकर झूला झुला रहे थे। बच्चों की मासूमियत के आगे सारे नियम-कानून धरे के धरे रह जातें हैं। सुधा ने यह नज़ारा दिखाने के लिए सास को उठाया और बैठक में ले गई, जहां ननदोई अपनी बिटिया को गोद लिए हुए खड़े थे। सामने सरहज और सास को देखकर वो सकपका गए और झेंपते हुए बोले "नहाना पड़ेगा, पर बहुत रो रही थी ना, इसलिए उठा लिया। "सुधा ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा "कोई बात नहीं दामाद जी, बच्चे तो भगवान का रस होतें हैं। उन्हें संक्रमण से बचाने के लिए ही नियम-कानून बनाए होंगें घर के बुजुर्गो ने। आप तो पिता हैं। अभी नहीं नहाएंगे, तब भी कोई बात नहीं। "दामाद जी पानी-पानी हो चले थे, तभी उनकी कट्टर प्रतिद्वंद्वी सासू मां ने अपनी विशिष्ट टिप्पणी की "और नहीं तो क्या? छोटे बच्चे को रोता छोड़ दें क्या? ये तो कुछ भी नहीं, मैं तो रात को अपने पोते को अपने पास ही सुलाती थी। बस जब तुम आए थे, बहू के पास दे दिया था।" सुधा ने अपनी ननद की ओर देखा तो वह अपने पति की ओर देखने लगी। दोनों सास और दामाद आज पानी-पानी हो रहे थे। सुधा को हंसी भी आ गई। "शेर को सवा शेर मिला है आज"। धीरे से बड़बड़ाई तो, ननद ने भी चुटकी ली "पर शेर कौन और सवा शेर कौन?" *****

  • सुखांत

    राजश्री जैन प्रकाश जी की पत्नी प्रिया जी का देहांत हो गया था और अब वो बिल्कुल अकेले रह गए थे। उनका बेटा और बेटी दोनों अपने परिवार सहित आये थे। प्रकाश जी के मित्रों ने उन्हें समझाया कि बच्चों से बात करो कि तुम अकेले कैसे रहोगे। अभी तो तुम्हारी तबियत ठीक है। छोटी-मोटी समस्याएं आती रहती हैं लेकिन अगर ज्यादा बीमार हो गए तो कैसे, क्या करोगे। उन्हें सुझाव उचित लगा और सोचा कि एक बार बात करके तो देखें बाद में तो सिर्फ फोन पर ही बात होगी। उन्होंने विकल्प सोचना शुरू किया। उन्होंने बेटे और बेटी से कहा कि मैंने सोचा है कि अगर मेरी तबियत ज्यादा ख़राब हो जाये तो मुझे अकेले रहने में मुश्किल हो जाएगी। तुम दोनों के पास कोई सुझाव हो तो बताओ। वे दोनों बच्चों कि नियत भी परखना चाहते थे। साथ ही साथ भली-भांति यह भी जानते थे कि दोनों अपनी नौकरी अलग शहरों में कर रहे हैं और अच्छी नियत होते हुए भी शायद कुछ न कर पाएं। देखते है क्या कहते हैं दोनों बच्चे। उन्होंने कहा कि या तो मैं तुम दोनों में से किसी एक के साथ रह सकता हूँ या तुम दोनों में से कोई मेरे साथ आ कर रह सकता है। तुम दोनों विचार-विमर्श कर लो कि सुविधानुसार कौन क्या कर सकता है और बताओ। इस उम्र में जो मेरी देखभाल करेगा, अपना बसा बसाया घर मैं उसके नाम कर दूंगा। दूसरे बच्चे को भी मैं कुछ तो जरूर दूंगा लेकिन जो मेरा करेगा उसे घर और कुछ धन अवश्य दूंगा। अब बच्चों की बारी थी। बेटी भाड़े के घर में रह रही थी। बहुत छोटा घर था और उसके बच्चे भी अभी छोटे थे। तो निश्चित हुआ कि वो पापा के साथ रहेगी। बेटे ने भी सहर्ष स्वीकृति दी थी। दोनों भाई बहनों में बहुत प्रेम और सहयोग था एक दूसरे के लिए। सही समाधान निकल आया पापा और बेटी दोनों को एक दूसरे का साथ मिल गया तो सब निश्चिन्त हो गए। बेटे ने कहा कि अब मुझे भी तसल्ली रहेगी कि तुम सब एक दूसरे का सहयोग कर सकोगे। ******

