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- कमज़ोर लइकी
श्रीपाल द्विवेदी ऋतु के व्हाट्स एप्प पर कई लड़कों से दोस्ती और चैटिंग पढ़कर राज का चेहरा लाल हो गया। गुस्से से आँखों से अंगारे निकलने लगे, मुट्ठियां भींच गई। क्रोध से पूरा शरीर काँपने लगा। दिमाग मे ऐसा लगा जैसे कोई हथौड़ा चला रहा हो। यद्यपि सारी चैटिंग नार्मल थी। अच्छे और मजाकिया चुटकुले और बातें थी जो फ्रेंड्स में होती है। कुछ दोस्तों ने ऋतु की खूबसूरती और उसके डीपी की तारीफ की थी इस बात पर राज और भी जल भुन गया था। दोनों की शादी के अभी सात दिन ही हुए थे। "ऋतु!! ऋतु !! "पूरी ताकत और गुस्से से राज चिल्लाया। "क्या हुआ?" ऋतु घबराई सी कमरे में पहुँची तबतक उसके सास ससुर और ननद भी कमरे में आ गए थे। राज ने सबके सामने चिल्लाना और अपमान करना शुरू किया। "माँ ये देखो इस लडक़ी के व्हाट्स एप्प पर कई लड़कों से दोस्ती हैं ये सही लड़की नही है?" सासु माँ ससुर और ननद भी जलती नेत्रों से ऋतु को देखने लगे। ऋतु को अपनी गलती नही समझ आयी वो हतप्रभ खड़ी थी जो राज रात दिन उसके प्यार का दम्भ भरता था, उसकी खूबसूरती के कसीदे पढ़ता था, उसके लिए आसमान से तारे तोड़ लाने की बातें करता था उसके इस रूप की ऋतु ने कल्पना भी न की थी। "राज मैंने भी तुम्हारा व्हाट्स एप्प देखा तुम्हारी भी कई लड़कियों से दोस्ती है। तुम्हारी बहन रानी के भी कई लड़के अच्छे दोस्त होंगें इसमें गलत क्या है?" ऋतु के बोलते ही "चुप! जबान लडाती है" सास की जोरदार आवाज़ गूँजी। चटाक!!!! राज का जोरदार तेज थप्पड़ ऋतु के गाल पर पड़ा। गाल पे लाल लाल उँगलियो के निशान पड़ गए। आँखे पनिया गई। चटाक!!!!!!! पहले से भी अधिक जोरदार और तेज थप्पड़ की कमरे में आवाज़ हुई। इस बार सबके सामने ऋतु का जोरदार थप्पड़ राज को पड़ा। ऐसा थप्पड़ कि राज को दिन में ही चाँद तारे ग्रह उपग्रह सब दिख गए। "मुझे कमजोर लड़की न समझना मैं पढ़ी लिखी और अपने हक़ और अधिकार जानने वाली भारतीय आर्मी के मेजर की बेटी हूँ। किसी भी हाल में चरित्र उज्ज्वल रखना और गलत सहन नहीं करना दो बातें पापा ने सिखाई हैं। इसके बाद किसी ने मुझे किसी भी तरह से परेशान करने की कोशिश की तो फिजिकल, मेन्टल टॉर्चर और डोमेस्टिक वॉइलेन्स का केस डाल दूँगी। सासु माँ आपने बेटे को खूब पढ़ा लिखा कर बड़ा ऑफिसर तो बना दिया काश थोड़ा लड़कियों से बात करने की तमीज और उनकी इज़्ज़त करना भी सिखा देतीं।" इसके बाद कुछ दिनों तक घर का माहौल काफी तनावपूर्ण रहने लगा। दीवारों में कान होने के कारण पड़ोसियों में भी इस नई बहू के बिगड़े तेवर की चर्चा होने लगी और पड़ोसियों की खुसर फुसर ने हवन में घी का काम किया। एक दिन पहले की आदर्श बहु अब बहुत बुरी बहु बन गयी थी। इस घटना के कुछ दिन बाद राज अपने काम के सिलसिले में दो दिन के लिए दूसरे शहर गया हुआ था। उसके पिता जी भी गाँव के किसी रिश्तेदार की बीमारी की खबर सुनकर गाँव गए हुए थे। घर पर सिर्फ राज की माँ बहन रानी और ऋतु थीं। माँ छत पर कपड़ा सूखने डालकर आ रही थीं कि अचानक पैर फिसलने से वह ऊपर की सीढ़ियों से लुढकते लुढकते नीचे आ गिरी। जोर से चिल्लाकर बेहोश हो गयी। सर फट गया और तेजी से खून बहने लगा। पैर फ्रैक्चर होकर थोड़ा मुड़ सा गया। रानी और ऋतु चीख सुनते ही दौड़ पड़े। रानी माँ को ऐसे हाल में देखकर नरवस हो गयी वो जोर-जोर से रोने लगी। ऋतु ने संयम रखते हुए एकपल भी देर न करते हुए सबसे पहले एक साफ कपड़े से सर पर पट्टी बंधी इससे थोड़ा खून बहना कम हो गया फिर माँ को गोद में उठाकर कार की पिछली सीट पर लिटाया और रानी को बिठाकर सीधे हॉस्पिटल ले गयी। हॉस्पिटल में तुरंत इमरजेंसी के सारे कागजात तैयार कर माँ को ICU में भर्ती कराया और तुरंत माँ के लिए अपना ब्लड डोनेट भी की। चोटें काफी गंभीर लगीं थी और ऋतु अकेले ही बहु की तरह नहीं बल्कि बेटे की तरह खाना पीना सोना जागना भूलकर सब काम कर रही थी। रानी को माँ के पास बिठाकर कभी डॉक्टर से बात करती कभी दवाइयाँ लाती कभी रिपोर्ट पढ़ती। राज और उसके पापा को खबर कर दी गयी थी फिर भी उनलोगों के आने में नौ दस घंटे का समय लग गया था। इन नौ घंटो में ऐसा लग रहा था जैसे ऋतु खुद यमराज से टक्कर लेने को तैयार थी। सुबह हॉस्पिटल में जब माँ की आँख खुली तो देखा पैरों में प्लास्टर है सर पर पट्टी बंधी है सामने राज ऋतु को गले लगाए है। रानी और उसके पापा की आँखों में आँसू हैं और डॉक्टर बोल रहा है। थैंक्स मेरा नहीं इनका कीजिये जिन्होंने टाइम रहते हॉस्पिटल ले आये वरना हमारे हाथ भी कुछ संभव न था। कल तक जिन आँखों में ऋतु के लिए नफरत था आज उन्ही आँखों में कृतज्ञता के भाव थे और सवकी आँखों से आँसू निकल रहे थे। ******
- परीक्षा
अंकिता मिश्रा एक पहाड़ी के नीचे रामगढ़ नाम का एक गांव था। गांव के सारे जानवर हरी घास खाने के लिए सुबह उसी पहाड़ी के ऊपर बसे जंगल में जाते और शाम होते-होते घर वापस आ जाते थे। हर दिन की तरह लक्ष्मी नाम की एक गाय अन्य गायों के साथ उसी पहाड़ी के जंगल में घास खाने के लिए गई थी। वह हरी घास खाने में इतनी ज़्यादा प्रसन्न थी कि वह कब एक शेर की गुफ़ा के पास पहुंच गई, उसे पता भी नहीं चला। शेर अपनी गुफ़ा में सो रहा था और वह पिछले दो दिनों से भूखा भी था। जैसे ही लक्ष्मी शेर की गुफ़ा के पास पहुँची, गाय की खुशबू से शेर की नींद खुल गयी। वह शेर धीरे-धीरे गुफ़ा से बाहर आया और गुफ़ा के बाहर गाय देखकर खुश हो गया। शेर ने मन ही मन सोचा कि आज उसकी दो दिनों की भूख मिट जाएगी। वह इस तंदुरुस्त गाय का ताज़ा मांस खाएगा और यह सोचकर उसने एक तेज़ दहाड़ लगायी। लक्ष्मी शेर की दहाड़ सुनकर डर जाती है। जब वह अपने आस-पास देखती है, तो वहां दूर-दूर तक उसको कोई भी दूसरी गायें नहीं दिखीं। जब वह हिम्मत करके पीछे मुड़ी, तो उसे सामने शेर खड़ा हुआ दिखाई दिया। उस शेर ने लक्ष्मी को देखकर फिर से दहाड़ लगायी है और लक्ष्मी से कहा, “मुझे दो दिनों से कोई शिकार नहीं मिल रहा था, मैं भूखा था। शायद इसलिए भगवान ने मेरा पेट भरने के लिए तुझे मेरे यहां पर भेजा है। आज मैं तुझे खाकर अपनी भूख मिटा लूंगा।” शेर की बात सुनकर लक्ष्मी डर जाती है। वह रोते हुए शेर से कहती है “मुझे जाने दो, मुझे मत खाओ। मेरा एक छोटा बच्चा है, जो अभी सिर्फ मेरा ही दूध पीता है और उसे घास खाना अभी तक नहीं आया है।” लक्ष्मी की बात सुनकर शेर हंसते हुए कहता है, “तो क्या मैं अपने हाथ में आए शिकार को ऐसे ही जाने दूं? मैं तो आज तुझे खाकर अपनी दो दिनों की भूख मिटाऊंगा।” शेर के ऐसा कहने पर लक्ष्मी उसके सामने रोने लगी और विनती करते हुए कहती है कि “आज मुझे जाने दो। मैं आज अपने बछड़े को आखिरी बार दूध पिला दूंगी और उसे बहुत सारा प्यारा करके, कल सुबह होते ही तुम्हारे पास आ जाऊंगी। फिर तुम मुझे खा लेना और अपना भूखा पेट भर लेना।” शेर लक्ष्मी की यह बात मान जाता है और धमकी देते हुए कहता है कि, “अगर कल तू नहीं आई, तो मैं तेरे गांव आऊंगा, फिर तुझे और तेरे बेटे दोनों को खा जाऊंगा।” लक्ष्मी शेर की यह बात सुनकर खुश हो जाती है और शेर को अपना वचन देकर गांव वापस चली जाती है। वहां से वह सीधे अपने बछड़े के पास जाती है। उसे दूध पिलाती है और बहुत सारा प्यार करती है। फिर बछड़े को शेर के साथ हुई सारी घटना बताती है और कहती है कि उसे अब अपना ख़्याल ख़ुद ही रखना होगा। वह कल सुबह होते ही अपना वचन पूरा करने के लिए शेर के पास चली जाएगी। अपनी मां की बातें सुनकर बछड़ा रोने लगता है। दूसरे दिन सुबह होते ही लक्ष्मी जंगल की तरफ निकल जाती है और शेर की गुफ़ा के सामने पहुंचकर शेर से कहती है, “अपने वचन के अनुसार मैं तुम्हारे पास आ गई हूँ। अब तुम मुझे खा सकते हो।” गाय की आवाज़ सुनकर शेर अपनी गुफ़ा से बाहर निकलकर आता है और भगवान के अवतार में प्रकट होता है। वह लक्ष्मी से कहते हैं, “मैं तो बस तुम्हारी परीक्षा ले रहा था। तुम अपने वचन की पक्की हो। मैं इससे बहुत प्रसन्न हुआ। तुम अब अपने घर और बछड़े के पास वापस जा सकती हो।” इसके बाद वे उस गाय को गौ माता होने का वरदान भी देते हैं और उसी दिन के बाद से सभी गायों को गौ माता कहा जाता है। सीख : हमें जान की बाज़ी लगाते हुए भी अपने दिए हुए वचन को पूरा करना चाहिए। यही हमारे दृढ़ व्यक्तित्व को दर्शाता है। *****
- भगवान् की लाठी
रमाकांत द्विवेदी एक बुजुर्ग दरिया के किनारे पर जा रहे थे। एक जगह देखा कि दरिया की सतह से एक कछुआ निकला और पानी के किनारे पर आ गया। उसी किनारे से एक बड़े ही जहरीले बिच्छु ने दरिया के अन्दर छलांग लगाई और कछुए की पीठ पर सवार हो गया। कछुए ने तैरना शुरू कर दिया। वह बुजुर्ग बड़े हैरान हुए। उन्होंने उस कछुए का पीछा करने की ठान ली। इसलिए दरिया में तैर कर उस कछुए का पीछा किया। वह कछुआ दरिया के दूसरे किनारे पर जाकर रूक गया। और बिच्छू उसकी पीठ से छलांग लगाकर दूसरे किनारे पर चढ़ गया और आगे चलना शुरू कर दिया। वह बुजुर्ग भी उसके पीछे चलते रहे। आगे जाकर देखा कि जिस तरफ बिच्छू जा रहा था उसके रास्ते में एक भगवान् का भक्त ध्यान साधना में आँखे बन्द कर भगवान् की भक्ति कर रहा था। उस बुजुर्ग ने सोचा कि अगर यह बिच्छू उस भक्त को काटना चाहेगा तो मैं करीब पहुँचने से पहले ही उसे अपनी लाठी से मार डालूँगा। लेकिन वह कुछ कदम आगे बढे ही थे कि उन्होंने देखा दूसरी तरफ से एक काला जहरीला साँप तेजी से उस भक्त को डसने के लिए आगे बढ़ रहा था। इतने में बिच्छू भी वहाँ पहुँच गया। उस बिच्छू ने उसी समय सांप के ऊपर डंक मार दिया, जिसकी वजह से बिच्छू का जहर सांप के जिस्म में दाखिल हो गया और वह सांप वहीं अचेत हो कर गिर पड़ा था। इसके बाद वह बिच्छू अपने रास्ते पर वापस चला गया। थोड़ी देर बाद जब वह भक्त उठा, तब उस बुजुर्ग ने उसे बताया कि भगवान् ने उसकी रक्षा के लिए कैसे उस कछुवे को दरिया के किनारे लाया फिर कैसे उस बिच्छु को कछुए की पीठ पर बैठा कर साँप से तेरी रक्षा के लिए भेजा। वह भक्त उस अचेत पड़े सांप को देखकर हैरान रह गया। उसकी आँखों से आँसू निकल आए, और वह आँखें बन्द कर प्रभु को याद कर उनका धन्यवाद करने लगा। तभी प्रभु ने अपने उस भक्त से कहा, जब वो बुजुर्ग जो तुम्हें जानता तक नही, वो तुम्हारी जान बचाने के लिए लाठी उठा सकता है। और फिर तू तो मेरी भक्ति में लगा हुआ था तो फिर तुझे बचाने के लिये मेरी लाठी तो हमेशा से ही तैयार रहती है। ******
- अध्यापक
सुरेश कुमार शुक्ला दिग्विजय सिंह और उनकी पत्नी उर्मिला सिंह दोनों ही सरकारी नौकरी से रिटायर्ड हैं। दोनों की उम्र सत्तर के पार हैं। उनके दो बेटे और एक बेटी हैं। दोनों ही बेटे विदेश में नौकरी करने गए और वहीं सेट हो गए। वैसे भी एक बार जिसे विदेश में रहने की आदत हो गई वह फिर भारत आना ही नही चाहता है। उन्होंने कई बार मां और पिता को अपने साथ ले जाने की कोशिश की पर ये दोनों अपना पुश्तैनी घर और अपना देश छोड़कर जाने को तैयार नहीं हुए। लडकों ने कहा भी ये घर चाचा जी को दे देंगे, इसे बेचेंगे नही जबकि उन्हीं का एक पटीदार (पाटीदार मतलब एक ही खानदान के लोग) ने अच्छी कीमत भी लगा दी थी, पर इन दोनों ने किसी की नही सुनी। उन्हें खर्चे की कोई तकलीफ थी नही, हां उनका घर गांव से थोड़ा अलग था और पांच कमरों के घर में दोनों ही रहते थे। बेटी भी अपने पति के साथ फ्रांस में रहती थी, पर सभी बीच-बीच में मिलने आते रहते थे और पूरा ध्यान रखते थे। दिग्विजय सिंह तो एक बार बेटों के साथ चले भी जाते पर पत्नी उर्मिला को ठंड में बहुत तकलीफ होती थी और लंदन और ऑस्ट्रेलिया में बहुत ठंड होती है। वहाँ तो बर्दाश्त भी नही कर पाती। यहां भी जब ठंड बढ़ती है तो दोनों ही शहर चले जाते हैं। जहां उनका छोटा सा वन बीएचके का फ्लैट है। पूरी ठंड वहाँ बिताने के बाद ही गांव वापस आते थे। वैसे भी इन दोनों की दिनचर्या फिक्स थी, सुबह उठना पार्क तक टहलने जाना और आते समय फूल तोड़ते हुए आना, फिर वहीं से दूध की थैली लेते हुए आना, ये उनकी प्रतिदिन का काम था। इस बार भी दोनों अक्टूबर में ही शहर वाले घर में आ गए थे। यह घर उन्होंने अपनी कमाई से खरीदा पहला घर था, इसलिए दिग्विजय ने उसे कभी नहीं बेचा। उसे अच्छे से मेंटेन किया, इस घर को लेने में उन्हें उस समय काफी मशक्कत करनी पड़ी थी। उस समय इन्होंने एक लाख रुपए में लिया था। आज वह इलाका बाजार में आ गया था। शाम की भी दिनचर्या तय ही थी। उसी पार्क में सभी रिटायर्ड मित्रों की बैठक थी, कोई जज साहब, तो कोई बैंक मैनेजर, पर उनके बीच सबसे ज्यादा इज्जत दिग्विजय जी की थी क्योंकि वह स्कूल के प्रिंसिपल रह चुके थे, और सभी इस बात को मानते थे कि बिंना गुरु के कुछ ज्ञान प्राप्त नहीं होता है। एक दिन रात में अचानक उर्मिला की तबियत खराब होती हैं। उनकी सांसे बुरी