  • ज़िंदगी अरमान बनके गुनगुनाई

    शंकर शैलेंद्र   ज़िंदगी अरमान बनके गुनगुनाई एक नई पहचान बनके मुस्कुराई तुम रहे आकाश को ही देखते।   जब समझ पाए न तुम उसका इशारा नाम लेकर भी तुम्हें उसने पुकारा क्या मिला क्या तुम गँवाते आ रहे हो पूछ देखो जानता है दिल तुम्हारा प्रीत प्यासी जान बनके छटपटाई दूर की एक तान बनके पास आई तुम रहे आकाश को ही देखते!   बात मानो अब धरा की ओर देखो आदमी के बाज़ुओं का ज़ोर देखो कट रहे पर्वत समंदर पट रहे हैं आज के निर्माण की झकझोर देखो ज़िंदगी तूफ़ान बनके तिलमिलाई तुम रहे आकाश को ही देखते।   व्यर्थ ये आदर्श ये दर्शन तुम्हारे प्यास में क्यों जाएँ हम सागर किनारे क्यों न हम भागीरथी के गीत गाएँ क्यों न श्रम सिरजे नए मंदिर हमारे मौत टूटा बान बनके थरथराई लाज के मारे मरी कुछ कर न पाई तुम रहे आकाश को ही देखते।   कुछ ये कहते हैं कि अब क्यों हो सवेरा पर करूँ क्या ढल रहा है ख़ुद अँधेरा मैं किसी धनवान का मुंशी नहीं हूँ लिख चला जो कह रहा है प्राण मेरा ज़िंदगी अरमान बनके गुनगुनाई एक नई पहचान बनके मुस्कुराई तुम रहे आकाश को ही देखते।   कल की बातें कल के सपने भूल जाओ ज़िंदगी की भीड़ से काँधे मिलाओ गा रहे हैं चाँद-सूरज और तारे तुम भी आओ और मेरे साथ गाओ ज़िंदगी अरमान बनके गुनगुनाई एक नई पहचान बनके मुस्कुराई तुम रहे आकाश को ही देखते। ******

  • इम्तहान

    रति गुप्ता लड़का ट्रेन से उतरकर प्लेटफार्म पर चलते हुए निकास-द्वार की ओर मुड़ा ही था कि उसका दिल धक्क से होकर रह गया। निकास-द्वार के पास एक बेहद खूबसूरत लड़की खड़ी थी, जो उसे देखते ही मुस्कराई, फिर उसके पास बढ़ आई। "हाय!" "हाय!" "वाउ, बहुत हैण्डसम हो आप!" कहते हुए लड़की ने उसका हाथ पकड़ लिया। "आप खुद यहाँ मुझे रिसीव करने आ गईं। हैरत है!" निकास-द्वार से बाहर निकलते हुए लड़का बोला। "मतलब? "लड़की ने चौंककर उसका चेहरा देखा।” "आप रीमा जी हैं न?" "कौन रीमा? मैं रीमा-वीमा नहीं, सीमा हूँ।" "अरे, क्या बात करती हो! आपका फोटो है मेरे पास। लो देखो।” "लड़के ने जेब से निकालकर फोटो आगे कर दिया।” "अरे गजब! इस लड़की की शक्ल तो हूबहू मुझसे मिलती है? " वह चौंकी। लड़का रुककर लड़की के चेहरे को गौर से देखने लगा। बोला "हाँ, यह सच है कि दुनिया में एक ही शक्ल के कई इंसान होते हैं, पर यकीन नहीं पड़ता कि एक ही शहर में।" "सुनो मेरी बात," लड़की बात काटकर बोली। "मैं इस शहर में बिल्कुल नई-नई हूँ। अभी कल शाम के ट्रेन से आई हूँ। एक होटल में रुकी हूँ। क्या होटल है यार! एकदम फस्स क्लास! आप देखोगे तो खुश हो जाओगे। क्या डेकोरेशन है, कमरों के बाहर और कमरों के अन्दर भी। नहाने-धोने, कपड़े सुखाने, खाने-पीने इत्यादि का क्या बढ़िया इंतजाम है! कोई सामान चाहिए, फोन करो, तुरन्त हाजिर। कमरों में टी0वी0 भी लगी है। कतई ऊब नहीं होती। चलो न, वहीं बैठकर बातें करते हैं।" "पागल हो क्या?" लड़के ने एक ही झटके में हाथ छुड़ा लिया "भला मेरा वहाँ क्या काम?" "जी मैं पागल नहीं, कॉलगर्ल हूँ। यही मेरा पेशा है।"कहते हुए लड़की ने फिर उसका हाथ पकड़ लिया -"चलो न! आपके पैसे नहीं लगेंगे। डरो मत। एक्चुअली आप पर दिल आ गया मेरा। बहुत हैण्डसम हो न !" "ना, मुझे कहीं नहीं जाना। चलता हूँ।" कहकर वह जाने लगा।” लड़की ने फिर आगे बढकर उसका हाथ पकड़ लिया। मनाने के अन्दाज में बोली "मान जाओ न! मेरा दिल मत तोड़ो।" लड़का अड़ गया। उसने मोबाइल निकाल लिया। बोला "मैं कहता हूँ, मुझे जाने दो, वरना पुलिस को फोन कर दूँगा।" "हा हा हा••••• ।" लड़की हँसी तो फिर हँसती ही गई। "अब ऐसे हँस क्या रही हो!" लड़के को बुरा लगा। "आप मेरे इम्तहान में पास हो गये डॉ0 रोहन!" वह हँसते हुए बोली" हाँ, मैं ही डॉ0 रीमा हूँ। मम्मी-पापा ने तो आपको देखा था, पर मैंने नहीं देखा था। फोटो देखा था, पर सिर्फ उससे बात नहीं बनती। फिर मुझे कुछ अलग तरह से देखना भी था। मैंने ही मम्मी-पापा से कहकर आपको बुलवाया था। आज आप तनिक भी डगमगा जाते तो मैं आपको 'रिजेक्ट' कर देती। आज मैं बहुत खुश हूँ। ऐसा ही 'कैरेक्टर' होना चाहिए 'लाइफ पार्टनर का।" लड़का उजबक-सा उसे देखे जा रहा था। लड़की बोली-"अब ऐसे क्या देख रहे हो भला! चलो गाड़ी में बैठो। वह रही मेरी 'फोर-व्हीलर।" लड़का मुस्कराते हुए उधर ही बढ़ गया। ******

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