तरह से चलने लगी थी। उन्हें घबराहट हो रही थी, तो दिग्विजय को कुछ समझ नही आता है। वह एंबुलेंस को फोन करते हैं, और फिर अपने एक पड़ोसी को फोन करने लगते हैं। वह फोन नही उठाते हैं। दिग्विजय, उर्मिला को छोड़ किसी के पास जा नही सकते थे। उसी समय एंबुलेंस आती है। एंबुलेंस के बॉय उनके फ्लैट का बेल बजाते हैं, वह दरवाजा खोलते हैं। बॉय पूछता है - "क्या हुआ अंकल, किसको प्रोब्लम है?" वह कहते हैं - "मेरी पत्नी अंदर है उसे सांस लेने में दिक्कत हो रही है।" वह लड़का जल्दी से अंदर जाता है और उर्मिला के मना करने पर भी वह उठाकर लाता है।" दिग्विजय कहते हैं - "अरे ये क्या कर रहे हो व्हील चेयर ले आते," वह कहता है - "जल्दी चलिए व्हील चेयर लाने का टाइम नही है।" वह जल्दी से घर को ताला लग कर चल देते हैं। एंबुलेंस वाला पूछता है - "कहां चलना है?" बॉय बोलता है - "समर्थ हॉस्पिटल ले चल जल्दी।" एंबुलेंस आगे बढ़ती है, दिग्विजय सिंह जानते थे समर्थ हॉस्पिटल यहां का सबसे बड़ा और महंगा हॉस्पिटल है, और अच्छा भी है। उनको सोचते देख वह लड़का कहता है - "आप चिंता मत करिए, काम से कम पैसों में इलाज हो जायेगा, कुछ डॉक्टर हैं मेरे पहचान के" उर्मिला इतने तकलीफ में भी इस लड़के को देखती हैं, वह सोचती है इसे क्या पड़ी है जो इतना सोच रहा है। दिग्विजय कहते हैं -"बेटा पैसे की चिंता नही है, बस ये ठीक हो जाए,” बॉय कहता हैं - "सर समर्थ में हार्ट के एक नए डॉक्टर आए हैं, लंदन से पढ़ कर आए हैं। बहुत अच्छे आदमी भी हैं, अगर वो मिल गए तो, मैडम एकदम ठीक हो जाएंगी।" उर्मिला मैडम सुन चौकती हैं, क्योंकि उनके स्कूल के लड़के उन्हें मैडम ही कहते थे। दरअसल उर्मिला बहुत ही स्ट्रिक्ट टीचर थी, वह बच्चो के पढ़ाई के लिए पीछे पड़ी रहती थी और खूब पिटाई भी करती थी। वह उस लड़के को पहचानने की कोशिश करती हैं पर अब तक हजारों लड़के उनके स्टूडेंट रह चुके थे, कितनों को याद रख सकती थी। एंबुलेंस रुकती है, वह लड़का कूदकर स्ट्रेचर उतरता है और तेज़ी से अंदर ले जाता है। इमरजेंसी वार्ड में डालते हुए कहता है - "डॉक्टर रूपेश हैं, उनकी पेशंट हैं ये, कहां हैं जल्दी बुलाओ।" वह लड़का एंबुलेंस ब्वॉय है, ये सभी जानते थे। इसलिए उन्होंने उसके झूठ को भी मान लिया और डॉक्टर को कॉल कर अर्जेंट आने को कहा। रात के बारह बज रहें थे। वैसे डॉक्टर रूपेश बिना अपॉइंटमेंट के किसी को देखते नही थे, पर इमरजेंसी और उन्हीं का पेशंट जान जल्दी से आते हैं। वह जब पेशंट को देखते हैं तो चौक कर कहते हैं - "ये मेरी पेशंट नही हैं, किसने कहा कि ये मेरी पेशंट हैं।" ब्वॉय सामने आकर कहता है - "सर ये मैने झूठ बोला ये हमारी टीचर मैडम है, बचपन में पढ़ाई थी मुझे। इनको इस हाल में देख मैंने सोचा आपके अलावा और कोई नही देख सकता है।" डॉक्टर उसे डांटने लगता है वह कहता है - "मैं तुम्हारी कंप्लेंट करूंगा ये बदतमीजी नही चलेगी।" तभी दिग्विजय आगे आते हुएं कहते हैं - "डॉक्टर साहब इस बच्चे की ओर से मैं माफी मांगता हूं। एक बार मेरी पत्नी को देख लीजिए बहुत कृपा होगी।" डॉक्टर उन्हें देख चौंका और फिर उनकी पत्नी को ध्यान से देखता है, और तुरंत एक्टिव हो जाता है। वह नर्स को आवाज देकर इंस्ट्रक्शन देने लगता है और खुद ही स्ट्रेचर धकेल कर ऑपरेशन थिएटर में ले जाता है। ब्वॉय भी उसके साथ धकेल के जाता है। एक सिस्टर कहती है - "आप बहुत लकी हो अंकल डॉक्टर साहब के पास एक एक महीने की लाइन लगी है, पर पता नही क्या सोचकर उन्होंने आपका केस एक्सेप्ट किया।" ब्वॉय स्ट्रेचर बाहर लेकर आता है और कहता है - "मैं इसे गाड़ी में रख कर आता हूं, आप चिंता मत करिए सब ठीक हो जायेगा।" वह जाता है, दिग्विजय समझ नही पाते हैं कि यह एंबुलेंस ब्वॉय इतना अपनत्व क्यों दिखा रहा है। अभी वह सोच ही रहे थे तब तक वह लड़का आ कर उनके पास बैठ जाता है। वह पूछते हैं - "तुम्हें ड्यूटी पर नहीं जाना है।" वह उनकी ओर देख कर कहता है - "यहां भी ड्यूटी ही निभा रहा हूं।" दिग्विजय उसकी बात को समझ नही पाते हैं। तब तक नर्स आकर कहती है - "ये दवा हॉस्पिटल में नही है, कृष्ण चौक पर हमारे हॉस्पिटल की मेडिकल स्टोर है, वहां अभी कोई डिलीवरी ब्वॉय नही है तो तुम जाकर ले आओ।" वह लड़का देख कर पूछता है - "कितने की होगी।" नर्स कहती है - "तुम वहां जाकर ये पर्ची दे दो वो पैसे नही लेगा जल्दी जाओ।" वह तुरंत भागता है। नर्स दिग्विजय से कहती है, आप टेंशन मत लीजिए दो ब्लॉकेज हैं। डॉक्टर साहब अभी उसका ऑपरेशन कर क्लियर कर देंगे।" दिग्विजय परेशान होते हैं और अपने लडको को फोन लगाते हैं। लड़के कहते हैं, पापा कुछ भी करके हम अभी तो नही आ सकते हैं। आप चाहे तो हम एयर एंबुलेंस का बंदोबस्त कर देते हैं। मां को यहां लेकर आ जाइए हमें आना होगा तो कम से पंद्रह दिन तो लग ही जायेंगे।" वह फोन काटते हैं। उनकी आंखों में आंसु आता है। इतनी देर में वह लड़का भागता हुआ आता है, ऐसे लग रहा था जैसे वह भागते हुए ही गया था। वह नर्स को जाकर दावा देता है और फिर आकर दिग्विजय के पास बैठता है। दिग्विजय को उस पर बहुत प्यार आता है, वह उसके सर पर हाथ फेरकर पूछता है - "बेटा क्या नाम है तुम्हारा?" वह कहता है - "दीपक शर्मा नाम है, मैडम ने बचपन में पढ़ाया था। उन्हें देखते ही पहचान गया और अभी कुछ दिन पहले ही मेरी मां भी हार्ट अटैक से चली गई थी, तो इन्हें देखते ही मुझे मां की भी याद आ गई। इसलिए बिना आपसे पूछे मैंने इन्हें गोद में उठा लिया था। मेरी मां को सिर्फ पांच मिनट की देरी हुई थी और वह नही बची थी।" उसकी आंखो में भी आंसु आते हैं। दिग्विजय उसके सर पर हाथ फेरते हैं। उसी समय डॉक्टर बाहर आकर कहते है - "सर सही समय पर आप आ गए थे और मैं भी पहुंच गया था, वरना प्रोब्लम हो सकती थी, अब सब ठीक है, सुबह तक होश आ जायेगा, आइए थोड़ी थोड़ी कॉफी पीते हैं।" वह ब्वॉय को भी इशारा करते हैं चलने का दोनों जाते हैं। कॉफी पीने की इच्छा तो दिग्विजय को भी हो रही थी, पर वहां से उठने का मन नहीं था। वह डॉक्टर से पूछता है - "डॉक्टर साहब, अपने चेक भी कर लिया, ऑपरेशन भी कर दिया कम से कम एक बार पूछ तो लेते या खर्चे तो बता देते, अब हम रिटायर लोग हैं। उतने पैसे हैं भी कि नही, ये तो जान लेते।" डॉक्टर रूपेश उनकी ओर देख के कहता है - "यहां पर हार्ट पेशंट के लिए पहले ही दो लाख एडवांस लेते हैं, तब एडमिट करते हैं, पर इस लड़के ने डायरेक्ट अंदर ला दिया और फिर मुझे भी झूठ बोलकर बुला लिया।" दिग्विजय कहते हैं - "इसमें इसकी गलती नही है, मेरी श्रीमती इसकी अध्यापिका रह चुकी हैं इसलिए ये इमोशनल हो गया था।" डॉक्टर मुस्कराकर कहता है - "और आप मेरे अध्यापक रह चुके हैं, इसलिए आपको देखने के बाद मैंने अपना और हॉस्पिटल दोनों का नियम तोड़ दिया और ऑपरेशन कर दिया।" दिग्विजय चौक कर देखते हुए पूछते हैं - "बेटा तुम कब पढ़े थे, वह चश्मा निकाल कर देखते हैं, और फिर याद करते हुए कहते हैं - "अरे तुम कौशल के बेटे हो ना, कहां है कौशल?” रूपेश कहता है - "वो तो इस दुनिया में नही रहे।" दिग्विजय अफसोस जाहिर करते हैं। रूपेश कहता है - "आप ने मेरे पापा को भी पढ़ाया था और मुझे भी, आपके पढ़ाए कई लड़के अभी भी मेरे लिंक में हैं।” दिग्विजय पूछते है - "बेटा बिल कितना हो जायेगा?” रूपेश कहता है _ "मैंने ट्रस्टी से बात कर ली है, साल में एक या दो केस हम फ्री करते हैं। उसमें ये केस मैनेज हो जायेगा, आपको एक पैसा देने की जरूरत नहीं है।" दिग्विजय की आंखो से आंसु निकलते हैं। आज उन्हें अपने अध्यापक होने पर असली गर्व होता है। तभी छोटे बेटे का फोन आया और वह पूछने लगता है - "पापा कोई परेशानी हो तो बोलिए मैंने अभी पांच लाख रुपए ट्रांसफर कर दिए हैं। सुबह भईया भी कर देंगे, आप चिंता मत करिएगा।" दिग्विजय अपने आंसु पोंछ कर कहते हैं - "बेटा जिसके हजारों बेटे हो भला उसे किस बात की चिंता होगी। अब मुझे कोई चिंता नहीं कई बेटे हैं मेरे पास।” वह खड़े होकर डॉक्टर और दीपक दोनों को गले लगाते हैं। *****
- एक ऐसा भी सांप
बालेश्वर गुप्ता पूरी रात आंखों में ही कट गयी। रमेश का क्रोध सुम्मी पर तो था ही पर उससे अधिक वो पीयूष पर आक्रोशित था। उसकी ही फैक्ट्री का मुलाजिम पीयूष कभी-कभी बंगले पर फाइलों पर हस्ताक्षर कराने आता था। तभी उसने उसकी बेटी सुम्मी को अपने प्रेमजाल में फंसा लिया होगा। उसकी दौलत पाने को चुपचाप सुम्मी से शादी भी कर ली। आस्तीन का साँप कही का। सोच-सोच रमेश पागल होने को हो गया। कैसे अपना मुंह समाज मे दिखायेगा? आज ही पीयूष और सुम्मी आर्य समाज में शादी कर रमेश से आशीर्वाद प्राप्त करने आये थे। अवाक से रमेश ने उन्हें अपमानित कर घर से ही निकाल दिया था। लाड़ प्यार से पली सुम्मी से उसे ऐसी आशा बिल्कुल भी नही थी। दूसरे शहर में अपने घर जा रहे पीयूष ने प्लेटफार्म पर भीड़ देखी तो उधर जाने पर पता चला कि एक लड़की आत्महत्या करने वाली थी कि कुछ लोगो ने उसकी मंशा भाप कर उसे ट्रेन के आगे कूदने से पहले ही पकड़ लिया। यह लड़की सुम्मी ही थी। पीयूष को देख वह और जोर से रोने लगी। पीयूष उसे लेकर अपने किराये के कमरे पर ले आया। तब पता चला कि एक धनाढ्य के बेटे से प्रेम हो जाने के कारण वो गर्भवती हो गयी है और उसने शादी करने से साफ मना भी कर दिया। यही कारण सुम्मी द्वारा आत्महत्या करने के इरादे का था। पीयूष ने सुम्मी की हालत देखी और बोला सुम्मी मैं एक साधारण इंसान हूँ, तुमसे शादी कर सकता हूँ, पर इस बच्चे को नही अपना पाऊंगा, अभी उसमे जान भी नही पड़ी होगी, उसके बिना यदि तुम मेरी आय से जीवन यापन कर सको तो। एक प्रश्न सुम्मी के सामने रख पीयूष ने सुम्मी को उसके घर यह कह कर छोड़ दिया कि दो दिन बाद, यदि उसे प्रस्ताव स्वीकार हो तो आर्यसमाज भवन में आ जाना। पूरी घटना सुम्मी के पिता को पता भी नही थी और शायद पता भी नही चलेगी। क्योकि पीयूष ऐसा सांप था जो स्वयं ही विष पी रहा था। *****
- ममता
निर्मला कुमारी वो विधवा थी पर श्रृंगार ऐसा कर के रखती थी कि पूछो मत। बिंदी के सिवाय सब कुछ लगाती थी। पूरी कॉलोनी में उनके चर्चे थे। उनका एक बेटा भी था जो अभी सात साल का था। पति रेलवे में थे उनके गुजर जाने के बाद रेलवे ने उन्हें एक छोटी सी नौकरी दे दी थी। उनके जलवे अलग ही थे। 1975 के दशक में बॉय कटिंग रखती थी। सभी कालोनी की आंटियां उन्हें 'परकटी' कहती थी। अंश भी उस समय नया नया जवान हुआ था। अभी 17 साल का ही था। लेकिन घर बसाने के सपने देखने शुरू कर दिए थे। अंश का आधा दिन आईने के सामने गुजरता था और बाकि आधा परकटी आंटी की गली के चक्कर काटने में। अंश का नवव्यस्क मस्तिष्क इस मामले में काम नहीं करता था कि समाज क्या कहेगा? यदि उसके दिल की बात किसी को मालूम हो गई तो? उसे किसी की परवाह नहीं थी। परकटी आंटी को दिन में एक बार देखना उसका जूनून था। उस दिन बारिश अच्छी हुई थी। अंश स्कूल से लौट रहा था। साइकिल पर ख्वाबों में गुम उसे पता ही नहीं लगा कि अगले मोड़ पर कीचड़ की वजह से कितनी फिसलन थी। अगले ही क्षण जैसे ही वह अगले मोड़ पर मुड़ा साइकिल फिसल गई और अंश नीचे। उसी वक्त सामने से आ रहे स्कूटर ने भी टक्कर मार दी। अंश का सर मानो खुल गया हो। खून का फव्वारा फूटा। अंश दर्द से ज्यादा इस घटना के झटके से स्तब्ध था। वह गुम सा हो गया। भीड़ में से कोई उसकी सहायता को आगे नहीं आ रहा था। खून लगातार बह रहा था। तभी एक जानी पहचानी आवाज अंश..अंश नाम पुकारती है। अंश की धुंधली हुई दृष्टि देखती है कि परकटी आंटी भीड़ को चीर पागलों की तरह दौड़ती हुई आ रही थी। परकटी आंटी ने अंश का सिर गोद में लेते ही उसका माथा जहाँ से खून बह रहा था उसे अपनी हथेली से दबा लिया। आंटी की रंगीन ड्रेस खून से लथपथ हो गई थी। आंटी चिल्ला रही थी "अरे कोई तो सहायता करो, यह मेरा बेटा है, कोई हॉस्पिटल ले चलो हमें।" अंश को अभी तक भी याद है। एक तिपहिया वाहन रुकता है। लोग उसमें उन दोनों को बैठाते हैं। आंटी ने अब भी उसका माथा पकड़ा हुआ था। उसे सीने से लगाया हुआ था। अंश को टांके लगा कर घर भेज दिया जाता है। परकटी आंटी ही उसे रिक्शा में घर लेकर जाती हैं। अंश अब ठीक है। लेकिन एक पहेली उसे समझ नहीं आई कि उसकी वासना कहाँ लुप्त हो गई थी। जब परकटी आंटी ने उसे सीने से लगाया तो उसे ऐसा क्यों लगा कि उसकी माँ ने उसे गोद में ले लिया हो। वात्सल्य की भावना कहाँ से आई। उसका दृष्टिकोण कैसे एक क्षण में बदल गया। क्यों वह अब मातृत्व के शुद्ध भाव से परकटी आंटी को देखता। आज अंश रेलवे से रिटायर्ड अफसर है। समय बिताने के लिए कम्युनिटी पार्क में जाता है। वहां बैठा वो आज सुन्दर औरतों को पार्क में व्यायाम करते देख कर मुस्कुराता है। क्योंकि उसने एक बड़ी पहेली बचपन में हल कर ली थी। वो आज जानता है, मानता है, कि महिलाओं का मूल भाव मातृत्व का है। वो चाहें कितनी भी अप्सरा सी दिखें दिल से हर महिला एक 'माँ' है। वह 'माँ' सिर्फ अपने बच्चे के लिए ही नहीं है। वो हर एक लाचार में अपनी औलाद को देखती है। दुनिया के हर छोटे मोटे दुःख को एक महिला दस गुणा महसूस करती है क्योंकि वह स्वतः ही कल्पना कर बैठती है कि अगर यह मेरे बेटे या बेटी के साथ हो जाता तो? इस कल्पना मात्र से ही उसकी रूह सिहर उठती है। वो रो पड़ती है और दुनिया को लगता है कि महिला कमजोर है। अंश मुस्कुराता है, मन ही मन कहता है कि "हे, विश्व के भ्रमित मर्दो! हर औरत दिल से कमजोर नहीं होती, वो तो बस 'माँ' होती है। *****
- निःशब्द
रमा शंकर शर्मा "आज कैसी तबीयत है?" मां ने रोज की तरह सुबह उठते ही मेरा हाल चाल जानने के लिए फोन लगाया। कई दिन से मेरी तबीयत खराब चल रही थी। ना बच्ची पर ध्यान दे पा रही थी और ना ही घर संभालने पर। पतिदेव भी जितना सहयोग हो पा रहा था, कर रहे थे। मैंने मां से कहा - "मां ! आज तो अचानक ही मेरी तबीयत में काफी सुधार महसूस हो रहा है। लग रहा है कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं था मुझे।" मां के कलेजे को तसल्ली पड़ी मेरे यह शब्द सुनकर। बोलीं - "शुक्र है माता रानी का... मेरा बताया हुआ काढ़ा आखिर असर कर ही गया, चल ठीक है तू अपना ध्यान रख।" पतिदेव ऑफिस में लाख व्यस्त रहते, लेकिन लंच के समय बाहर का खाना उन्हें मेरी याद दिला देता और वह खाने से पहले मेरा हाल चाल जानने के लिए फोन करते। वे भी आज मेरी काफी सुधार महसूस होने की बात सुनकर खुश होकर बोले - "मैंने कहा था ना पहले वाली दवाइयां सूट नहीं कर रही हैं। जब से दूसरे डॉक्टर को दिखाया है तब से सुधार हुआ है, तुम मान नहीं रही थीं ना मेरी बात!" पड़ोस वाली निधि भी घर आकर कुछ ना कुछ सहायता के लिए पूछ जाती थी। आज जब उसे फोन पर बताया कि आज तो मुझे ऐसा लग रहा है कि मैं बीमार हुई ही नहीं... तो वह भी चहक कर बोली - "अरे यार! मुझे पता था मेरे चाचा जी के गांव के वैध की दी हुई पुड़ियाओं का ही असर है। चलो बहुत अच्छी बात है, तुम ठीक हो गई हो।" मैं नहा धोकर अपनी छोटी सी बेटी के सिरहाने बैठी और उसे दुलारने लगी। उसने आंख खुलते ही पूछा - "मम्मा... आप कैसे हो?" मैंने कहा- "आज तो मैं एकदम ठीक हूं मेरी गुड़िया रानी!" इतने दिनों से उससे जी भर कर प्यार भी नहीं कर पा रही थी कि उसे कोई संक्रमण ना हो जाए। मेरे गले में झूलते हुए और मुझे चूमते हुए उसने बताया - "मम्मा, मैं कल रात भगवान जी के सामने बहुत देर तक बैठी रही और उनसे जिद की कि जब तक आप मेरी मम्मा को ठीक नहीं करोगे मैं आपसे बात नहीं करूंगी।" मैं निःशब्द थी.... जान गई थी कि आज अचानक तबीयत में सुधार किस वजह से था। ******
- खुद्दार
सरला सिंह बाज़ार में एक आदमी ने फ़ल बेचने वाले एक दुकानदार से पूछा - केले और सेब क्या भाव हैं भाई? केले 40 रु. दर्जन और सेब 120 रु. किलो हैं साहब....दुकानदार ने कहा। आदमी बोला, कुछ ठीक ठाक भाव लगा दो भाई। तभी ठीक उसी समय फटे पुराने कपड़े पहनी हुई एक गरीब सी दिखने वाली औरत दुकान में आयी और बोली, मुझे एक किलो सेब और एक दर्जन केले चाहिये - क्या भाव है भैया? दुकानदार ने कहा, केले 5 रु दर्जन और सेब 25 रु किलो, इससे एक पैसे भी कम नहीं लूँगा। औरत ने कहा, ठीक है, जल्दी से दो दर्जन केले औऱ एक किलो सेव दे दीजिये। दुकान में पहले से मौजूद ग्राहक ने बेहद क्रोध भरी निगाहों से घूरकर दुकानदार को देखा औऱ अपने मन ही मन उसको गाली बकने लगा। इससे पहले कि वो कुछ कहता - दुकानदार ने ग्राहक को इशारा करते हुये थोड़ा सा इंतज़ार करने को कहा। औरत ख़ुशी-ख़ुशी ख़रीददारी करके दुकान से निकलते हुये बड़बड़ाई - हे भगवान तेरा लाख-लाख शुक्र है, मेरे बच्चे आज फलों को खाकर बहुत खुश होंगे। अब उस ग़रीब औरत के जाने के बाद दुकानदार ने पहले से मौजूद ग्राहक की तरफ देखते हुये कहा : ईश्वर गवाह है साहब! मैंने आपको कोई धोखा देने की कोशिश नहीं की, यह एक विधवा महिला है जो चार अनाथ बच्चों की मां भी है। दो साल पहले इसका पति चल बसा। लोगों के घरों में जूठे बर्तन मांजती है। बहुत खुद्दार है। किसी से कभी भी किसी तरह की मदद लेने को तैयार नहीं होती। मैंने कई बार इसकी मदद करने की कोशिश की है लेकिन मुझें हर बार नाकामी ही मिली है। तब मुझे यही तरक़ीब सूझी कि जब क़भी ये यहाँ आए तो मै उसे कम से कम दाम लगाकर चीज़े दे दूँ। मैं यह चाहता हूँ कि उसका भ्रम बना रहे और उसे लगे कि वह किसी की मदद की मोहताज नहीं है। मैं इस तरह भगवान के बन्दों की पूजा कर लेता हूँ साहब, इससे मेरे दिल को बड़ा सुकून मिलता है। थोड़ा रूक कर दुकानदार फ़िर बोला : यह औरत हफ्ते या दो हप्ते में सिर्फ़ एक बार आती है। भगवान गवाह है जिस दिन यह आ जाती है उस दिन मेरी बिक्री बढ़ जाती है और उस दिन परमात्मा स्वयं मुझ पर मेहरबान हो जाता है। ग्राहक की आंखों में आंसू आ गए, उसने आगे बढकर दुकानदार को गले लगा लिया और बिना किसी शिकायत के अपना सौदा ख़रीदकर ख़ुशी-ख़ुशी चला गया। सच्चे दिल से अगर ख़ुशी बांटना चाहो तो कोई न कोई तरीका मिल ही जाता है। परोपकार से बड़ा कोई धर्म नहीं। ******
- कांच का टुकड़ा
डॉ. कृष्णा कांत श्रीवास्तव एक बार एक राज-महल में कामवाली बाई का लड़का खेल रहा था। खेलते-खेलते उसके हाथ में एक हीरा आ गया। वो दौड़ता दौड़ता अपनी माँ के पास ले गया। माँ ने देखा और समझ गयी कि ये हीरा है तो उसने झूठमुठ का बच्चे को कहा कि ये तो कांच का टुकड़ा है और उसने उस हीरे को महल के बाहर फेंक दिया। थोड़ी देर के बाद वो बाहर से हीरा उठा कर चली गयी। उसने उस हीरे को एक सुनार को दिखाया, सुनार ने भी यही कहा ये तो कांच का टुकड़ा है और उसने भी बाहर फेंक दिया। वो औरत वहां से चली गयी। बाद में उस सुनार ने वो हीरा उठा लिया और जौहरी के पास गया और जौहरी को हीरा दिखाया। जौहरी को पता चल गया कि ये तो एक नायाब हीरा है और उसकी नियत बिगड़ गयी। और उसने भी सुनार को कहा कि ये तो कांच का टुकड़ा है। उसने उठा के हीरे को बाहर फेंक दिया और बाहर गिरते ही वो हीरा टूट कर बिखर गया। एक आदमी इस पूरे वाक्ये को देख रहा था। उसने जाके हीरे को पूछा, जब तुम्हें दो बार फेंका गया तब नहीं टूटे और तीसरी बार क्यों टूट गए? हीरे ने जवाब दिया - ना वो औरत मेरी कीमत जानती थी और ना ही वो सुनार। मेरी सही कीमत वो जौहरी ही जानता था और उसने जानते हुए भी मेरी कीमत कांच की बना दी। बस मेरा दिल टूट गया और मैं टूट के बिखर गया। इसी प्रकार, जब किसी इन्सान की सही कीमत जानते हुए भी लोग उसे नकार देते हैं तो वो इन्सान भी हीरे की तरह टूट जाता है और कभी आगे नहीं बढ़ पाता है। इसलिये अगर आपके आसपास कोई इन्सान हो, वो अपने हुनर को निखारते हुए आगे बढ़ने की कोशिश करता है तो उसका हौसला बढाओ। यह ना कर सको तो कम से कम हीरे को काँच बताकर तोड़ने का काम भी मत करो। हीरा स्वत: एक दिन अपनी जगह ले लेगा। ******
- कला का अभिमान
अनुज कुमार जायसवाल नारायण दास एक कुशल मूर्तिकार थे। उनकी बनाई मूर्तियां दूर-दूर तक मशहूर थीं। नारायण दास को बस एक ही दुख था, कि उनके कोई संतान नहीं थी। उन्हें हमेशा चिंता रहती थी कि उनके मरने के बाद उनकी कला की विरासत कौन संभालेगा। एक दिन उनके दरवाजे पर चौदह साल का एक बालक आया। उस समय नारायण दास खाना खा रहे थे। लड़के की ललचाई आंखों से वे समझ गए कि बेचारा भूखा है। उन्होंने उसे भरपेट भोजन कराया। फिर उसका परिचय पूछा। लड़के ने कहा कि गांव में हैजा फैलने से उसके माता-पिता और छोटी बहन मर गई। वह अनाथ है। नारायण दास को उस पर दया आ गई। उन्होंने उसे अपने पास रख लिया। लड़के का नाम था कलाधर। वह मन लगाकार उनकी सेवा करता। काम से छुटृी पाते ही उनके पैर दबाता। नारायण दास द्वारा बनाई जा रही मूर्तियों को ध्यान से देखता। कई बार वह बाहर से पत्थर ले आता और उस पर छैनी हथौड़ी चलाता। एक दिन नारायण दास ने उसे ऐसा करते देखा तो समझ गए कि बच्चे में लगन है। उनकी चिंता का समाधान हो गया। उन्होंने तय कर लिया कि वे अपनी कला इस बालक को दे जाएंगे। उन्होंने कलाधर से कहा - बेटा, क्या तू मूर्ति बनाना सीखना चाहता है? मैं तुझे सिखाऊंगा। खुशी से कलाधर का कंठ भर आया। वह कुछ नहीं बोल पाया, बस सिर्फ उनकी ओर देखता रह गया। नारायण दास ने बड़े मनोयोग से कलाधर को मूर्तिकला सिखाई। धीरे-धीरे वह दिन भी आया जब कलाधर भी मूर्तियों गढ़ने में माहिर हो गया। समय किसी कलाकार को अमर होने का वरदान नहीं देता। नारायण दास बहुत बीमार पड़ गया। कलाधर ने जी जान से गुरू की सेवा की पर उनकी बीमारी बढ़ती ही गई। एक दिन उनका बुखार तेज हो गया। कलाधर उनके माथे पर गीली पटृी दे रहा था। गुरू के मुख से कुछ अस्पष्ट स्वर फूट रहे थे, रह रहकर - बेटा कला धर कला की ऊंचाई का अंत नहीं है। कारीगरी में दोष निकाले जाने का बुरा नहीं मानना कला पर अभिमान मत करना। अंतिम शब्द कहते कहते उनके प्राण छूट गए। कलाधर अपने माता-पिता की मृत्यु पर उतना नहीं रोया था, जितना गुरू की मृत्यु पर। धीरे-धीरे वह पुराने जीवन में लौट आया। मूर्तियां गढ़नी शुरू कर दी। एक दिन उसके यहां एक साधु महाराज पधारे। साधु ने कलाधर से भगवान कृष्ण के बाल रूप की एक सुंदर मूर्ति बनाने को कहा। मूर्तिकार ने उनसे एक महीने बाद आने को कहा। साधु को इतना लंबा समय लेने के लिए आश्चर्य हो हुआ मगर वे चुप रहे। एक महीने बाद जब से आए तो वे भगवान कृष्ण की मूर्ति को देखकर दंग रह गए। माखन चुराते कृष्ण, साधु के मुख से निकला, - वाह, क्या खूब! बोलो कलाकार, तुम्हें क्या पारिश्रमिक चाहिए? कलाधर बोला - साधु से पारिश्रमिक! घोर पाप! महाराज, केवल आर्शीवाद दीजिए। बेटा मेरा आर्शीवाद है कि तू देवलोक के लोगों की वाणी समझ सकेगा। फिर साधु महाराज चले गए। एक दिन कलाधर अपनी कार्यशाला में मूर्ति गढ़ने में तल्लीन था कि उसे दो व्यक्तियों की आपसी बातचीत की आवाज सुनाई दी। साधु के आर्शीवाद से वह उनकी बातचीत समझ सकता था। बेचारा मूर्तिकार! पांच दिन का मेहमान और है। छठे दिन तो इसके प्राण लेने आना ही पड़ेगा। हमारा काम भी कितना क्रूर है। मूर्तिकार समझ गया कि ये यमदूत हैं। अब मौत का डर सबको होता ही है, सो उसे भी हुआ। वह मृत्यु से बचने को उपाय सोचने लगा। उसने हू बहू अपने जैसी पांच मूर्तियां बनाईं। छठे दिन वह उन मूर्तियों के बीच सांस रोकर स्थिर बैठ गया। यमदूत आए। वे बुरी तरह भ्रम में पड़ गए। इनमें कौन असली मूर्तिकार है। वे उसे पहचान नहीं पाए। खाली हाथ लौट आए। यमदूतों को खाली हाथ लौटते देख यमराज के क्रोध की सीमा न रही। वे गरजे - आज तक मेरा कोई भी दूत बिना प्राण लिए नहीं लौटा। तुम कैसे, वापस आ गए? जाओ, जैसे भी हो उस मूर्तिकार के प्राण लेकर आओ। यमदूत वापस कार्यशाला में पहुंचे। अब भी वे उसे पहचान नहीं पाए। अचानक एक दूत को एक युक्ति सूझी उसने अपने साथी से कहा - वाह क्या मूर्ति बनाई है, फिर भी मूर्तिकार है बेवकूफ। इस मूर्ति की एक आंख बड़ी, दूसरी छोटी बनाई है। दूसरी मूर्ति के अंगूठा ही नहीं है। मूर्तिकार से अपनी कला में दोष सहन नहीं हुआ। वह गुरू की अंतिम सीख भी भूल गया! चिल्ला पड़ा - झूठ! दोनों आंखें बराबर। कहते ही उसकी आवाज डूबती गई। गर्दन एक ओर लुढ़क गई। यमदूत उसके प्राण लेकर जा चुके थे। *****
- मनहूस
रमाकांत मिश्रा एक व्यक्ति के बारे में मशहूर हो गया कि उसका चेहरा बहुत मनहूस है। लोगों ने उसके मनहूस होने की शिकायत राजा से की। राजा ने लोगों की इस धारणा पर विश्वास नहीं किया, लेकिन इस बात की जाँच खुद करने का फैसला किया। राजा ने उस व्यक्ति को बुला कर अपने महल में रखा। एक सुबह स्वयं उसका मुख देखने पहुँचा। संयोग से व्यस्तता के कारण उस दिन राजा भोजन नहीं कर सका। वह इस नतीजे पर पहुंचा कि उस व्यक्ति का चेहरा सचमुच मनहूस है। उसने जल्लाद को बुलाकर उस व्यक्ति को मृत्युदंड देने का हुक्म सुना दिया। जब मंत्री ने राजा का यह हुक्म सुना तो उसने पूछा,"महाराज! इस निर्दोष को क्यों मृत्युदंड दे रहे हैं? राजा ने कहा,"हे मंत्री! यह व्यक्ति वास्तव में मनहूस है। आज सर्वप्रथम मैंने इसका मुख देखा तो मुझे दिन भर भोजन भी नसीब नहीं हुआ। इस पर मंत्री ने कहा, "महाराज क्षमा करें, प्रातः इस व्यक्ति ने भी सर्वप्रथम आपका मुख देखा। आपको तो भोजन नहीं मिला, लेकिन आपके मुखदर्शन से तो इसे मृत्युदंड मिल रहा है। अब आप स्वयं निर्णय करें कि कौन अधिक मनहूस है।" राजा भौंचक्का रह गया। उसने इस दृष्टि से तो सोचा ही नहीं था। राजा को किंकर्तव्यविमूढ़ देख कर मंत्री ने कहा, "राजन्! किसी भी व्यक्ति का चेहरा मनहूस नहीं होता। वह तो भगवान की देन है। मनहूसियत हमारे देखने या सोचने के ढंग में होती है। आप कृपा कर इस व्यक्ति को मुक्त कर दें।" राजा ने उसे मुक्त कर दिया। ******
- प्रतिस्पर्धा की राह
डॉ. कृष्णकांत श्रीवास्तव चार महीने बीत चुके थे, बल्कि 10 दिन ऊपर हो गए थे। किंतु बड़े भइया की ओर से अभी तक कोई ख़बर नहीं आई थी कि वह पापा को लेने कब आएंगे। यह कोई पहली बार नहीं था कि बड़े भइया ने ऐसा किया हो। हर बार उनका ऐसा ही रवैया रहता है। जब भी पापा को रखने की उनकी बारी आती है, वह समस्याओं से गुज़रने लगते हैं। कभी भाभी की तबीयत ख़राब हो जाती है, कभी ऑफिस का काम बढ़ जाता है और उनकी छुट्टी कैंसिल हो जाती है। विवश होकर मुझे ही पापा को छोड़ने मुँबई जाना पड़ता है। हमेशा की तरह इस बार भी पापा की जाने की इच्छा नहीं थी, किंतु मैंने इस ओर ध्यान नहीं दिया और उनका व अपना मुँबई का रिज़र्वेशन करवा लिया। दिल्ली-मुँबई राजधानी एक्सप्रेस अपने टाइम पर थी। सेकंड एसी की निचली बर्थ पर पापा को बैठाकर सामने की बर्थ पर मैं भी बैठ गया। साथ वाली सीट पर एक सज्जन पहले से विराजमान थे। बाकी बर्थ खाली थीं। कुछ ही देर में ट्रेन चल पड़ी। अपनी जेब से मोबाइल निकाल मैं देख रहा था, तभी कानों से पापा का स्वर टकराया, “मुन्ना, कुछ दिन तो तू भी रहेगा न मुँबई में। मेरा दिल लगा रहेगा और प्रतीक को भी अच्छा लगेगा।” पापा के स्वर की आर्द्रता पर तो मेरा ध्यान गया नहीं, मन-ही-मन मैं खीझ उठा। कितनी बार समझाया है पापा को कि मुझे ‘मुन्ना’ न कहा करें। ‘रजत’ पुकारा करें। अब मैं इतनी ऊँची पोस्ट पर आसीन एक प्रशासनिक अधिकारी हूँ। समाज में मेरा एक अलग रुतबा है। ऊँचा क़द है, मान-सम्मान है। बगल की सीट पर बैठा व्यक्ति मुन्ना शब्द सुनकर मुझे एक सामान्य-सा व्यक्ति समझ रहा होगा। मैं तनिक ज़ोर से बोला, “पापा, परसों मेरी गर्वनर के साथ मीटिंग है। मैं मुँबई में कैसे रुक सकता हूँ?” पापा के चेहरे पर निराशा की बदलियां छा गईं। मैं उनसे कुछ कहता, तभी मेरा मोबाइल बज उठा। रितु का फोन था। भर्राए स्वर में वह कह रही थी, “पापा ठीक से बैठ गए न।” “हाँ-हाँ, बैठ गए हैं। गाड़ी भी चल पड़ी है।” “देखो, पापा का ख़्याल रखना। रात में मेडिसिन दे देना। भाभी को भी सब अच्छी तरह समझाकर आना। पापा को वहाँ कोई तकलीफ़ नहीं होनी चाहिए।” “नहीं होगी।” मैंने फोन काट दिया। “रितु का फोन था न। मेरी चिंता कर रही होगी।” पापा के चेहरे पर वात्सल्य उमड़ आया था। रात में खाना खाकर पापा सो गए। थोड़ी देर में गाड़ी कोटा स्टेशन पर रुकी और यात्रियों के शोरगुल से हड़कंप-सा मच गया। तभी कंपार्टमेंट का दरवाज़ा खोलकर जो व्यक्ति अंदर आया, उसे देख मुझे बेहद आश्चर्य हुआ। मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि रमाशंकर से इस तरह ट्रेन में मुलाक़ात होगी। एक समय रमाशंकर मेरा पड़ोसी और सहपाठी था। हम दोनों के बीच मित्रता कम और नंबरों को लेकर प्रतिस्पर्धा अधिक रहती थी। हम दोनों ही मेहनती और बुद्धिमान थे, किंतु न जाने क्या बात थी कि मैं चाहे कितना भी परिश्रम क्यों न कर लूँ, बाज़ी सदैव रमाशंकर के हाथ लगती थी। शायद मेरी ही एकाग्रता में कमी थी। कुछ समय पश्चात् पापा ने शहर के पॉश एरिया में मकान बनवा लिया। मैंने कॉलेज चेंज कर लिया और इस तरह रमाशंकर और मेरा साथ छूट गया। मुझे याद आया कि किस प्रकार दो माह पूर्व एक सुबह मैं अपने ऑफिस पहुँचा था। कॉरिडोर में मुझसे मिलने के लिए काफ़ी लोग बैठे हुए थे। बिना उनकी ओर नज़र उठाए मैं अपने केबिन की ओर बढ़ रहा था। यकायक एक व्यक्ति मेरे सम्मुख आया और प्रसन्नता के अतिरेक में मेरे गले लग गया, “रजत यार, तू कितना बड़ा आदमी बन गया। पहचाना मुझे? मैं रमाशंकर।” मैं सकपका गया। फीकी-सी मुस्कुराहट मेरे चेहरे पर आकर विलुप्त हो गई। इतने लोगों के सम्मुख़ उसका अनौपचारिक व्यवहार मुझे ख़ल रहा था। वह भी शायद मेरे मनोभावों को ताड़ गया था, तभी तो एक लंबी प्रतीक्षा के उपरांत जब वह मेरे केबिन में दाख़िल हुआ, तो समझ चुका था कि वह अपने सहपाठी से नहीं, बल्कि एक प्रशासनिक अधिकारी से मिल रहा था। उसका मुझे ‘सर’ कहना मेरे अहं को संतुष्ट कर गया। यह जानकर कि वह बिजली विभाग में महज़ एक क्लर्क है, जो मेरे समक्ष अपना तबादला रुकवाने की गुज़ारिश लेकर आया है, मेरा सीना अभिमान से चौड़ा हो गया। कॉलेज के प्रिंसिपल और टीचर्स तो क्या, मेरे सभी कलीग्स भी यही कहते थे कि एक दिन रमाशंकर बहुत बड़ा आदमी बनेगा। हुँह, आज मैं कहाँ से कहाँ पहुँच गया और वह… पिछली स्मृतियों को पीछे धकेल मैं वर्तमान में पहुँचा तो देखा, रमाशंकर ने अपनी वृद्ध माँ को साइड की सीट पर लिटा दिया और स्वयं उनके क़रीब बैठ गया। एक उड़ती सी नज़र उस पर डाल मैंने अख़बार पर आँखें गड़ा दीं। तभी रमाशंकर बोला, “नमस्ते सर, मैंने तो देखा ही नहीं कि आप बैठे हैं।” मैंने नम्र स्वर में पूछा, “कैसे हो रमाशंकर?” “ठीक हूँ सर।” “कोटा कैसे आना हुआ?” “छोटी बुआ की बेटी की शादी में आया था। अब मुँबई जा रहा हूँ। शायद आपको याद हो, मेरा एक छोटा भाई था।” “छोटा भाई, हाँ याद आया, क्या नाम था उसका?” मैंने स्मृति पर ज़ोर डालने का उपक्रम किया जबकि मुझे अच्छी तरह याद था कि उसका नाम देवेश था। “सर, आप इतने ऊँचे पद पर हैं। आए दिन हज़ारों लोगों से मिलते हैं। आपको कहाँ याद होगा? देवेश नाम है उसका सर।” पता नहीं उसने मुझ पर व्यंग्य किया था या साधारण रूप से कहा था, फिर भी मेरी गर्दन कुछ तन-सी गई। उस पर एहसान-सा लादते हुए मैं बोला, “देखो रमाशंकर, यह मेरा ऑफिस नहीं है, इसलिए सर कहना बंद करो और मुझे मेरे नाम से पुकारो। हाँ तो तुम क्या बता रहे थे, देवेश मुँबई में है?” “हाँ रजत, उसने वहाँ मकान ख़रीदा है। दो दिन पश्चात् उसका गृह प्रवेश है। चार-पांच दिन वहाँ रहकर मैं और अम्मा दिल्ली लौट आएंगे।” “इस उम्र में इन्हें इतना घुमा रहे हो?” “अम्मा की आने की बहुत इच्छा थी। इंसान की उम्र भले ही बढ़ जाए, इच्छाएं तो नहीं मरतीं न।” “हाँ, यह तो है। पिताजी कैसे हैं?” “पिताजी का दो वर्ष पूर्व स्वर्गवास हो गया था। अम्मा यह दुख झेल नहीं पाईं और उन्हें हार्टअटैक आ गया था, बस तभी से वह बीमार रहती हैं। अब तो अल्ज़ाइमर भी बढ़ गया है।” “तब तो उन्हें संभालना मुश्किल होता होगा। क्या करते हो? छह-छह महीने दोनों भाई रखते होंगे।” ऐसा पूछकर मैं शायद अपने मन को तसल्ली दे रहा था। आशा के विपरीत रमाशंकर बोला, “नहीं-नहीं, मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकता। अम्मा शुरू से दिल्ली में रही हैं। उनका कहीं और मन लगना मुश्किल है। मैं नहीं चाहता, इस उम्र में उनकी स्थिति पेंडुलम जैसी हो जाए। कभी इधर, तो कभी उधर। कितनी पीड़ा होगी उन्हें यह देखकर कि पिताजी के जाते ही उनका कोई घर ही नहीं रहा। वह हम पर बोझ हैं।” मैं मुस्कुराया, “रमाशंकर, इंसान को थोड़ा व्यावहारिक भी होना चाहिए। जीवन में स़िर्फ भावुकता से काम नहीं चलता है। अक्सर इंसान दायित्व उठाते-उठाते थक जाता है और तब ये विचार मन को उद्वेलित करने लगते हैं कि अकेले हम ही क्यों माँ-बाप की सेवा करें, दूसरा क्यों न करे।” “पता नहीं रजत, मैं ज़रा पुराने विचारों का इंसान हूँ। मेरा तो यह मानना है कि हर इंसान की करनी उसके साथ है। कोई भी काम मुश्क़िल तभी लगता है, जब उसे बोझ समझकर किया जाए। माँ-बाप क्या कभी अपने बच्चों को बोझ समझते हैं? आधे-अधूरे कर्त्तव्यों में कभी आस्था नहीं होती रजत, मात्र औपचारिकता होती है! और सबसे बड़ी बात जाने-अनजाने हमारे कर्म ही तो संस्कार बनकर हमारे बच्चों के द्वारा हमारे सम्मुख आते हैं। समय रहते यह छोटी-सी बात इंसान की समझ में आ जाए, तो उसका बुढ़ापा भी संवर जाए।” मुझे ऐसा लगा, मानो रमाशंकर ने मेरे मुख पर तमाचा जड़ दिया हो। मैं नि:शब्द, मौन!!! सोने का उपक्रम करने लगा, किंतु नींद मेरी आँखों से अब कोसों दूर हो चुकी थी। रमाशंकर की बातें मेरे दिलोदिमाग़ में हथौड़े बरसा रही थीं। इतने वर्षों से संचित किया हुआ अभिमान पलभर में चूर-चूर हो गया था। प्रशासनिक परीक्षा की तैयारी के लिए इतनी मोटी-मोटी किताबें पढ़ता रहा, किंतु पापा के मन की संवेदनाओं को, उनके हृदय की पीड़ा को नहीं पढ़ सका। क्या इतना बड़ा मुक़ाम मैंने स़िर्फ अपनी मेहनत के बल पर पाया है। नहीं, इसके पीछे पापा-मम्मी की वर्षों की तपस्या निहित है। आख़िर उन्होंने ही तो मेरी आँखों को सपने देखने सिखाए। जीवन में कुछ कर दिखाने की प्रेरणा दी। रात्रि में जब मैं देर तक पढ़ता था, तो पापा भी मेरे साथ जागते थे कि कहीं मुझे नींद न आ जाए। मेरे इस लक्ष्य को हासिल करने में पापा हर क़दम पर मेरे साथ रहे और आज जब पापा को मेरे साथ की ज़रूरत है, तो मैं व्यावहारिकता का सहारा ले रहा हूँ। दो वर्ष पूर्व की स्मृति मन पर दस्तक दे रही थी। सीवियर हार्टअटैक आने के बाद मम्मी बीमार रहने लगी थीं। एक शाम ऑफिस से लौटकर मैं पापा-मम्मी के बेडरूम में जा रहा था, तभी अंदर से आती आवाज़ से मेरे पांव ठिठक गए। मम्मी पापा से कह रही थीं, “इस दुनिया में जो आया है, वह जाएगा भी। कोई पहले, तो कोई बाद में। इतने इंटैलेक्चुअल होते हुए भी आप इस सच्चाई से मुँह मोड़ना चाह रहे हैं।” “मैं क्या करूँ पूजा? तुम्हारे बिना अपने अस्तित्व की कल्पना भी मेरे लिए कठिन है। कभी सोचा है तुमने कि तुम्हारे बाद मेरा क्या होगा?” पापा का कंठ अवरुद्ध हो गया था! किंतु मम्मी तनिक भी विचलित नहीं हुईं और शांत स्वर में बोलीं थीं, “आपकी तरफ़ से तो मैं पूरी तरह से निश्चिंत हूँ। रजत और रितु आपका बहुत ख़्याल रखेंगे, यह एक माँ के अंतर्मन की आवाज़ है, उसका विश्वास है जो कभी ग़लत नहीं हो सकता।” इस घटना के पांच दिन बाद ही मम्मी चली गईं थीं। कितने टूट गए थे पापा। बिल्कुल अकेले पड़ गए थे। उनके अकेलेपन की पीड़ा को मुझसे अधिक मेरी पत्नी रितु ने समझा। यूँ भी वह पापा के दोस्त की बेटी थी और बचपन से पापा से दिल से जुड़ी हुई थी। उसने कभी नहीं चाहा, पापा को अपने से दूर करना, किंतु मेरा मानना था कि कोरी भावुकता में लिए गए फैसले अक्सर ग़लत साबित होते हैं। इंसान को प्रैक्टिकल अप्रोच से काम लेना चाहिए। अकेले मैं ही क्यों पापा का दायित्व उठाऊँ? दोनों बड़े भाई क्यों न उठाएं? जबकि पापा ने तीनों को बराबर का स्नेह दिया, पढ़ाया, लिखाया, तो दायित्व भी तीनों का बराबर है। छह माह बाद मम्मी की बरसी पर यह जानते हुए भी कि दोनों बड़े भाई पापा को अपने साथ रखना नहीं चाहते, मैंने यह फैसला किया था कि हम तीनों बेटे चार-चार माह पापा को रखेंगे। पापा को जब इस बात का पता चला, तो कितनी बेबसी उभर आई थी उनके चेहरे पर। चेहरे की झुर्रियां और गहरा गई थीं। उम्र मानो १० वर्ष आगे सरक गई थी। सारी उम्र पापा की दिल्ली में गुज़री थी। सभी दोस्त और रिश्तेदार यहीं पर थे, जिनके सहारे उनका व़क्त कुछ अच्छा बीत सकता था, किंतु… सोचते-सोचते मैंने एक गहरी सांस ली। आँखों से बह रहे पश्चाताप के आँसू पूरी रात मेरा तकिया भिगोते रहे। उफ्… यह क्या कर दिया मैंने। पापा को तो असहनीय पीड़ा पहुँचाई ही, मम्मी के विश्वास को भी खंडित कर दिया। आज वह जहाँ कहीं भी होंगी, पापा की स्थिति पर उनकी आत्मा कलप रही होगी। क्या वह कभी मुझे क्षमा कर पाएंगी? रात में कई बार अम्मा का रमाशंकर को आवाज़ देना और हर बार उसका चेहरे पर बिना शिकन लाए उठना, मुझे आत्मविश्लेषण के लिए बाध्य कर रहा था। उसे देख मुझे एहसास हो रहा था कि इंसानियत और बड़प्पन हैसियत की मोहताज नहीं होती। वह तो दिल में होती है। अचानक मुझे एहसास हुआ, मेरे और रमाशंकर के बीच आज भी प्रतिस्पर्धा जारी है। इंसानियत की प्रतिस्पर्धा, जिसमें आज भी वह मुझसे बाज़ी मार ले गया था। पद भले ही मेरा बड़ा था, किंतु रमाशंकर का क़द मुझसे बहुत ऊँचा था। गाड़ी मुँबई सेंट्रल पर रुकी, तो मैं रमाशंकर के क़रीब पहुँचा। उसके दोनों हाथ थाम मैं भावुक स्वर में बोला, “रमाशंकर मेरे दोस्त, चलता हूँ। यह सफ़र सारी ज़िंदगी मुझे याद रहेगा।” कहने के साथ ही मैंने उसे गले लगा लिया। आश्चर्य मिश्रित ख़ुशी से वह मुझे देख रहा था। मैं बोला, “वादा करो, अपनी फैमिली को लेकर मेरे घर अवश्य आओगे।” “आऊँगा क्यों नहीं, आखिऱ इतने वर्षों बाद मुझे मेरा दोस्त मिला है।” ख़ुशी से उसकी आवाज़ कांप रही थी। अटैची उठाए पापा के साथ मैं नीचे उतर गया। स्टेशन के बाहर मैंने टैक्सी पकड़ी और ड्राइवर से एयरपोर्ट चलने को कहा। पापा हैरत से बोले, “एयरपोर्ट क्यों?” भावुक होकर मैं पापा के गले लग गया और रुंधे कंठ से बोला, “पापा, मुझे माफ़ कर दीजिए। हम वापिस दिल्ली जा रहे हैं। अब आप हमेशा वहीं अपने घर में रहेंगे।” पापा की आँखें नम हो उठीं और चेहरा खुशी से खिल उठा। “जुग जुग जिओ मेरे बच्चे।” वह बुदबुदाए। कुछ पल के लिए उन्होंन अपनी आँखें बंद कर लीं, फिर चेहरा उठाकर आकाश की ओर देखा। मुझे ऐसा लगा मानो वह मम्मी से कह रहे हों, देर से ही सही, तुम्हारा विश्वास सही निकला। ******